महाभारतम्-12-शांतिपर्व-141
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति आपदि अभक्ष्यभक्षणेनाप्यात्मरक्षणकरणे दृष्टान्ततया विश्वामित्रश्वपचसंवादानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-141-1x |
हीने परमके धर्मे सर्वलोकविलङ्घिते। अधर्मे धर्मतां नीते धर्मे चाधर्मतां गते।। | 12-141-1a 12-141-1b |
मर्यादासु प्रभिन्नासु क्षुभिते लोकिश्चये। राजभिः पीडिते लोके चोरैर्वाऽपि विशांपते।। | 12-141-2a 12-141-2b |
सर्वाश्रमेषु मूढेषु कर्मसूपहतेषु च। कामाल्लोभाच्च मोहाच्च भयं पश्यत्सु भारत।। | 12-141-3a 12-141-3b |
अविश्वस्तेषु सर्वेषु नित्यं भीतेषु भारत। नित्यं च हन्यमानेषु वञ्चयत्सु परस्परम्।। | 12-141-4a 12-141-4b |
प्रदीप्तेषु च देशेषु ब्राह्मण्ये चातिपीडिते। अवर्षति च पर्जन्ये मिथो भेदे समुत्थिते।। | 12-141-5a 12-141-5b |
सर्वस्मिन्दस्युसाद्भूते पृथिव्यामुपजीवने। केनस्विद्ब्राह्मणो जीवेज्जघन्ये काल आगते।। | 12-141-6a 12-141-6b |
अतितिक्षुः पुत्रपौत्राननुक्रोशान्नराधिप। कतमापदि वर्तेत तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-141-7a 12-141-7b |
कथं च राजा वर्तेत लोके कलुषतां गते। कथमर्थाच्च धर्माच्च न हीयेत परंतप।। | 12-141-8a 12-141-8b |
भीष्म उवाच। | 12-141-9x |
राजमूला महाबाहो योगक्षेमसुवृष्टयः। प्रजासु व्याधयश्चैव मरणं च भयानि च।। | 12-141-9a 12-141-9b |
कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्च भरतर्षभ। राजमूला इति मतिर्मम नास्त्यत्र संशयः।। | 12-141-10a 12-141-10b |
तस्मिंस्त्वभ्यागते काले प्रजानां दोषकारके। विज्ञानबलमास्थाय जीवितव्यं भवेत्तदा।। | 12-141-11a 12-141-11b |
अधाप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। विश्वामित्रस्य संवादं चण्डालस्य च पक्कणे।। | 12-141-12a 12-141-12b |
त्रेताद्वापरयोः संधौ पुरा दैवव्यतिक्रमात्। अनावृष्टिरभूद्धोरा लोके द्वादशवार्षिकी।। | 12-141-13a 12-141-13b |
प्रजानामतिवृद्धानां युगान्ते समुपस्थिते। त्रेतायां मोक्षसमये द्वापरप्रतिपादने।। | 12-141-14a 12-141-14b |
न ववर्ष सहस्राक्षः प्रतिलोमोऽभवद्गुरुः। जगाम दक्षिणं मार्गं सोमो व्यावृत्तमण्डलः।। | 12-141-15a 12-141-15b |
नावश्यायोऽपि रात्र्यन्ते कुत एवाभ्रराजयः। नद्यः संक्षिप्ततोयौघाः किंचिदन्तर्गताऽभवन्।। | 12-141-16a 12-141-16b |
सरांसि सरितश्चैव कूपाः प्रस्रवणानि च। हतत्विषो न लक्ष्यन्ते निसर्गात्पूर्वकारितात्।। | 12-141-17a 12-141-17b |
भूमिः शुष्कजलस्थाना विनिवृत्तसभाप्रपा। निवृत्तयज्ञस्वाध्याया निर्वषट्कारमङ्गला।। | 12-141-18a 12-141-18b |
उत्सन्नकृषिगोरक्षा निवृत्तविपणापणा। निवृत्तपूर्वसमया संप्रनष्टमहोत्सवा।। | 12-141-19a 12-141-19b |
अस्थिकङ्कालसंकीर्णा हाहाभूतनराकुला। शून्यभूयिष्ठनगरा दग्धग्रामनिवेशना।। | 12-141-20a 12-141-20b |
क्वचिच्चोरैः क्वचिच्छूरैः क्वचिद्राजभिरातुरैः। परस्परभयाच्चैव शून्यभूयिष्ठनिर्जना।। | 12-141-21a 12-141-21b |
गतदैवतसंस्थाना वृद्धबालविनाकृता। गोजाविमहिषीहीना परस्परपराहता।। | 12-141-22a 12-141-22b |
हतविप्रा हतारक्षा प्रनष्टोत्सवसंचया। शवभूतनरप्राया बभूव वसुधा तदा।। | 12-141-23a 12-141-23b |
तस्मिन्प्रतिभये काले क्षीणधर्मे युधिष्ठिर। बभूवुः क्षुधिता मर्त्याः खादमानाः परस्परम्।। | 12-141-24a 12-141-24b |
ऋषयो नियमांस्त्यक्त्वा परित्यक्ताग्निदेवताः। आश्रमान्संपरित्यज्य पर्यधावन्नितस्ततः।। | 12-141-25a 12-141-25b |
विश्वामित्रोऽथ भगवान्महर्षिरनिकेतनः। क्षुधा परिगतो धीमान्समन्तात्पर्यधावत्।। | 12-141-26a 12-141-26b |
त्यक्त्वा दारांश्च पुत्रांश्च कस्मिंश्च जनसंसदि। भक्ष्याभक्ष्यसमो भ्रूत्वा निरग्निरनिकेतनः।। | 12-141-27a 12-141-27b |
स कदाचित्परिपतञ्श्वपचानां निकेतनम्। हिंस्राणां प्राणिघातानामाससाद वने क्वचित्।। | 12-141-28a 12-141-28b |
विभिन्नकलशाकीर्णं श्रमांसेन च भूषितम्। वराहखरभग्नास्थिकपालघटसंकुलम्।। | 12-141-29a 12-141-29b |
मृतचेलपरिस्तीर्णं निर्माल्यकृतभूषणम्। सर्पनिर्मोकमालाभिः कृतचिह्नकुटीमुखम्।। | 12-141-30a 12-141-30b |
कुक्कुटाराबहुलं गर्दभध्वनिनादितम्। उद्धोषद्भिः खरैर्वाक्यैः कलहद्भिः परस्परम्।। | 12-141-31a 12-141-31b |
उलूकपक्षिध्वनिभिर्देवतायतनैर्वृतम्। लोहघण्टापरिष्कारं श्वयूथपरिवारितम्।। | 12-141-32a 12-141-32b |
तत्प्रविश्य क्षुधाविष्टो गाधिपुत्रो महानृपिः। आहारान्वेषणे युक्तः परं यत्नं समास्थितः।। | 12-141-33a 12-141-33b |
न च क्वचिदविन्दत्स भिक्षमाणोऽपि कौशिकः। मांसमन्नं फलं मूलमन्यद्वा तत्र किंचन।। | 12-141-34a 12-141-34b |
अहो कृच्छ्रं मया प्राप्तमिति निश्चित्य कौशिकः। पपात भूमौ दौर्बल्यात्तस्मिंश्चण्डालपक्कणे।। | 12-141-35a 12-141-35b |
स चिन्तयामास मुनिः किंनु मे सुकृतं भवेत्। कथं वृथा न मृत्युः स्यादिति पार्थिवसत्तम।। | 12-141-36a 12-141-36b |
स ददर्श श्वमांसस्य कुतन्त्रीं पतितां मुनिः। चण्डालस्य गृहे राजन्सद्यः शस्त्रहतस्य वै।। | 12-141-37a 12-141-37b |
स चिन्तयामास तदा स्तेयं कार्यमितो मया। न--दानीमुपायो मे विद्यते प्राणधारणे।। | 12-141-38a 12-141-38b |
---सु विहितं स्तेयं विशिष्टसमहीनतः। परस्परं भवेत्पूर्वमास्थेयमिति निश्चयः। | 12-141-39a 12-141-39b |
हीनादादेयमादौ स्यात्समानात्तदनन्तरम्। असंभवे त्वाददीत विशिष्टादपि धार्मिकात्।। | 12-141-40a 12-141-40b |
सोऽहमन्तावसायीनां हराम्येनां प्रतिग्रहात्। न स्तेयदोषं पश्यामि हरिष्याम्येतदामिषम्।। | 12-141-41a 12-141-41b |
एतां बुद्धिं समास्थाय विश्वामित्रो महामुनिः। तस्मिन्देशे सुसुष्वाप पतितो यत्र भारत।। | 12-141-42a 12-141-42b |
स विगाढां निशां दृष्ट्वा सुप्ते चण्डालपक्कणे। शनैरुत्थाय भगवान्प्रविवेश कुटीमुखम्।। | 12-141-43a 12-141-43b |
स सुप्त एव चण्डालः श्लेष्मापिहितलोचनः। परिभिन्नस्वरो रूक्षः प्रोवाचाप्रियदर्शनः।। | 12-141-44a 12-141-44b |
कः कुतन्त्रीं घट्टयति सुप्ते चण्डालपक्कणे। जागर्मि नैव सुप्तोऽस्मि हतोऽसीति च दारुणः।। | 12-141-45a 12-141-45b |
विश्वामित्रोऽहमित्येव सहसा तमुवाच ह। सहसाऽभ्यागतं भूयः सोद्वेगस्तेन कर्मणा।। | 12-141-46a 12-141-46b |
विश्वामित्रोऽहमायुष्मन्नागतोऽहं बुभुक्षितः। मा वधीर्मम सद्बुद्धे यदि सम्यक्प्रपश्यसि।। | 12-141-47a 12-141-47b |
चण्डालस्तद्वचः श्रुत्वा महर्षेर्भावितात्मनः। शयनादुपसंभ्रान्त उद्ययौ प्रति तं ततः।। | 12-141-48a 12-141-48b |
स विसृज्याश्रु नेत्राभ्यां बहुमानात्कृताञ्जलिः। उवाच कौशिकं रात्रौ ब्रह्मन्किं ते चिकीर्षितम्।। | 12-141-49a 12-141-49b |
विश्वामित्रस्तु मातङ्गमुवाच परिसान्त्वयन्। क्षुधितोऽन्तर्गतप्राणो हरिष्यामि श्वजाघनीम्।। | 12-141-50a 12-141-50b |
क्षुधितः कलुषं यातो नास्ति ह्रीरशनार्थिनः। क्षुच्च मां दूषयत्यत्र हरिष्यामि श्वजाघनीम्।। | 12-141-51a 12-141-51b |
अवसीदन्ति मे प्राणाः स्मृतिर्मे नश्यति क्षुधा। दुर्बलो नष्टसंज्ञश्च भक्ष्याभक्ष्यविवर्जितः। सोधर्मं बुध्यमानोऽपि हरिष्यामि श्वजाघनीम्।। | 12-141-52a 12-141-52b 12-141-52c |
यदा भैक्षं न विन्दामि युष्माकमहमालये। तदा बुद्धिः कृता पापे हरिष्यामि श्वजाघनीम्।। | 12-141-53a 12-141-53b |
अग्निर्मुखं पुरोधाश्च देवानां शुचिषाङ्विभुः। यथा च सर्वभुग्ब्रह्मा तथा मां विद्धि धर्मतः।। | 12-141-54a 12-141-54b |
तमुवाच स चण्डालो महर्षे शृणु मे वचः। श्रुत्वा तथा तमातिष्ठ यथा धर्मो न हीयते।। | 12-141-55a 12-141-55b |
धर्मं तवापि विप्रर्षे शृणु यत्ते ब्रवीम्यहम्।। | 12-141-56a |
मृगाणामधमं श्वानं प्रवदन्ति मनीषिणः। तस्याप्यधम उद्देशः शरीरस्य तु जाघी।। | 12-141-57a 12-141-57b |
नेदं सम्यग्व्यवसितं महर्षे कर्म गर्हितम्। चण्डालस्वस्य हरणमभक्ष्यस्य विशेषतः।। | 12-141-58a 12-141-58b |
साध्वन्यमनुपश्य त्वमुपायं प्राणधारणे। श्वमांसलोभात्तपसो नाशस्ते स्यान्महामुने।। | 12-141-59a 12-141-59b |
जानता विहितो मार्गो न कार्यो धर्मसंकरः। मा स्म धर्मं परित्याक्षीस्त्वं हि धर्मविदुत्तमः।। | 12-141-60a 12-141-60b |
विश्वामित्रस्ततो राजन्नित्युक्तो भरतर्षभ। क्षुधार्तः प्रत्युवाचेदं पुनरेव महामुनिः।। | 12-141-61a 12-141-61b |
निराहारस्य सुमहान्मम कालोऽभिधावतः। न विद्यतेऽप्युपायश्च कश्चिन्मे प्राणधारणे।। | 12-141-62a 12-141-62b |
येनकेन विशेषेण कर्मणा येनकेनचित्। उज्जिहीर्षे सीदमानः समर्थो धर्ममाचरेत्।। | 12-141-63a 12-141-63b |
ऐन्द्रो धर्मः क्षत्रियाणां ब्राह्मणानामथाग्निकः। ब्रह्मवह्निर्मम बलं भोक्ष्यामि शमयन्क्षुधाम्।। | 12-141-64a 12-141-64b |
यथायथैव जीवेद्धि तत्कर्तव्यमहेलया। जीवितं मरणाच्छ्रेयो जीवन्धर्ममवाप्नुयात्।। | 12-141-65a 12-141-65b |
सोऽहं जीवितमाकाङ्क्षन्नभक्ष्यस्यापि भक्षणम्। व्यवस्ये बुद्धिपूर्वं वै तद्भवाननुमन्यताम्।। | 12-141-66a 12-141-66b |
जीवन्धर्मं चरिष्यामि प्रणोत्स्याम्यशुभानि तु। तपोभिर्विद्यया चैव ज्योतींषीव महत्तमः।। | 12-141-67a 12-141-67b |
श्वपच उवाच। | 12-141-68x |
नैतत्खादन्प्राप्स्यसे प्राणमद्य नायुर्दीर्घं नामृतस्येव तृप्तिम्। भिक्षामन्यां भिक्ष मा ते मनोस्तु श्वभक्षणे श्वा ह्यभक्ष्यो द्विजानाम्।। | 12-141-68a 12-141-68b 12-141-68c 12-141-68d |
विश्वामित्र उवाच। | 12-141-69x |
न दुर्भिक्षे सुलभं मांसमन्य च्छ्वपाकमन्ये न च मेऽस्ति वित्तम। क्षुघार्तश्चाहमगतिर्निराशः श्वजाघनीं ष़ड्सात्साधु मन्ये।। | 12-141-69a 12-141-69b 12-141-69c 12-141-69d |
श्वपच उवाच। | 12-141-70x |
पञ्च पञ्चनखा भक्ष्या ब्रह्मक्षत्रस्य वै विशः। `शल्यकः श्वाविधो गोधा शशः कूर्मश्च पञ्चमः।' यदि शास्त्रं प्रमाणं ते माऽभक्ष्ये वै मनः कृथाः।। | 12-141-70a 12-141-70b 12-141-70c |
विश्वामित्र उवाच। | 12-141-71x |
अगस्त्येनासुरो जग्धो वातापिः क्षुधितेन वै। अहमापद्गतः क्षुब्धो भक्षयिष्ये श्वजाघनीम्।। | 12-141-71a 12-141-71b |
श्वपच उवाच। | 12-141-72x |
भिक्षामन्यामाहरेति न च कर्तुमिहार्हसि। न नूनं कार्यमेतद्वै हर कामं श्वजाघनीम्।। | 12-141-72a 12-141-72b |
विश्वामित्र उवाच। | 12-141-73x |
शिष्टा वै कारणं धर्मे तद्वृत्तमनुवर्तये। परां मेध्याशनादेनां भक्ष्यां मन्ये श्वजाघनीम्।। | 12-141-73a 12-141-73b |
श्वपच उवाच। | 12-141-74x |
असद्भिर्यः समाचीर्णो न स धर्मः सनातनः। अकार्यमिह कार्यं वा मा छलेनाशुभं कृथाः।। | 12-141-74a 12-141-74b |
विश्वामित्र उवाच। | 12-141-75x |
न पातकं नावमतमृषिः सन्कर्तुमर्हति। समौ च श्वमृगौ मन्ये तस्माद्भोक्ष्ये श्वजाघनीम्।। | 12-141-75a 12-141-75b |
श्वपच उवाच। | 12-141-76x |
यद्ब्राह्मणार्थे कृतमर्थिनेन तेनर्षिणा तदभक्ष्यं न कामात्। स वै धर्मो यत्र न पापमस्ति सर्वैरुपायैर्गुरवो हि रक्ष्याः।। | 12-141-76a 12-141-76b 12-141-76c 12-141-76d |
विश्वामित्र उवाच। | 12-141-77x |
मित्रं च मे ब्राह्मणस्यायमात्मा प्रियश्च मे पूज्यतमश्च लोके। तद्भोक्तुकामोऽहमिमां जिहीर्षे नृशंसानामीदृशानां न विभ्ये।। | 12-141-77a 12-141-77b 12-141-77c 12-141-77d |
श्वपच उवाच। | 12-141-78x |
कामं नरा जीवितं संत्यजन्ति न चाभक्ष्ये क्वचित्कुर्वन्ति बुद्धिम्। सर्वांश्च कामान्प्राप्नुवन्तीति विद्धि स्वर्गे निवासात्सहते क्षुधां वै।। | 12-141-78a 12-141-78b 12-141-78c 12-141-78d |
विश्वामित्र उवाच। | 12-141-79x |
स्थाने भवेत्स यशः प्रेत्यभावे निःसंशयः कर्मणां वै विनाशः। अहं पुनर्व्रतनित्यः शमात्मा मूलं रक्ष्यं भक्षयिष्याम्यभक्ष्यम्।। | 12-141-79a 12-141-79b 12-141-79c 12-141-79d |
बुद्ध्यात्मके व्यक्तमस्तीति सृष्टो मोक्षात्मके त्वं यथा शिष्टचक्षुः। यद्यप्येतत्संशयाच्च त्रपामि नाहं भविष्यामि यथा न माया।। | 12-141-80a 12-141-80b 12-141-80c 12-141-80d |
श्वपच उवाच। | 12-141-81x |
गोपनीयमिदं दुःखमिति मे निश्चिता मतिः। दुष्कृतं ब्राह्मणं सन्तं यस्त्वामहमुपालभे।। | 12-141-81a 12-141-81b |
विश्वामित्र उवाच। | 12-141-82x |
पिबन्त्येवोदकं गावो मण्डूकेषु रुवत्स्वपि। न तेऽधिकारो धर्मेऽस्ति वा भूरात्मप्रशंसकः।। | 12-141-82a 12-141-82b |
श्वपच उवाच। | 12-141-83x |
सुहृद्भूत्वाऽनुशोचे त्वां कृपा हि त्वयि मे द्विज। तदिदं श्रेय आधत्स्व मा लोभे चेत आदधाः।। | 12-141-83a 12-141-83b |
विश्वामित्र उवाच। | 12-141-84x |
सृहृन्मे त्वं सुखेप्सुश्चेदापदो मां समुद्धर। जामऽहं धर्मतोऽऽत्मानमुत्सृजेमां श्वजाघनीम्।। | 12-141-84a 12-141-84b |
श्वपच उवाच। | 12-141-85x |
नैवोत्सहे भवतो दातुमेतां नोपेक्षितुं ह्रियमाणं स्वमन्नम्। उभौ स्यावः श्वमलेनानुलिप्तौ दाता चाहं ब्राह्मणस्त्वं प्रतीच्छम्।। | 12-141-85a 12-141-85b 12-141-85c 12-141-85d |
विश्वामित्र उवाच। | 12-141-86x |
अद्याहमेतद्वॄजिनं कर्म कृत्वा जीवंश्चरिष्यामि महापवित्रम्। संपूतात्मा धर्ममेवाभिपत्स्ये यदेतयोर्गुरु तद्वै ब्रवीहि।। | 12-141-86a 12-141-86b 12-141-86c 12-141-86d |
श्वपच उवाच। | 12-141-87x |
आत्मैव साक्षी किल धर्मकृत्ये त्वमेव जानासि यदत्र दुष्कृतम्। यो ह्याद्रियाद्भक्ष्यमिति श्वमांसं मन्ये न तस्यास्ति विवर्जनीयम्।। | 12-141-87a 12-141-87b 12-141-87c 12-141-87d |
विश्वामित्र उवाच। | 12-141-88x |
उपधानैः साधते नापि दोषः कार्ये सिद्धे मित्र नात्रापवादः। अस्मिन्नहिंसा नानृते वाक्यलेशो भक्ष्यक्रिया यत्र न तद्गरीयः।। | 12-141-88a 12-141-88b 12-141-88c 12-141-88d |
श्वपच उवाच। | 12-141-89x |
यद्येष हेतुस्तव खादने स्या न्न ते वेदः कारणं नार्यधर्मः। तस्माद्भक्ष्ये भक्षणे वा द्विजेन्द्र दोषं न पश्यामि यथेदमत्र।। | 12-141-89a 12-141-89b 12-141-89c 12-141-89d |
विश्वामित्र उवाच। | 12-141-90x |
न पातकं भक्षमाणस्य दृष्टं सुरां तु पीत्वा पततीति शब्दः। अन्योन्यकार्याणि यथा तथैव न लेपमात्रेण कृतं हिनस्ति।। | 12-141-90a 12-141-90b 12-141-90c 12-141-90d |
श्वपच उवाच। | 12-141-91x |
`पादौ मूलं समभवद्वृन्ताकं शिर उच्यते। शेफात्तु गृञ्जरं जातं पलाण्डुस्त्वण्डसंभवः।। | 12-141-91a 12-141-91b |
श्वरोमजः शैव्यशाको लशुनं द्विजसंभवम्। चुक्किनामा पर्णशाकः कर्णादजनि भूसुर।।' | 12-141-92a 12-141-92b |
अस्थानतो हीनतः कुत्सिताद्वा तद्विद्वांसं बाधते साधु वृत्तम्। श्वानं पुनर्यो लभतेऽभिषङ्गा त्तेनापि दण्डः सहितव्य एव।। | 12-141-93a 12-141-93b 12-141-93c 12-141-93d |
भीष्म उवाच। | 12-141-94x |
एवमुक्त्वा निववृते मातङ्गः कौशिकं तदा। विश्वामित्रो जहारैव कृतबुद्धिः श्वजाघनीम्।। | 12-141-94a 12-141-94b |
ततो जग्राह स श्वाङ्गं जीवितार्थी महामुनिः। सदारस्तामुपाहृत्य वने भोक्तुमियेप सः।। | 12-141-95a 12-141-95b |
अथास्य बुद्धिरभवद्विधिनाऽहं श्वजाघनीम्। भक्षयामि यथाकालं पूर्वं संतर्प्य देवताः।। | 12-141-96a 12-141-96b |
ततोऽग्निमुपसंहृत्य ब्राह्मेण विधिना मुनिः। ऐन्द्राग्नेयेन विधिना चरुं श्रपयत स्वयम्।। | 12-141-97a 12-141-97b |
ततः समारभत्कर्म दैवं पित्र्यं च भारत। आहूय देवानिन्द्रादीन्भागंभागं विधिक्रमात्।। | 12-141-98a 12-141-98b |
एतस्मिन्नेव काले तु प्रववर्ष स वासवः। संजीवयन्प्रजाः सर्वा जनयामास चौषधीः।। | 12-141-99a 12-141-99b |
विश्वामित्रोऽपि भगवांस्तपसा दग्धकिल्चिषः। कालेन महता सिद्धिमवाप परमाद्भुताम्।। | 12-141-100a 12-141-100b |
स संहृत्य च तत्कर्म अनास्वाद्य च तद्धविः। तोषयामास देवांश्च पितॄंश्च द्विजसत्तमः।। | 12-141-101a 12-141-101b |
एवं विद्वानदीनात्मा व्यसनस्थो जिजीविषुः। सर्वोपायैरुपायज्ञो दीनमात्मानमुद्धरेत्।। | 12-141-102a 12-141-102b |
एतां बुद्धिं समास्थाय जीवितव्यं सदा भवेत्। जीवन्पुण्यमवाप्नोति पुरुषो भद्रमश्नुते।। | 12-141-103a 12-141-103b |
तस्मात्कौन्तेय विदुषा धर्माधर्मविनिश्चये। बुद्धिमास्थाय लोकेऽस्मिन्वर्तितव्यं कृतात्मना।। | 12-141-104a 12-141-104b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि एकचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 141।। |
12-141-7 अतितिक्षुः युक्तुमनिच्छुः। अनुक्रोशात् दयातः।। 12-141-9 अप्राप्तप्रापणं योगः। प्राप्तसंरक्षणं क्षेमः।। 12-141-12 पक्कणे चण्डालागारे।। 12-141-15 प्रतिलोमो वक्रः। व्यावृत्तं अन्यथाभूतं मण्डलं यस्य।। 12-141-16 अवश्यायो धूमिका।। 12-141-19 विषणो विक्रयादिः। आपणो हट्टः।। 12-141-23 हता आरक्षा रक्षाकर्तारो यस्यां सा।। 12-141-36 वृथा अन्नं विना।। 12-141-37 कुतन्त्रीं दण्डिकाम्।। 12-141-39 विप्रेण प्राणरक्षार्थं कर्तव्यमिति निश्चयः इति झ. पाठः।। 12-141-41 प्रतिग्रहात्तज्जदोषात् स्तैन्यदोषमधिकं न पश्यामीत्यर्थः।। 12-141-45 घट्टयति चालयति।। 12-141-47 मम माम्।। 12-141-51 कलुषं यातः पापं कर्मानुसृतः।। 12-141-54 अग्निर्देवानां मुखं च पुरोधाश्च सः। शुचिषाट् शुचि मेध्यमेव सहते नामेध्यम् तथाहं ब्रह्मा ब्राह्मणोऽपि तत्तुल्यत्वात्सर्वभुग्भविष्यामीत्यर्थः।। 12-141-64 ऐन्द्रः पालात्मकः। आग्निकः सर्वभुक्त्वरूपः। ब्रह्म वेदः स एव वह्निः।। 12-141-72 इति कर्तुं नार्हसीति योजना।। 12-141-73 शिष्टाः अगस्त्यादयः।। 12-141-75 समौ पशुत्वादिति भावः नृशंसमपि भक्षित्वा तेन वातापिना भक्ष्यमाणा ब्राह्मणा रक्षिता इति धर्म एवेत्यर्थः।। 12-141-77 तर्हि अयमात्मा देहो मम मित्रं एतस्य रक्षणार्थं मयाप्येतद्भुक्तं चेन्न कश्चिद्दोषोऽस्तीत्याह मित्रं चेति।। 12-141-79 स कामः प्रेत्यभावे मरणे सति यशः यशस्करो भवेदिति स्थाने युक्तम्। अनशनेन मरणं श्रेय इति सत्यमित्यर्थः। जीवतस्त्वनश्नतो धर्मलोपः प्रत्यक्षः। मूलं धर्मस्य शरीरं रक्ष्यं तस्य वैकल्येन धर्मविरोधो भवतीत्यर्थः।। 12-141-80 बुद्ध्यात्मके व्यक्तमस्तीति पुण्यं मोहात्मके यत्र यथा श्वभक्ष्ये। यद्यप्येत त्संशयात्मा चरामि नाहं भविष्यामि यथा त्वमेवेति झ. पाठः। तत्र बुद्ध्यात्मके प्रमातरि विचारिते श्वजाघनीभक्षणेऽपि पुण्यमस्तीति जाने। ज्ञानोत्पत्तियोग्यं शरीरमपथेन्नापि रक्ष्यमेवेति भावः। तथापि श्वभक्षणमात्रेण स्वादृशः श्वपचोऽहं न भविष्यामि। तपसा दोषं दूरीकर्तुं शक्तोऽस्मीति भावः।। 12-141-81 इदं श्वजाघनीभक्षणजं दुःखं पापं गोपनीयं गूहनीयं त्वया क्रियमाणं निरसनीयमिति मे बुद्धिर्निश्चितास्ति।। 12-141-82 धर्मे धर्मानुशासने।। 12-141-85 प्रतीच्छन् प्रतिगृह्णन्।। 12-141-89 हेतुः प्राणपोषणेच्छास्ति। कारणं प्रमाणम्। भक्ष्ये भक्षणे। अभक्षणे इति च्छेदः।। 12-141-90 पततीति शब्दः शब्दशास्त्रस्याज्ञामात्रम्। परंतु पापहेतुर्मुख्यो हिंसाख्योऽत्र न दृश्यत इति भवः। अन्योन्यकार्याणि मैथुनानि। लेपमात्रेण कृतं पुण्यं हिनस्ति नाशयति। तेन ईषत्पापोत्पत्तिरस्तु नतु ब्राह्मण्यादि धर्महानिरस्तीति भावः।। 12-141-93 अस्थानतश्चाण्डालगृहात्। हीनतश्चौर्यतः। कुत्सिताददित्सतः कदर्यात्। अभिषङ्गादत्याग्रहात्। श्वानं लभते तेनापि तेनैव दण्डः सहितव्यः सोढव्यएव। ननु दातुर्मम दोषोऽस्तीति भावः। अस्थानतो हीनतः कुत्सिताद्वा यो वै द्विजं बाधते साधुवृत्तम्। स्थानं पुनर्यो लभतेतिभङ्गात्तेनापि दण्डः प्रहितः स एवेति ध. पाठः।। 12-141-96 यथाकाममिति झ. पाठः।। 12-141-100 सिद्धिमियेषेति ट. ड. द. पाठः।।
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