महाभारतम्-12-शांतिपर्व-169
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ककसत्कृतेन गौतमेन तच्चोदनया तत्सुहृदो विरूपाक्षनाम्नो राक्षसस्य नगरं प्रति गमनम्।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-169-1x |
गिरं तां मधुरां श्रुत्वा गौतमो विस्मितस्तदा। कौतूहलान्वितो राजन्राजधर्माणमैक्षत।। | 12-169-1a 12-169-1b |
राजधर्मोवाच। | 12-169-2x |
भोः काश्यपस्य पुत्रोऽहं माता दाक्षायणी मम। सती त्वं च गुणोपेतः स्वागतं ते द्विजोत्तम।। | 12-169-2a 12-169-2b |
भीष्म उवाच। | 12-169-3x |
तस्मै दत्त्वा स सत्कारं विधिदृष्टेन कर्मणा। शालपुष्पमयीं दिव्यां बृसीं समुपकल्पयत्।। | 12-169-3a 12-169-3b |
भगीरथरथाक्रान्तदेशान्गङ्गानिषेवितान्। ये चरन्ति महामीनास्तांश्च तस्यान्वकल्पयत्।। | 12-169-4a 12-169-4b |
वह्निं चापि सुसंदीप्तं मीनांश्चापि सुपीवरान्। स गौतमायातिथये न्यवेदयत काश्यपिः।। | 12-169-5a 12-169-5b |
भुक्तवन्तं च तं विप्रं प्रीतात्मानं महामनाः। श्रमापनयनार्थं स पक्षाभ्यामभ्यवीजयत्।। | 12-169-6a 12-169-6b |
तनो विश्रान्तमासीनं गोत्रवृत्तमपृच्छत। सोऽब्रवीद्गौतमोऽस्मीति ब्राह्मणोस्मीत्युदाहरत्।। | 12-169-7a 12-169-7b |
तस्मै पर्णमयं दिव्यं दिव्यपुष्पाधिवासितम्। गन्धाढ्यं शयनं प्रादात्स शिश्ये तत्र वै सुखम्।। | 12-169-8a 12-169-8b |
अपोपविष्टं शयने गौतमं वाक्यवित्तमः। पप्रच्छ काश्यपिर्वाग्मी किमागमनमित्युत।। | 12-169-9a 12-169-9b |
ततोऽब्रवीद्गौतमस्तं दरिद्रोऽहं महामते। समुद्रगमनाकाङ्क्षी द्रव्यार्थमिति भारत।। | 12-169-10a 12-169-10b |
तं काश्यपोऽब्रवीत्प्रीत्या नोत्कण्ठां कर्तुमर्हसि। कृतकार्यो द्विजश्रेष्ठ सद्रव्यो यास्यसे गृहान्।। | 12-169-11a 12-169-11b |
चतुर्विधा ह्यर्थगतिर्बृहस्पतिमतं यथा। मित्रं विद्या हिरण्यं च बुद्धिश्चेति बुधेप्सिता।। | 12-169-12a 12-169-12b |
प्रादुर्भूतोऽस्मि ते मित्रं सुहृत्त्वं च महत्तरम्। सोऽहं तथा यतिष्यामि भविष्यसि यथार्थवान्।। | 12-169-13a 12-169-13b |
ततः प्रभातसमये सुखं पृष्ट्वाऽब्रवीदिदम्। गच्छ सौम्य पथाऽनेन कृतकृत्यो भविष्यसि।। | 12-169-14a 12-169-14b |
इतस्त्रियोजनं गत्वा राक्षसाधिपतिर्महान्। विरूपाक्ष इति ख्यातः सखा मम महाबलः।। | 12-169-15a 12-169-15b |
तं गच्छ द्विजमुख्य त्वं स मद्वाक्यप्रचोदितः। कामानभीप्सितांस्तुभ्यं दाता नास्त्यत्र संशयः।। | 12-169-16a 12-169-16b |
इत्युक्तः प्रययौ राजन्गौतमो विगतक्लमः। फलान्यमृतकल्पानि भक्षयानो यथेष्टतः।। | 12-169-17a 12-169-17b |
चन्दनागुरुमुख्यानि पत्रत्वचवनानि च। तस्मिन्पथि महाराज सेवमानो द्रुतं ययौ।। | 12-169-18a 12-169-18b |
ततो मनुव्रजं नाम नगरं शैलतोरणम्। शैलप्राकारवप्रं च शैलयन्त्रार्गलं तथा।। | 12-169-19a 12-169-19b |
विदितश्चाभवत्तस्य राक्षसेन्द्रस्य धीमतः। प्रहितः सुहृदा राजन्प्रीयमाणः प्रियातिथिः।। | 12-169-20a 12-169-20b |
ततः स राक्षसेन्द्रः स्वान्प्रेष्यानाह युधिष्ठिर। गौतमो नगरद्वाराच्छीघ्रमानीयतामिति।। | 12-169-21a 12-169-21b |
तस्मात्पुरवरात्तूर्णं पुरुषाः श्वेतवेष्टनाः। गौतमेत्यभिभाषन्तः पुरद्वारमुपागमन्।। | 12-169-22a 12-169-22b |
ते तमूचुर्महाराज राजप्रेष्यास्तदा द्विजम्। त्वरस्व तूर्णमागच्छ राजा त्वां द्रष्टुमिच्छति।। | 12-169-23a 12-169-23b |
राक्षसाधिपतिर्वीरो विरूपाक्ष इति श्रुतः। स त्वां त्वरति वै द्रष्टुं तत्क्षिप्रं संविधीयताम्।। | 12-169-24a 12-169-24b |
ततः स प्राद्रवद्विप्रो विस्मयाद्विगतक्लमः। गौतमः परमर्द्धि तां पश्यन्परमविस्मितः।। | 12-169-25a 12-169-25b |
तैरेव सहितो राज्ञो वेश्म तूर्णमुपाद्रवत्। दर्शनं राक्षसेन्द्रस्य काङ्क्षमाणो द्विजस्तदा।। | 12-169-26a 12-169-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि एकोनसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 169।। |
12-169-2 अतिथिस्त्वं गुणोपेत इति झ. पाठः।। 12-169-12 चतुर्विधाह्यर्थसिद्धिर्बृहस्पतिमतं यथा। पारंपर्थं तथा दैवं काम्यं मैत्रमिति प्रभो। इति झ. पाठः।। 12-169-19 मरुव्रजं नामेति थ. पाठः। मरुद्रजं नामेति द. पाठः। मेरुव्रजं नामेति झ. पाठः।। 12-169-24 राक्षसाधिपतिः श्रीमाव्राजधर्मेण प्रेषितः। यदर्थमिह मां द्रष्टुं इति ट. ड. थ. पाठः।।
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