महाभारतम्-12-शांतिपर्व-132
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति ब्राह्मणानामापदि राज्ञा असाधुजनधनापहारेणापि तद्रक्षणस्य करणीयत्वोक्तिः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-132-1x |
हीने परमके धर्मे सर्वलोकातिलङ्घने। सर्वस्मिन्दस्युसाद्भूते पृथिव्यामुपजीवने।। | 12-132-1a 12-132-1b |
केन स्विद्ब्राह्मणो जीवेज्जघन्ये काल आगते। असंत्यजन्पुत्रपौत्राननुक्रोशात्पितामह।। | 12-132-2a 12-132-2b |
भीष्म उवाच। | 12-132-3x |
विज्ञानबलमास्थाय जीवितव्यं तथा गते। सर्वं साध्वर्थमेवेदमसाध्वर्थं न किंचन।। | 12-132-3a 12-132-3b |
असाधुभ्योऽर्थमादाय साधुभ्यो यः प्रयच्छति। आत्मानं संक्रमं कृत्वा कृच्छ्रधर्मकृदेव सः।। | 12-132-4a 12-132-4b |
अरोषेणात्मनो राजन्राज्ये स्थितिमकोपयन्। अदत्तमप्याददीत् भ्रातुर्वित्तं ममेति वा।। | 12-132-5a 12-132-5b |
विज्ञानबलपूतो यो वर्तते निन्दितेष्वपि। वृत्तिविज्ञानवान्धीरः कस्तं वक्तुमिहार्हति।। | 12-132-6a 12-132-6b |
येषां बहुकृता बुद्धिस्तेषामन्या न रोचते। यजसा ते प्रवर्तन्ते बलवन्तो युधिष्ठिर।। | 12-132-7a 12-132-7b |
यदैव प्रकृतं शास्त्रं जनस्तदनुवर्तते। यदैवमध्यासेवन्ते मेध्रावी वाऽप्यथोत्तरम्।। | 12-132-8a 12-132-8b |
ऋत्विक्पुरोहिताचार्यान्सत्कृतानभिसत्कृतान्। न ब्राह्मणान्घातयीत दोषान्प्राप्नोति घातयन्।। | 12-132-9a 12-132-9b |
एतत्प्रमाणं लोकस्य चक्षुरेतत्सातनम्। तत्प्रमाणोऽवगाहेत तेन तत्साध्वसाधु वा।। | 12-132-10a 12-132-10b |
हवो ग्रामवास्तव्या दोषान्ब्रूयुः परस्परम्। न तेषां वचनाद्राजा सत्कुर्याद्धातयीत वा।। | 12-132-11a 12-132-11b |
न वाच्यः परिवादो वै न श्रोतव्यः कथंचन। कर्णौ तत्र पिधातव्यौ गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः।। | 12-132-12a 12-132-12b |
न सतां शीलमेतद्वै परिवादो न पैशुनम्। गुणानामेव वक्तारः सन्तो नित्यं युधिष्ठिर।। | 12-132-13a 12-132-13b |
यथा समधुरौ दम्यौ सुदान्तौ साधुवाहिनौ। धुरमुद्यम्य वहतस्तथा वर्तेत वै नृपः।। | 12-132-14a 12-132-14b |
यथायथाऽस्य बहवः सहायाः स्युस्तथा चरेत्। आचारमेव मन्यन्ते गरीयो धर्मलक्षणम्।। | 12-132-15a 12-132-15b |
अपरे नैवमिच्छन्ति ये शङ्खलिखिंतप्रियाः। अर्थे क्षीणेऽथवा लुब्धास्ते ब्रूयुर्वाक्यमीदृशम्।। | 12-132-16a 12-132-16b |
आर्षमष्यत्र पश्यन्ति विकर्मस्थस्य पातनम्। न चार्षात्सदृशं किंचित्प्रमाणं दृश्यते क्वचित्।। | 12-132-17a 12-132-17b |
देवा ह्यपि विकर्मस्थं घातयन्ति नराधमम्। व्याजेन विन्दन्वित्तं हि धर्मतः परिहीयते।। | 12-132-18a 12-132-18b |
सर्वतः सत्कृतः सद्भिर्भूतिप्रवरकारणैः। हृदयेनाभ्यनुज्ञातो यो धर्मस्तं व्यवस्यति।। | 12-132-19a 12-132-19b |
यश्चतुर्गुणसंपन्नं धर्मं वेद स धर्मवित्। अहेरिव हि धर्मस्य पदं दुःखं गवेषितुम्।। | 12-132-20a 12-132-20b |
यथा मृगस्य विद्धस्य मृगव्याधः पदं नयेत्। लक्षेद्रुधिरपातेन तथा धर्मपदं नयेत्।। | 12-132-21a 12-132-21b |
यथा सम्यग्वितेन पथा गन्तव्यमप्युत। राजर्षीणां वृत्तमेतदेवं गच्छ युधिष्ठिर।। | 12-132-22a 12-132-22b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि द्वात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 132।। |
12-132-1 हीने धर्मे राज्ञामिति शेषः। परमके सर्वोपायेन ब्राह्मणा रक्ष्या इत्यस्मि्।। 12-132-2 जघन्ये आपद्बहूले ब्राह्मणः केन जीदत्यस्य ब्राह्मणं कथं रक्षेदित्यर्थः।। 12-132-3 साध्वर्थं सतानम्।। 12-132-4 संक्रममागमनमार्गम्।। 12-132-5 स्थितिं पालनधर्मम्। स्यष्टस्य राज्ञो ब्राह्मणपालनार्थं सर्वस्वहरणेऽपि दोषो नास्तीत्यर्थः।। 12-132-6 वक्तुं निन्दितुम्।। 12-132-9 अन्त्यापद्यपि ऋत्विधनवतोऽपि न घातयीत धनहरणेन हिंस्यादित्यर्थः। पुरोहिताचार्यै- सत्कृतैरपि सत्कृतः। नाऽब्राह्मणान्यादोषान्प्राप्नोति याजयन्निति ट. थ. द. पाठः।। 12-132-11 स्तव्या ग्रामवासिनः।। 12-132-16 एवं त्विगादीनामदड- लिखितस्य भ्रातुरपि हस्तच्छेदः कृतस्तादृशधर्मपरा।। 12-132-19 सद्भिर्मन्वादिभिः सत्कृतः। भूतिप्रवरकारणैः भूतिप्रवरा ईश्वराः कारणानि पारम्पर्यागतानि कुलदेशग्रामादिपरिगृहीतानि तैरपि निमित्तैः सत्कृतः। मन्वादिभिरनुक्तोऽपि शिष्टैरादृत इत्यर्थः। हृदयेनाभ्यनुज्ञातः हेतुद्वयाभावेऽपि स्वयं च यो धर्मत्वेन निश्चितः।। 12-132-20 चत्वारो गुणाः आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिश्चेति। य एषामविरुद्धश्चतुर्गुणसंपन्नः।। 12-132-21 पदं स्थानं लक्षेल्लक्षयेत्। नयेत् अन्यान्प्रापयेत्। युक्त्येति शेषः।।
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