महाभारतम्-12-शांतिपर्व-214
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति शिष्याय गुरूक्तवार्ष्णेयाध्यात्मानुवादः।। 1।।
गुरुरुवाच। | 12-214-1x |
प्रवृत्तिलक्षणो धर्मो यथा समुपलभ्यते। तेषां विज्ञाननिष्ठानामन्यत्तत्वं न रोचते।। | 12-214-1a 12-214-1b |
दुर्लभा वेदविद्वांसो वेदोक्तेषु व्यवस्थिताः। प्रयोजनं महत्त्वात्तु मार्गमिच्छन्ति संस्तुतम्।। | 12-214-2a 12-214-2b |
`वेदस्य न विदुर्भावं ज्ञानमार्गप्रतिष्ठितम्।' सद्भिराचरितत्वात्तु वृत्तमेतदगर्हितम्। इयं सा बुद्धिरभ्येत्य यथा याति परां गतिम्।। | 12-214-3a 12-214-3b 12-214-3c |
शरीरवानुपादत्ते मोहात्सर्वान्परिग्रहान्। कामक्रोधादिभिर्भावैर्युक्तो राजसतामसैः।। | 12-214-4a 12-214-4b |
नाशुद्धमाचरेत्तस्मादभीप्सन्देहयापनम्। कर्मणां विवरं कुर्वन्न लोकानाप्नुयाच्छुभान्।। | 12-214-5a 12-214-5b |
लोहयुक्तं तथा हेम विपक्वं न विराजते। तथाऽपक्वकषायाख्यं विज्ञानं न प्रकाशते।। | 12-214-6a 12-214-6b |
`केचिदात्मगुणं प्राप्तास्ते मुक्ताश्चक्रबन्धनात्। इतरे दुःखसन्द्वन्द्वास्तथा दुःखपरायणाः।। | 12-214-7a 12-214-7b |
शुकाकर्मानुरूपं ते जायमानाः पुनः पुनः। क्रोधलोभमदाविष्टा मूढान्तः करणाः सदा।। | 12-214-8a 12-214-8b |
यथा--- संछाया नास्ति नित्यतया परा। गुणानेव तथा चिन्त्या सन्त्येति च विदुर्बुधाः।।' | 12-214-9a 12-214-9b |
यश्चाधर्मं चरेल्लोभात्कामक्रोधावनुप्लुवन्। धर्म्यं पन्थानमुत्क्रम्य सानुबन्धो विनश्यति।। | 12-214-10a 12-214-10b |
`अचलं ज्ञानमप्राप्य चलचित्तश्चलानियात्।' शब्दादीन्विषयांस्तस्मान्न संरागादुपप्लवेत्। क्रोधो हर्षो विषादश्च जायन्ते हि परस्परात्।। | 12-214-11a 12-214-11b 12-214-11c |
`गुणाः कार्याः क्रोधहर्षौ सुखदुःखे प्रियाप्रिये। द्वन्द्वान्यथैवमादीनि विजयेच्चैव सर्ववित्।।' | 12-214-12a 12-214-12b |
पञ्चभूतात्मके देहे सत्त्वराजसताभसे। कमभिष्टुवते चायं कं वा क्रोशति किं वदन्।। | 12-214-13a 12-214-13b |
स्पर्शरूपरसाद्येषु सङ्गं गच्छन्ति बालिशाः। नावगच्छन्ति विज्ञानादात्मानं पार्थिवं गुणम्।। | 12-214-14a 12-214-14b |
मृन्मयं शरणं यद्वन्मृदैव परिलिप्यते। पार्थिवोऽयं तथा देहो मृद्विकारान्न नश्यति।। | 12-214-15a 12-214-15b |
मधु तैलं पयः सर्पिर्मांसानि लवणं गुडः। धान्यानि फलमूलानि मृद्विकाराः सहाम्भसा।। | 12-214-16a 12-214-16b |
यद्वत्कान्तारमातिष्ठन्नौत्सुक्यं समनुव्रजेत्। ग्राम्यमाहारमादद्यादस्वाद्वपि हि यापनम्।। | 12-214-17a 12-214-17b |
तद्वत्संसारकान्तारमातिष्ठञ्श्रमतत्परः। यात्रार्थमद्यादाहारं व्याधितो भेषजं यथा।। | 12-214-18a 12-214-18b |
`भक्षणे श्वापदैर्मार्गादिति चारं करोति चेत्। एवं संसारमार्गेण यात्रार्थं विषयाणि च।। | 12-214-19a 12-214-19b |
न गच्छेद्भोगविज्ञानादुन्मार्गे पद्यते तदा। तस्माददुःखतो मार्गमास्थितस्तमनुस्मरेत्।। | 12-214-20a 12-214-20b |
नानापर्णफला वृक्षा बहवः सन्ति तत्र हि। भोक्तारो मुनयश्चैव तस्मात्परतरं वनम्।। | 12-214-21a 12-214-21b |
अनुमानैस्तथाशास्त्रैर्यशसा विक्रमेण च।' सत्यशौचार्जवत्यागैर्वर्चसा विक्रमेण च। क्षान्त्या धृत्या च बुद्ध्या च मनसा तपसैव च।। | 12-214-22a 12-214-22b 12-214-22c |
भावान्सर्वान्यथावृत्तान्संवसेत यथाक्रमम्। शान्तिमिच्छन्नदीनात्मा संयच्छेदिन्द्रियाणि च।। | 12-214-23a 12-214-23b |
सत्त्वेन रजसा चैव तमसा चैव मोहिताः। चक्रवत्परिवर्तन्ते ह्यज्ञानाज्जन्तवो भृशम्।। | 12-214-24a 12-214-24b |
तस्मात्सम्यक्परीक्षेत दोषानज्ञानसंभवान्। अज्ञानप्रभवं नित्यमहंकारं परित्यजेत्।। | 12-214-25a 12-214-25b |
महाभूतानीन्द्रियाणि गुणाः सत्त्वं रजस्तमः। `देहमूलं विजानीहि नैतानि भगवानतः।। | 12-214-26a 12-214-26b |
उपायतः प्रवक्ष्यामि तं च मृत्युं दुरासदम्। त्रैलोक्यं सेश्वरं सर्वमहंकारे प्रतिष्ठितम्।। | 12-214-27a 12-214-27b |
यथेह नियतः कालो दर्शयत्यार्तवान्गुणान्। तद्वद्भतेष्वहंकारं विद्याद्भूतप्रवर्तकम्।। | 12-214-28a 12-214-28b |
संमोहकं तमो विद्यात्कृष्णमज्ञानसंभवम्। प्रकृतेर्गुणसंजातो महानहंक्रिया ततः।। | 12-214-29a 12-214-29b |
अहंकारात्पुनः पश्चाद्भूतग्राममुदाहृतम्। अव्यक्तस्य गुणेभ्यस्तु तद्गुणांश्च निबोध तान्।। | 12-214-30a 12-214-30b |
प्रीतिदुःखनिबद्धांश्च समस्तांस्त्रीनथो गुणान्। सत्त्वस्य रजसश्चैव तमसश्च निबोध तान्।। | 12-214-31a 12-214-31b |
प्रसादो हर्षजा प्रीतिरसंदेहो धृतिः स्मृतिः। एतान्सत्त्वगुणान्विद्यादिमान्राजसतामसान्।। | 12-214-32a 12-214-32b |
`असन्तोषोऽक्षमाऽधैर्यमतृप्तिर्विषयादिषु। राजसाश्च गुणा ह्येते तत्परं तामसाञ्शृणु।। | 12-214-33a 12-214-33b |
मोहस्तन्द्री तथा दुःखं निद्राऽऽलस्यं प्रमादता। विषादी दीर्घसूत्रश्च तत्तामसमुदाहृतम्।।' | 12-214-34a 12-214-34b |
कामक्रोधौ प्रमादश्च लोभमोहौ भयं क्लमः। विषादशोकावरतिर्मानदर्पावनार्यता।। | 12-214-35a 12-214-35b |
दोषाणामेवमादीनां परीक्ष्य गुरुलाघवम्। विमृशेदात्मसंस्थानमेकैकमनुसंततम्।। | 12-214-36a 12-214-36b |
`यस्मिन्प्रतिष्ठितं चेदं यस्मिन्सज्ज्ञाननिर्गतिः। सर्वभूताधिकं नित्यमहंकारं विलोकयेत्।। | 12-214-37a 12-214-37b |
विलोकमानः स तदा स्वबुद्ध्या सूक्ष्मया पुनः। तदेव भाति तद्रूपमात्मना यत्सुनिर्मलम्।।' | 12-214-38a 12-214-38b |
शिष्य उवाच। | 12-214-39x |
के दोषा मनसा त्यक्ताः के बुद्ध्या शिथिलीकृताः के पुनः पुनरायान्ति के मोहादचला इव।। | 12-214-39a 12-214-39b |
केषां बलाबलं बुद्ध्या हेतुभिर्विमृशेद्बुधः। `एतन्मे सर्वमाचक्ष्व यथा विद्यामहं विभो। मह्यं शुश्रूषवे विद्वन्वक्ष्येतद्बुद्धिनिश्चितम्।। | 12-214-40a 12-214-40b 12-214-40c |
शान्तत्वादपरान्ताच्च आरम्भादपि चैकतः। प्रोक्तो ह्यत्र यथा हेतुरेवमाहुर्मनीषिणः।। | 12-214-41a 12-214-41b |
गुरुरुवाच।' | 12-214-42x |
दोषैर्मूलादवच्छिन्नैर्विशुद्धात्मा विमुच्यते। विनाशयति संभूतमयस्मयमयो यथा। तथा कृतात्मा सहजैर्दोषैर्नश्यति राजसैः।। | 12-214-42a 12-214-42b 12-214-42c |
`सहजैरविशुद्धात्मा दोषैर्नश्यति तामसैः।' राजसं तामसं चैव शुद्धात्मा कालसंभवम्।। | 12-214-43a 12-214-43b |
`शमयेत्सत्त्वमास्थाय बुद्ध्या केवलया द्विजः। त्यजेच्च मनसा चेतः शुद्धात्मा बुद्धिमास्थितः' | 12-214-44a 12-214-44b |
तत्सर्वं देहिनां बीजं सत्त्वमात्मवतः समम्। तस्मादात्मवता वर्ज्यं रजश्च तम एव च।। | 12-214-45a 12-214-45b |
रजस्तमोभ्यां निर्मुक्तं सत्त्वं निर्मलतामियात्। `आहारान्वर्जयेन्नित्यं राजसांस्तामसानपि।। | 12-214-46a 12-214-46b |
ते ब्रह्म पुनरायान्ति न मोहादचला इव।' अथवा मन्त्रवद्ब्रूयुर्मांसादीनां यजुष्कृतम्।। | 12-214-47a 12-214-47b |
स वै हेतुरनादाने शुद्धधर्मानुपालने। रजसा कामयुक्तानि कार्याण्यपि समाप्नुते।। | 12-214-48a 12-214-48b |
अर्थयुक्तानि चात्यर्थं कामान्सर्वांश्च सेवते। तमसा लोभयुक्तानि क्रोधजानि च सेवते। हिंसाविहाराभिरतस्तन्द्रीनिद्रासमन्वितः।। | 12-214-49a 12-214-49b 12-214-49c |
सत्वस्थः सात्विकान्भावाञ्शुद्धान्पश्यति संश्रितः। स देही विमलः श्रीमाञ्श्रद्धाविद्यासमन्वितः।। | 12-214-50a 12-214-50b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिप्रवणि मोक्षधर्मपर्वणि चतुर्दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 214।। |
12-214-9 प्रयोजनमत्तत्त्वात्तु इति ट. थ. पाठः।। 12-214-15 मृद्विकारैर्विलिप्यते इति ध. पाठः।। 12-214-23 यथावृत्तान्समीक्ष्य विषयात्मकान् इति झ. पाठः।। 12-214-40 वक्षि ब्रूहि। वच परिभाषण इति धातोर्लोटि मध्यमपुरुषैकवचनम्।।
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