महाभारतम्-12-शांतिपर्व-339
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नारदवचनाज्जातवैराग्येण शुकेन सूर्यमण्डलप्रविविक्षया व्यासनारदयोर्निवेदनपूर्वकं कैलासशिखरारोहणम्।। 1।।
नारद उवाच। | 12-339-1x |
सुखदुःखविपर्यासो यदा समनुपद्यते। नैनं प्रज्ञा सुनीतं वा त्रायते नापि पौरुषम्।। | 12-339-1a 12-339-1b |
स्वभावाद्यत्नमातिष्ठेद्यत्नवान्नावसीदति। जरामरणरोगेभ्यः प्रियमात्मानमुद्धरेत्।। | 12-339-2a 12-339-2b |
रुजन्ति हि शरीराणि रोगाः शारीरमानसाः। सायका इव तीक्ष्णाग्राः प्रयुक्ता दृढधन्विभिः।। | 12-339-3a 12-339-3b |
व्यथितस्य विधित्साभिस्त्रस्यतो जीवितैषिणः। अवशस्य विनाशाय शरीरमपकृष्यते।। | 12-339-4a 12-339-4b |
स्रवन्ति न निवर्तन्ते स्रोतांसि सरितामिव। आयुरादाय मर्त्यानां रात्र्यहानि पुनः पुनः।। | 12-339-5a 12-339-5b |
व्यत्ययो ह्ययमत्यन्तं पक्षयोः शुक्लकृष्णयोः। जातान्मर्त्याञ्जरयति निमेषान्नावतिष्ठते।। | 12-339-6a 12-339-6b |
सुखदुःखानि भूतानामजरो जरयत्यसौ। आदित्यो ह्यस्तमभ्येति पुनः पुनरुदेति च।। | 12-339-7a 12-339-7b |
अदृष्टपूर्वानादाय भावानपरिशङ्कितान्। इष्टानिष्टान्मनुष्याणामस्तं गच्छन्ति रात्रयः।। | 12-339-8a 12-339-8b |
योयदिच्छेद्यथाकाममयत्नाच्च तदाप्नुयात्। यदि स्यान्न पराधीनं पुरुषस्य क्रियाफलम्।। | 12-339-9a 12-339-9b |
संयताश्च हि दक्षाश्च मतिमन्तश्च मानवाः। दृश्यन्ते निष्फलाः सन्तः प्रहीणाः सर्वकर्मभिः।। | 12-339-10a 12-339-10b |
अपरे बालिशाः सन्तो निर्गुणाः पुरुषाधमाः। अशुभैरपि संयुक्ता दृश्यन्ते सर्वकामिनः।। | 12-339-11a 12-339-11b |
भूतानामपरः कश्चिद्धिंसायां सततोत्थितः। वञ्चनायां च लोकस्य स सुखेष्वेव जीर्यते।। | 12-339-12a 12-339-12b |
अचेष्टमानमासीनं श्रीः कंचिदुपतिष्ठते। कश्चित्कर्मानुसृत्यान्यो नाप्राप्यमधिगच्छति।। | 12-339-13a 12-339-13b |
अपराधं समाचक्ष्व पुरुषस्य स्वभावतः। शुक्रमन्यत्र संभूतं पुनरन्यत्र गच्छति।। | 12-339-14a 12-339-14b |
तस्य योनौ प्रसक्तस्य गर्भो भवति वा न वा। आम्रपुष्पोपमा यस्य निर्वृत्तिरुपलभ्यते।। | 12-339-15a 12-339-15b |
केषांचित्पुत्रकामानामनुसन्तानमिच्छताम्। सिद्धौ प्रयतमानानां न चाण्डमुपजायते।। | 12-339-16a 12-339-16b |
गर्भाच्चोद्विजमानानां क्रुद्धादाशीविषादिव। आयुष्माञ्जायते पुत्रः कथं प्रेतः पितेव ह।। | 12-339-17a 12-339-17b |
देवानिष्ट्वा तपस्तप्त्वा कृपणैः पुत्रगृद्धिभिः। दश मासान्परिधृता जायन्ते कुलपांसनाः।। | 12-339-18a 12-339-18b |
अपरे धनधान्यानि भोगांश्च पितृसंचितान्। विपुलानभिजायन्ते लब्धास्तैरेव मङ्गलैः।। | 12-339-19a 12-339-19b |
अन्योन्यं समभिप्रेत्य मैथुनस्य समागमे। उपद्रव इवाविष्टो योनिं गर्भः प्रपद्यते।। | 12-339-20a 12-339-20b |
शीर्णं परशरीराणि च्छिन्नबीजं शरीरिणम्। प्राणिनं प्राणंसरोधे मांसश्लेष्मविचेष्टितम्।। | 12-339-21a 12-339-21b |
निर्दग्धं परदेहेऽपि परदेहं चलाचलम्। विनश्यन्तं विनाशान्ते भावि नावमिवाहितम्।। | 12-339-22a 12-339-22b |
सङ्गत्या जठरे न्यस्तं रेतोबिन्दुमचेतनम्। केन यत्नेन जीवन्तं गर्भं त्वमिह पश्यसि।। | 12-339-23a 12-339-23b |
अन्नपानानि जीर्यन्ते यत्र भक्षाश्च भक्षिताः। तस्मिन्नेवोदरे गर्भः किं नान्नमिव जीर्यते।। | 12-339-24a 12-339-24b |
गर्भे मूत्रपुरीषाणां स्वभावनियता गतिः। धारणे वा विसर्गे वा न कर्ता विद्यतेऽवशः।। | 12-339-25a 12-339-25b |
स्रवन्ति ह्युदराद्गर्भा जायमानास्तथा परे। आगमेन तथाऽन्येषां विनाश उपपद्यते।। | 12-339-26a 12-339-26b |
एतस्माद्योनिसंबन्धाद्यो जीवः परिमुच्यते। प्रजां च लभते कांचित्पुनर्द्वन्द्वेषु सज्जति।। | 12-339-27a 12-339-27b |
स तस्य सहजातस्य सप्तमीं नवमीं दशाम्। प्राप्नुवन्ति ततः पञ्च न भवन्ति शतायुषः।। | 12-339-28a 12-339-28b |
नाभ्युत्थाने मनुष्याणां योगाः स्युर्नात्र संशयः।। व्याधिभिश्च विमथ्यन्ते व्याधैः क्षुद्रमृगा इव।। | 12-339-29a 12-339-29b |
व्याधिभिर्भक्ष्यमाणानां त्यजतां विपुलं धनम्। वेदनां नापकर्षन्ति यतमानाश्चिकित्सकाः।। | 12-339-30a 12-339-30b |
ते चापि निपुणा वैद्याः कुशलाः संभृतौषधाः। व्याधिभिः परिकृष्यन्ते मृगा व्याधैरिवार्दिताः।। | 12-339-31a 12-339-31b |
ते पिबन्तः कषायांश्च सर्पीषि विविधानि च। दृश्यन्ते जरया भग्ना नगा नागैरिवोत्तमैः।। | 12-339-32a 12-339-32b |
के वा भुवि चिकित्सन्ते रोगार्तान्मृगपक्षिणः। श्वापदानि दरिद्रांश्च प्रायो नार्ता भवन्ति ते।। | 12-339-33a 12-339-33b |
पौरानपि दुराधर्षान्नृपतीनुग्रतेजसः। आक्रम्य खादन्ते रोगाः पशून्पशुपचा इव।। | 12-339-34a 12-339-34b |
इति लोकमनाक्रन्दं मोहशोकपरिप्लुतम्। स्रोतसा सहसा क्षिप्तं ह्रियमाणं बलीयसा।। | 12-339-35a 12-339-35b |
न धनेन न राज्येन नोग्रेण तपसा तथा। स्वभावमतिवर्तन्ते ये नियुक्ताः शरीरिणः।। | 12-339-36a 12-339-36b |
न म्रियेरन्न जीर्येरन्सर्वे स्युः सर्वकामिनः। नाप्रियं प्रतिपश्येयुरुत्थानस्य फले सति।। | 12-339-37a 12-339-37b |
उपर्युपरि लोकस्य सर्वो भवितुमीहते। यतते च यथाशक्ति न च तद्वर्तते तथा।। | 12-339-38a 12-339-38b |
ऐश्वर्यमदमत्तांश्च मत्तान्मद्यमदेन च। अप्रमत्ताश्च शूराश्च विक्रान्ताः पर्युपासते।। | 12-339-39a 12-339-39b |
क्लेशाः प्रतिनिवर्तन्ते केषांचिदसमीक्षिताः। स्वंस्वं न पुनरन्येषां न किंचिदधिगम्यते।। | 12-339-40a 12-339-40b |
महच्च फलवैपम्यं दृश्यते कर्मसिद्धिषु। वहन्ति शिविकामन्ये यान्त्यन्ये शिविकागताः।। | 12-339-41a 12-339-41b |
सर्वेषामृद्धिकामानामन्ये रथपुरःसराः। मनुजाश्च गतस्त्रीकाः शतशो विविधाः स्त्रियः।। | 12-339-42a 12-339-42b |
द्वन्द्वारामेषु भूतेषु गच्छन्त्येकैकशो नराः। इदमन्यत्परं पश्य माऽत्र मोहं करिष्यसि।। | 12-339-43a 12-339-43b |
त्यज धर्ममधर्मं च उभे सत्यानृते त्यज। उभे सत्यानृते त्यक्त्वा येन त्यजसि तं त्यज।। | 12-339-44a 12-339-44b |
एतत्ते परमं गुह्यमाख्यातमृषिसत्तम। येन देवाः परित्यज्य मर्त्यलोकं दिवं गताः।। | 12-339-45a 12-339-45b |
नारदस्य वचः श्रुत्वा शुकः परमबुद्धिमान्। संचिन्त्य मनसा धीरो निश्चयं नाध्यगच्छत।। | 12-339-46a 12-339-46b |
पुत्रदारैर्महान्क्लेशो विद्याम्नाये महाञ्छ्रमः। किंनु स्याच्छाश्वतं स्थानमल्पक्लेशं महोदयम्।। | 12-339-47a 12-339-47b |
ततो मुहूर्तं संचिन्त्य निश्चितां गतिमात्मनः। परावरज्ञो धर्मस्य परां नैःश्रेयसीं गतिम्।। | 12-339-48a 12-339-48b |
कथं त्वहमसंश्लिष्टो गच्छेयं गतिमुत्तमाम्। नावर्तेयं यथा भूयो योनिसंसारसागरे।। | 12-339-49a 12-339-49b |
परं भावं हि काङ्क्षामि यत्र नावर्तते पुनः। सर्वसङ्गान्परित्यज्य निश्चितो मनसा गतिम्।। | 12-339-50a 12-339-50b |
तत्र यास्यामि यत्रात्मा शर्म मेऽधिगमिष्यति। अक्षयश्चाव्ययश्चैव यत्र स्थास्यामि शाश्वतः।। | 12-339-51a 12-339-51b |
न तु योगमृते शक्त्या प्राप्नुयां परमां गतिम्। अनुबन्धो विमुक्तस्य कर्मभिर्नोपपद्यते।। | 12-339-52a 12-339-52b |
यस्माद्योगं समास्थाय त्यक्त्वा गृहकलेवरम्। वायुभूतः प्रवेक्ष्यामि तेजोराशिं दिवाकरम्।। | 12-339-53a 12-339-53b |
न ह्येप क्षयतां याति सोमः सुरगणैर्यथा। कम्पितः पतते भूमिं पुनश्चैवाधिरोहति।। | 12-339-54a 12-339-54b |
क्षीयते हि सदा सोमः पुनश्चैवाभिपूर्यते। नेच्छाम्येवं विदित्वैते ह्रासवृद्धी पुनः पुनः।। | 12-339-55a 12-339-55b |
रविस्तु संतापयते लोकान्रश्मिभिरुल्बणैः। सर्वतस्तेज आदत्ते नित्यमक्षयमण्डलः।। | 12-339-56a 12-339-56b |
अतो मे रोचते गन्तुमादित्यं दीप्ततेजसम्। अत्र वत्स्यामि दुर्धर्षो निःसङ्गेनान्तरात्मना।। | 12-339-57a 12-339-57b |
सूर्यस्यर सदने चाहं निक्षिप्येदं कलेवरम्। ऋषिभिः सह वत्स्यामि सौरं तेजोऽतिदुःसहं।। | 12-339-58a 12-339-58b |
आपृच्छामि नगान्नागान्गिरीनुर्वी दिशो दश। देवदानवगन्धर्वान्पिशाचोरगराक्षसान्।। | 12-339-59a 12-339-59b |
लोकेषु सर्वभूतानि प्रवेक्ष्यामि न संशयः। पश्यन्तु योगवीर्यं मे सर्वे देवाः सहर्षिभिः।। | 12-339-60a 12-339-60b |
अथानुज्ञाप्य तमृषिं नारदं लोकविश्रुतम्। तस्मादनुज्ञां संप्राप्य जगाम पितरं प्रति।। | 12-339-61a 12-339-61b |
सोऽभिवाद्य महात्मानं कृष्णद्वैपायनं मुनिम्। शुकः प्रदक्षिणं कृत्वा कृष्णमापृष्टवान्मुनिम्।। | 12-339-62a 12-339-62b |
श्रुत्वा चर्षिस्तद्वचनं शुकस्य प्रीतो महात्मा पुनराह चैनम्। भोभो पुत्र स्थीयतां तावदद्य यावच्चक्षुः प्रीणयामि त्वदर्थे।। | 12-339-63a 12-339-63b 12-339-63c 12-339-63d |
निरपेक्षः शुको भूत्वा निःस्नेहो मुक्तसंशयः। मोक्षमेवानुसंचिन्त्य गमनाय मनो दधे।। | 12-339-64a 12-339-64b |
पितरं स परित्यज्य जगाम मुनिसत्तमः। कैलासपृष्ठं विपुलं सिद्धसङ्घनिषेवितम्।। | 12-339-65a 12-339-65b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकोनचत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 339।। |
12-339-1 विपर्यासः सुखे दुःखधीर्दुःखे सुखधीः।। 12-339-4 विधित्साभिः पिपासाभिस्तृष्णाभिः।। 12-339-6 व्यत्ययः पौर्वापर्यम्।। 12-339-11 अशीर्भिरप्यसंयुक्ताः इति ध. पाठः।। 12-339-13 कर्मी कर्मानुसृत्यान्य इति थ. पाठः। कश्चिच्च कर्म कुर्वन्हि नाप्राप्यमिति ध. पाठः।। 12-339-17 कथं प्रेत्य इवाभवदिति झ. पाठः।। 12-339-27 यो बीजं परिमुच्यत इति झ. पाठः।। 12-339-28 सहजातस्य जन्माद्यन्तां तु वै दशामिति ध. पाठः। न भवन्ति गतायुष इति झ. पाठः।। 12-339-29 रोगाः स्युरिति ध. पाठः। योगाः सामर्थ्यानि।। 12-339-33 के बाहुर्विचिकित्सन्ते इति ट. ध. पाठः।। 12-339-34 धीरानपि दुराधर्षानिति ध. पाठः।। 12-339-35 अनाकन्दं वेदनया मूढम्।। 12-339-36 स्वभावान्नातिवर्तन्ते ये नियुक्ताः शरीरिष्विति ट. थ. ध. पाठः।। 12-339-37 उत्थानस्य फलं प्रति इति थ. ध. पाठः।। 12-339-40 स्वंस्वं च पुनरन्येषामिति झ. पाठः।। 12-339-42 गतश्रीका इति ट. पाठः।। 12-339-49 असंश्लिष्टः सर्वोपाधिनिर्मुक्तः।। 12-339-52 शक्या प्राप्तुं सा परमा गतिरिति थ. पाठः। अवबन्धो हि युक्तस्येति थ. पाठः।।
शांतिपर्व-338 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-340 |