महाभारतम्-12-शांतिपर्व-023
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व्यासेन युधिष्ठिरंप्रति शङ्खलिखितोपाख्यानकथनपूर्वकं क्षात्रधर्मस्वीकरणचोदना।। 1।।
वैशंपायन उवाच। | 12-23-1x |
एवमुक्तस्तु कौन्तेयो गुडाकेशेन भारत। नोवाच किंचित्कौरव्यस्ततो द्वैपायनोऽब्रवीत्।। | 12-23-1a 12-23-1b |
व्यास उवाच। | 12-23-2x |
बीभत्सोर्वचनं सौम्य सत्यमेतद्युधिष्ठिर। शास्त्रदृष्टः परो धर्मः स्मृतो गार्हस्थ्य आश्रमः।। | 12-23-2a 12-23-2b |
स्वधर्मं चर धर्मज्ञ यथाशास्त्रं यथाविधि। न हि गार्हस्थ्यमुत्सृज्य तवारण्यं विधीयते।। | 12-23-3a 12-23-3b |
गृहस्थं हि सदा देवाः पितरोऽतिथयस्तथा। भृत्याश्चैवोपजीवन्ति तान्भरस्व महीपते।। | 12-23-4a 12-23-4b |
वयांसि पशवश्चैव भूतानि च जनाधिप। गृहस्थैरेव धार्यन्ते तस्माच्छ्रेष्ठो गृहाश्रमी।। | 12-23-5a 12-23-5b |
सोऽयं चतुर्णामेतेषामाश्रमाणां दुराचरः। तं चराद्य विधिं पार्थ दुश्चरं दुर्बलेन्द्रियैः।। | 12-23-6a 12-23-6b |
वेदज्ञानं च ते कृत्स्नं तपश्चाचरितं महत्। पितृपैतामहं राज्यं धुर्यवद्वोद्दुमर्हसि।। | 12-23-7a 12-23-7b |
तपो यज्ञस्तथा विद्या भैक्ष्यमिन्द्रियसंयमः। ध्यानं विद्या समुत्थानं संतोषश्च श्रियं प्रति। तथा ह्येकान्तशीलत्वं तुष्टिर्दानं च शक्तितः।। | 12-23-8a 12-23-8b 12-23-8c |
ब्राह्मणानां महाराज चेष्टा संसिद्धिकारिका। क्षत्रियाणां तु वक्ष्यामि तवापि विदितं पुनः।। | 12-23-9a 12-23-9b |
यज्ञो विद्या समुत्थानमसंतोषः श्रियं प्रति। दण्डधारणमुग्रत्वं प्रजानां परिपालनम्।। | 12-23-10a 12-23-10b |
वेदज्ञानं तथा कृत्स्नं तपः सुचरितं तथा। द्रविणोपार्जनं भूरि पात्रे च प्रतिपादनम्।। | 12-23-11a 12-23-11b |
एतानि राज्ञां कर्माणि सुकृतानि विशांपते। इमं लोकममुं चैव साधयन्तीति नः श्रुतम्।। | 12-23-12a 12-23-12b |
एषां ज्यायस्तु कौन्तेय दण्डधारणमुच्यते। बलं हि क्षत्रिये नित्यं बले दण्डः समाहितः।। | 12-23-13a 12-23-13b |
एताश्चेष्टाः क्षत्रियाणां राजन्संसिद्धिकारिकाः। अपि गाथामिमां चापि बृहस्पतिरगायत।। | 12-23-14a 12-23-14b |
भूमिरेतौ निगिरति सर्पो बिलशयानिव। राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम्।। | 12-23-15a 12-23-15b |
सुद्युम्नश्चापि राजर्षिः श्रूयते दण्डधारणात्। प्राप्तवान्परमां सिद्धिं दक्षः प्राचेतसो यथा।। | 12-23-16a 12-23-16b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-23-17x |
भगवन्कर्मणा केन सुद्युम्नो वसुधाधिपः। संसिद्धिं परमां प्राप्तः श्रोतुमिच्छामि तं नृपम्।। | 12-23-17a 12-23-17b |
व्यास उवाच। | 12-23-18x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। शङ्खश्च लिखितश्चास्तां भ्रातरौ संशितव्रतौ।। | 12-23-18a 12-23-18b |
तयोरावसथावास्तां रमणीयौ पृथक्पृथक्। नित्यपुष्पफलैर्वृक्षैरुपेतौ बाहुदामनु।। | 12-23-19a 12-23-19b |
ततः कदाचिल्लिखितः शङ्खस्याश्रममागतः। यदृच्छयाऽथ शङ्खोपि निष्क्रान्तोऽभवदाश्रमात्।। | 12-23-20a 12-23-20b |
सोऽभिगम्याश्रमं भ्रातुश्चंक्रमँल्लिखितस्तदा। फलानि शातयामास सम्यक्परिणतान्युत।। | 12-23-21a 12-23-21b |
तान्युपादाय विस्रब्धो भक्षयामास स द्विजः। तस्मिंश्च भक्षयत्येव शङ्खोऽप्याश्रममागतः।। | 12-23-22a 12-23-22b |
भक्षयन्तं तु तं दृष्ट्वा शङ्खो भ्रातरमब्रवीत्। कुतः फलान्यवाप्तानि हेतुना केन खादसि।। | 12-23-23a 12-23-23b |
सोऽब्रवीद्धातरं ज्येष्ठमुपसृत्याभिवाद्य च। इत एव गृहीतानि मयेति प्रहसन्निव।। | 12-23-24a 12-23-24b |
तमब्रतीत्तथा शङ्खस्तीव्ररोषसमन्वितः। स्तेयं त्वया कृतमिदं फलान्याददता स्वयम्।। | 12-23-25a 12-23-25b |
गच्छ राजानमासाद्य स्वकर्म कथयस्व वै। अदत्तादानमेवं हि कृतं पार्थिवसत्तम।। | 12-23-26a 12-23-26b |
स्तेनं मां त्वं विदित्वा च स्वधर्ममनुपालय। शीघ्रं धारय चोरस्य मम दण्डं नराधिप।। | 12-23-27a 12-23-27b |
इत्युक्तस्तस्य वचनात्सुद्युम्न स नराधिपम्। अभ्यगच्छन्महाबाहो लिखितः संशितव्रतः।। | 12-23-28a 12-23-28b |
सुद्युम्नस्त्वन्तपालेभ्यः श्रुत्वा लिखितमागतम्। अभ्यगच्छत्सहामात्यः पद्भ्यामेव जनेश्वरः।। | 12-23-29a 12-23-29b |
तमब्रवीत्समागम्य स राजा धर्मवित्तमम्। किमागमनमाचक्ष्व भगवन्कृतमेव तत्।। | 12-23-30a 12-23-30b |
एवमुक्तः स विप्रर्षिः सुद्युम्नमिदमब्रवीत्। प्रतिश्रुत्य करिष्येति श्रुत्वा तत्कर्तुमर्हसि।। | 12-23-31a 12-23-31b |
अनिसृष्टानि गुरुणा फलानि मनुजर्षभ। भक्षितानि महाराज तत्र मां शाधि माचिरम्।। | 12-23-32a 12-23-32b |
सुद्युम्न उवाच। | 12-23-33x |
प्रमाणं चेन्मतो राजा भवतो दण्डधारणे। अनुज्ञायामपि तथा हेतुः स्याद्ब्राह्मणर्षभ।। | 12-23-33a 12-23-33b |
स भवानभ्यनुज्ञातः शुचिकर्मा महाव्रतः। ब्रूहि कामानतोऽन्यांस्त्वं करिष्यामि हि ते वचः।। | 12-23-34a 12-23-34b |
व्यास उवाच। | 12-23-35x |
संछन्द्यमानो ब्रह्मर्षिः पार्थिवेन महात्मना। नान्यं स वरयामास तस्माद्दण्डादृते वरम्।। | 12-23-35a 12-23-35b |
ततः स पृथिवीपालो लिखितस्य महात्मनः। करौ प्रच्छेदयामास धृतदण्डो जगाम सः।। | 12-23-36a 12-23-36b |
स गत्वा भ्रातरं शङ्खमार्तरूपोऽब्रवीदिदम्। धृतदण्डस्य दुर्बुद्धेर्भवांस्तत्क्षन्तुमर्हति।। | 12-23-37a 12-23-37b |
शङ्ख उवाच। | 12-23-38x |
न कुप्ये तव धर्मज्ञ न त्वं दूषयसे मम। `सुनिर्मलं कुलं ब्रह्मन्नस्मिञ्जगति विश्रुतम्।' धर्मस्तु ते व्यतिक्रान्तस्ततस्ते निष्कृतिः कृता।। | 12-23-38a 12-23-38b 12-23-38c |
त्वं गत्वा बाहुदां शीघ्रं तर्पयस्व यथाविधि। देवानृषीन्पितृंश्चैव मा चाधर्मे मनः कृथाः।। | 12-23-39a 12-23-39b |
`ब्रह्महत्यां सुरापानं स्तेयं गुर्वङ्गनागमम्।' महान्ति पातकान्याहुः संयोगं चैव तैः सह।। | 12-23-40a 12-23-40b |
न स्तेयसदृशं ब्रह्मन्महापातकमस्ति हि। जगत्यस्मिन्महाभाग ब्रह्महत्यासमं हि तत्।। | 12-23-41a 12-23-41b |
सर्वपातकिनां ब्रह्मन्दण्डः शारीर उच्यते। तस्करस्य विशेषेण नान्यो दण्डो विधीयते।। | 12-23-42a 12-23-42b |
ब्राह्मणः क्षत्रियो वाऽपि वैश्यः शूद्रोऽथवा द्विज। सर्वे कामकृते पापे हन्तव्या न विचारणा।। | 12-23-43a 12-23-43b |
राजभिर्धृतदण्डा वै कृत्वा पापानि मानवाः। निर्मलाः स्वर्गमायान्ति सन्तः सुकृतिनो यथा।। | 12-23-44a 12-23-44b |
उद्धृतं नः कुलं ब्रह्मन्नाज्ञादण्डे धृते त्वयि।।' | 12-23-45a |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा शङ्खस्य लिखितस्तदा। अवगाह्यापगां पुण्यामुदकार्थं प्रचक्रमे।। | 12-23-46a 12-23-46b |
प्रादुरास्तां ततस्तस्य करौ जलजसन्निभौ। ततः स विस्मितो भ्रातुर्दर्शयामास तौ करौ।। | 12-23-47a 12-23-47b |
ततस्तमब्रवीच्छङ्खस्तपसेदं कृतं मया। मा च तेऽव विशङ्का भूद्दैवमत्र विधीयते।। | 12-23-48a 12-23-48b |
लिखित उवाच। | 12-23-49x |
किंतु नाहं त्वया पूतः पूर्वमेव महाद्युते। यस्य ते तपसो वीर्यमीदृशं द्विजसत्तम।। | 12-23-49a 12-23-49b |
शङ्ख उवाच। | 12-23-50x |
एवमेतन्मया कार्यं नाहं दण्डधरस्तव। स च पूतो नरपतिस्त्वं चापि पितृभिः सह।। | 12-23-50a 12-23-50b |
व्यास उवाच। | 12-23-51x |
स राजा पाण्डवश्रेष्ठ श्रेयान्वै तेन कर्मणा। प्राप्तवान्परमां सिद्धिं दक्षः प्राचेतसो यथा।। | 12-23-51a 12-23-51b |
एष धर्मः क्षत्रियाणां प्रजानां परिपालनम्। उत्पथेभ्यो महाराज मा स्म शोके मनः कृथाः।। | 12-23-52a 12-23-52b |
भ्रातुरस्य हितं वाक्यं शृणु धर्मज्ञसत्तम। दण्ड एव हि राजेन्द्र क्षत्रधर्मो न मुण्डनम्।। | 12-23-53a 12-23-53b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि त्रयोविंशोऽध्यायः।। |
12-23-2 गार्हस्थ्यः गृहस्थस्यायं गार्हस्थ्यः।। 12-23-15 बिलशयान्मूषिकान्। अप्रवासिनं गृहादिसङ्गिनम्। सर्पो बिलशयाविवेति ड.थ.पाठः।। 12-23-19 बाहुदां नदीमनु तत्समीपे।। 12-23-21 शङ्खस्य लिखितस्तदेति झ. पाठः।। 12-23-24 उपस्पृश्याभिवाद्य चेति ड.थ. पाठः।। 12-23-26 हे पार्थिवसत्तम मया अदत्तादानं कृतमित्यस्मै राज्ञे कथयस्वेति संबन्धः।। 12-23-29 अन्तपालेभ्यो द्वारपालेभ्यः।। 12-23-31 करिष्येतीति संधिरार्षः।। 12-23-32 अनिसृष्टान्यदत्तानि। गुरुणा ज्येष्ठभ्रात्रा।। 12-23-33 यथा दण्डधारणे राजा प्रमाणं तथाऽनुज्ञायां हेतुः प्रमाणम्।। 12-23-34 शुचिकर्मा मदनुज्ञयैव शोधितदोषः।। 12-23-38 मम माम् निष्कृतिः प्रायश्चित्तम्।। 12-23-46 उदकस्यार्थं प्रयोजनं आचमनादि कर्तुमिति शेषः।।
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