महाभारतम्-12-शांतिपर्व-031
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व्यासयुधिष्ठिरसंवादः।। 1।।
वैशंपायन उवाच। | 12-31-1x |
तूष्णींभूतं तु राजानं शोचमानं युधिष्ठिरम्। तपस्वी धर्मतत्त्वज्ञः कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत्।। | 12-31-1a 12-31-1b |
व्यास उवाच। | 12-31-2x |
प्रजानां पालनं धर्मो राज्ञां राजीवलोचन। धर्मः प्रमाणं लोकस्य नित्यं धर्मोऽनुवर्त्यताम्।। | 12-31-2a 12-31-2b |
अनुतिष्ठस्व तद्राजन्पितृपैतामहं पदम्। ब्राह्मणेषु तु यो धर्मः स नित्यो वेदनिश्चितः।। | 12-31-3a 12-31-3b |
तत्प्रमाणं प्रमाणानां शाश्वतं भरतर्षभ। तस्य धर्मस्य कृत्स्नस्य क्षत्रियः परिरक्षिता।। | 12-31-4a 12-31-4b |
तथा यः प्रतिहन्त्यस्य शासनं विषये नरः। स बाहुभ्यां विनिग्राह्यो लोकयात्राविघातकः।। | 12-31-5a 12-31-5b |
प्रमाणमप्रमाणं यः कुर्यान्मोहवशं गतः। भृत्यो वा यदि वा पुत्रस्तपस्वी वाऽथ कश्चन।। | 12-31-6a 12-31-6b |
पापान्सर्वैरुपायैस्तान्नियच्छेच्छातयीत वा। अतोऽन्यथा वर्तमानो राजा प्राप्नोति किल्विषम्।। | 12-31-7a 12-31-7b |
धर्मं विनश्यमानं हि यो न रक्षेत्स धर्महा। ते त्वया धर्महन्तारो निहताः सपदानुगाः।। | 12-31-8a 12-31-8b |
स्वधर्मे वर्तमानस्त्वं किंनु शोचसि पाण्डव। राजा हि हन्याद्दद्याच्च प्रजा रक्षेच्च धर्मतः।। | 12-31-9a 12-31-9b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-31-10x |
न तेऽतिशङ्के वचनं यद्ब्रवीषि तपोधन। अपरोक्षो हि ते धर्मः सर्वधर्मविदां वर।। | 12-31-10a 12-31-10b |
मया त्ववध्या बहवो घातिता राज्यकारणात्। तानि कर्माणि मे ब्रह्मन्दहन्ति च पचन्ति च।। | 12-31-11a 12-31-11b |
व्यास उवाच। | 12-31-12x |
ईश्वरो वा भवेत्कर्ता पुरुषो वाऽपि भारत। हठो वा वर्तते लोके कर्मजं वा फलं स्मृतम्।। | 12-31-12a 12-31-12b |
ईश्वरेण नियुक्तो हि साध्वसाधु च भारत। कुरुते पुरुषः कर्म फलमीश्वरगामि तत्।। | 12-31-13a 12-31-13b |
यथाहि पुरुषश्छिन्द्याद्वृक्षं परशुना वने। छेत्तुरेव भवेत्पापं परशोर्न कथंचन।। | 12-31-14a 12-31-14b |
अथवा तदुपादानात्प्राप्नुयात्कर्मणः फलम्। दण्डशस्त्रकृतं पापं पुरुषे तन्न विद्यते।। | 12-31-15a 12-31-15b |
न चैतदिष्टं कौन्तेय यदन्येन कृतं फलम्। प्राप्नुयादिति तस्माच्च ईश्वरे तन्निवेशय।। | 12-31-16a 12-31-16b |
अथापि पुरुषः कर्ता कर्मणोः शुभपापयोः। न परो विद्यते तस्मादेवमप्यशुभं कुतः।। | 12-31-17a 12-31-17b |
न हि कश्चित्क्वचिद्राजन्दिष्टं प्रतिनिवर्तते। दण्डशस्त्रकृतं पापं पुरुषे तन्न विद्यते।। | 12-31-18a 12-31-18b |
यदि वा मन्यसे राजन्हतमेकं प्रतिष्ठितम्। एवमप्यशुभं कर्म न भूतं न भविष्यति।। | 12-31-19a 12-31-19b |
अथाभिपत्तिर्लोकस्य कर्तव्या पुण्यपापयोः। अभिपन्नमिदं लोके राज्ञामुद्यतदण्डनम्।। | 12-31-20a 12-31-20b |
तथापि लोके कर्माणि समावर्तन्ति भारत। शुभाशुभफलं चैते प्राप्नुवन्तीति मे मतिः।। | 12-31-21a 12-31-21b |
एवं पश्य शुभादेशं कर्मणस्तत्फलं ध्रुवम्। त्यज त्वं राजशार्दूल मैवं शोके मनः कृथा।। | 12-31-22a 12-31-22b |
स्वधर्मे वर्तमानस्य सापवादेऽपि भारत। एवमात्मपरित्यागस्तव राजन्न शोभनः।। | 12-31-23a 12-31-23b |
विहितानि हि कौन्तेय प्रायश्चित्तानि कर्मणाम्। शरीरवांस्तानि कुर्यादशरीरः पराभवेत्।। | 12-31-24a 12-31-24b |
तद्राजञ्जीवमानस्त्वं प्रायश्चित्तं करिष्यसि। प्रायश्चित्तमकृत्वा तु प्रेत्य तप्ताऽसि भारत।। | 12-31-25a 12-31-25b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-31-26x |
हताः पुत्राश्च पौत्राश्च भ्रातरः पितरस्तथा। श्वशुरा गुरवश्चैव मातुलाश्च पितामहाः।। | 12-31-26a 12-31-26b |
क्षत्रियाश्च महात्मानः संबन्धिसुहृदस्तथा। वयस्या भागिनेयाश्च ज्ञातयश्च पितामह।। | 12-31-27a 12-31-27b |
बहवश्च मनुष्येन्द्रा नानादेशसमागताः। घातिता राज्यलुब्धेन मयैकेन पितामह।। | 12-31-28a 12-31-28b |
तांस्तादृशानहं हत्वा धर्मनित्यान्महीक्षितः। असकृत्सोमपान्वीरान्क्रिं प्राप्स्यामि तपोधन।। | 12-31-29a 12-31-29b |
दह्याम्यनिशमद्यापि चिन्तयानः पुन पुनः। हीनां पार्थिवसिंहैस्तैः श्रीमद्भिः पृथिवीमिमाम्।। | 12-31-30a 12-31-30b |
दृष्ट्वा ज्ञातिवधं घोरं हतांश्च शतशः परान्। कोटिशश्च नरानन्यान्परितप्ये पितामह।। | 12-31-31a 12-31-31b |
का नु तासां वरस्त्रीणामवस्थाऽद्य भविष्यति। विहीनानां तु तनयैः पतिभिर्भ्रातृभिस्तथा।। | 12-31-32a 12-31-32b |
अस्मानन्तकरान्घोरान्पाण्डवान्वृष्णिसंहतान्। आक्रोशन्त्यः कृशा दीनाः प्रपतिष्यन्ति भूतले।। | 12-31-33a 12-31-33b |
अपश्यन्त्यः पितॄन्भ्रातॄन्पतीन्पुत्रांश्च योषितः। त्यक्त्वा प्राणान्स्त्रियः सर्वागमिष्यन्ति यमक्षयम्।। | 12-31-34a 12-31-34b |
वत्सलत्वाद्द्विजश्रेष्ठ तत्र ये नास्ति संसयः। व्यक्तं सौक्ष्म्याच्च धर्मस्य प्राप्स्यामः स्त्रीवधं वयम्।। | 12-31-35a 12-31-35b |
ते वयं सुहृदो हत्वा कृत्वा पापमनन्तकम्। नकरे निपतिष्यामो ह्यधः शिरस एव ह।। | 12-31-36a 12-31-36b |
शरीराणि विमोक्ष्यामस्तपसोग्रेण सत्तम। आश्रमाणां विशेषं त्वमथाचक्ष्व पितामह।। | 12-31-37a 12-31-37b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि एकत्रिंशोऽध्यायः।। 31।। |
12-31-7 शातयीत मारेयत्।। 12-31-11 मे माम्।। 12-31-12 नापरो वर्तते लोके कर्मजं वा फलं नृषु। इति ड.थ. पाठः।। 12-31-15 प्राप्नुयात् परशोरुपादाता। एवं तर्हि विन परशोर्दण्डः शस्त्रं परशुश्च कृतस्तमेव पापं कर्तृ प्राप्नुयात्तस्य प्रथमप्रयोज्यत्वात्। पुरुषे उपादातरि तन्न विद्यते तस्य जघन्यत्वात्।। 12-31-16 यदि चैतन्नेष्टं एतत्किं यदन्येन प्रहर्त्रा कृतं पापं तस्य फलं शस्त्रकर्ता आप्नुयादिति। तर्हि जघन्यप्रयोज्ये त्वय्यपि पापाभावादीश्वरे एव तन्निवेशय।। 12-31-18 यतः कश्चिदपि दिष्टं प्रत्यद्द्वष्टस्य प्रतिकूलो भूत्वावश्यंभाविनः कर्मणः सकाशान्न निवर्तते। दैवस्य दुर्लङघ्यत्वादिति भावः।। 12-31-20 पुण्यपापयोः सुख दुःखयोः अभिपत्तिरुपपत्तिः कर्तव्या साच धर्माधर्मावन्तरेण न घटते तौच शास्त्रैकगम्याविति चेद्राज्ञामुद्यतदण्डनमुद्धतदमनं लोके शास्त्रे चोपपन्नतरमित्यर्थः।। 12-31-23 सापवादे निन्द्येऽपि।।
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