महाभारतम्-12-शांतिपर्व-228
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति तपश्शब्दस्य मतभेदेन नानार्थकत्वकथनपूर्वकं स्वमते तस्य ज्ञानार्थकत्वाभिधानम्।। 1।। ज्ञानस्य मोक्षसाधनत्वे दृष्टान्ततया सुवर्चलाचरित्रकथनम्।। 2।।
` युधिष्ठिर उवाच। | 12-228-1x |
यदिदं तप इत्याहुः किं तपः संप्रकीर्तितम्। उपवासमथान्यत्तु वेदाचारमथो नु किम्। शास्त्रं तपो महाप्राज्ञ तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-228-1a 12-228-1b 12-228-1c |
भीष्म उवाच। | 12-228-2x |
पक्षमासोपवासादीन्मन्यन्ते वै तपोधनाः। वेदव्रतादीनि तप अपरे वेदपारगाः। वेदपारायणं चान्ये चाहुस्तत्वमथापरे।। | 12-228-2a 12-228-2b 12-228-2c |
यथाविहितमाचारस्तपः सर्वं व्रतं गताः। आत्मविद्याविधानं यत्तत्तपः परिकीर्तितम्।। | 12-228-3a 12-228-3b |
त्यागस्तपस्तथा शान्तिस्तप इन्द्रियनिग्रहः। ब्रह्मचर्यं तपः प्रोक्तमाहुरेवं द्विजातयः।। | 12-228-4a 12-228-4b |
सदोपवासो यो विद्वान्ब्रह्मचारी सदा भवेत्।। | 12-228-5a |
यो मुनिश्च सदा धीमान्विघसाशी विमत्सरः। ततस्त्वनन्तमप्याहुर्यो नित्यमतिथिप्रियः।। | 12-228-6a 12-228-6b |
नान्तराशीस्ततो नित्यमुपवासी महाव्रतः। ऋतुगामी तथा प्रोक्तो विघसाशी स्मृतो बुधैः।। | 12-228-7a 12-228-7b |
भृत्यशेषं तु यो भुङ्क्ते यज्ञशेषं तथाऽमृतम्। एवं नानार्थसंयोगं तपः शश्वदुदाहृतम्।। | 12-228-8a 12-228-8b |
केषां लोका ह्यपर्यन्ताः सर्वे सत्यव्रते स्थिताः। येऽपि कर्ममयं प्राहुस्ते द्विजा ब्राह्मणाः स्मृताः। रमन्ते दिव्यभोगैश्च पूजिता ह्यप्सरोगणैः।। | 12-228-9a 12-228-9b 12-228-9c |
ज्ञानात्मकं तपश्शब्दं ये वदन्ति विनिश्चिताः। ते ह्यन्तराऽऽत्मसद्भावं प्रपन्ना नृपसत्तम।। | 12-228-10a 12-228-10b |
एतत्ते नृपशार्दूल प्रोक्तं यत्पृष्ट्वानसि। यथा वस्तुनि संज्ञानि विविधानि भवन्त्युत।। | 12-228-11a 12-228-11b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-228-12x |
पितामह महाप्राज्ञ राजाधीना नृपाः पुनः। अन्यानि च सहस्राणि नामानि विविधानि च।। | 12-228-12a 12-228-12b |
प्रतियोगीनि वै तेषां छन्नान्यस्तमितानि च। दृढं सर्वं प्राकृतकभिदं सर्वत्र पश्य वै।। | 12-228-13a 12-228-13b |
तस्माद्यथागतं राजन्यथारुचि नृणां भवेत्। अस्मिन्नर्थे पुरावृत्तं शृणु राजन्युधिष्ठिर।। | 12-228-14a 12-228-14b |
ब्राह्मणानां समूहे तु यदुवाच सुवर्चला। देवलस्य सुता विद्वन्सर्वलक्षणशोभिता।। | 12-228-15a 12-228-15b |
कन्या सुवर्चला नाम योगभावितचेतना। हेतुना केन जाता सा निर्द्वन्द्वा नष्टसंशया।। | 12-228-16a 12-228-16b |
साऽब्रवीत्पितरं विप्रं वरान्वेषणतत्परा।। | 12-228-17a |
अन्धाय मां महाप्राज्ञ देहि वीक्ष्य सुलोचनम्। एवं स्म च पितः शश्वन्मयेदं---मुने।। | 12-228-18a 12-228-18b |
पितोवाच। | 12-228-19x |
न शक्यं प्रार्थितुं वत्से त्वयाऽद्य प्रतिभाति मे। अन्धताऽनन्धता चेति विचारो मम जायते। उन्मत्तेव सुते वाक्यं भाषसे पृथुलोचने।। | 12-228-19a 12-228-19b 12-228-19c |
कन्योवाच। | 12-228-20x |
नाहमुन्मत्तभूताऽऽद्य बुद्धिपूर्वं ब्रवीमि ते। विद्धि वैतादृशं लोके स मां भजति वेदवित्।। | 12-228-20a 12-228-20b |
यान्यांस्त्वं मन्यसे दातुं मां द्विजोत्तम तानिह। आनयान्यान्महाभाग ह्यहं द्रक्ष्यामि तेषु तम्।। | 12-228-21a 12-228-21b |
तथेति चोक्त्वा तां विप्रः प्रेषयामास शिष्यकान्। ऋषेः प्रभावं दृष्ट्वा ते कन्यायाश्च द्विजोत्तमाः। अनेकमुनयो राजन्संप्राप्ता देवलाश्रमम्।। | 12-228-22a 12-228-22b 12-228-22c |
तानागतानथाभ्यर्च्यं कन्यामाह पिता महान्। यदीच्छसि वरं भद्रे तं विप्रं वरय स्वयम्।। | 12-228-23a 12-228-23b |
तथेचि चोक्त्वा कल्याणी तप्तहेमनिभानना। करसंमितमध्याङ्गी वाक्यमाह तपोधनाः।। | 12-228-24a 12-228-24b |
यद्यस्ति संमतो विप्रो ह्यन्धोऽनन्धः स मे वरः। नोचुर्विप्रा महाभागां प्रतिवाक्यं ययुश्च ते।। | 12-228-25a 12-228-25b |
कन्या च तिष्ठतामत्र पितुर्वेश्मनि भारत।। | 12-228-26a |
श्वेतकेतुः कहालस्य श्यालः परमधर्मवित्। श्रुत्वा ब्रह्मा तदागम्य कन्यामाह महीपते।। | 12-228-27a 12-228-27b |
सोहं भद्रे समावृत्तस्त्वयोक्तो यः पुरा द्विजः। विशालनयनं विद्धि मामन्धोऽहं वृणीष्व माम्।। | 12-228-28a 12-228-28b |
सुवर्चलोवाच। | 12-228-29x |
कथं विशालनेत्रोऽसि कथं वा त्वमलोचनः। ब्रूहि पश्चादहं विद्वन्परीक्षे त्वां द्विजोत्तम।। | 12-228-29a 12-228-29b |
द्विज उवाच। | 12-228-30x |
शब्दे स्पर्शे तथा रूपे रसे गन्धे सहेतुकम्। न मे प्रवर्तते चेतो न प्रत्यक्षं हि तेषु मे। अलोचनोऽहं तस्माद्धि न गतिर्विद्यते यतः।। | 12-228-30a 12-228-30b 12-228-30c |
येन पश्यति सुश्रोणि भाषते स्पृशते पुनः। भुज्यते घ्रायते नित्यं शृणोति मनुते तथा।। | 12-228-31a 12-228-31b |
तच्चक्षुर्विद्यते मह्यं येन पश्यति वै स्फुटम्। सुलोचनोऽहं भद्रे वै पृच्छ वा किं वदामि ते। सर्वमस्मिन्न मे विद्या विद्वान्हि परमार्थतः।। | 12-228-32a 12-228-32b 12-228-32c |
सा विशुद्धा ततो भूत्वा श्वेतकेतुं महामुनिम्। प्रणम्य पूजयामास तां भार्यां स च लब्धवान्।। | 12-228-33a 12-228-33b |
वैराग्यसंयुता कन्या तादृशं परिमुत्तमम्। प्राप्ता राजन्महाप्राज्ञ तस्मादर्थः पृथक्पृथक्।। | 12-228-34a 12-228-34b |
एतत्ते कथितं राजन्किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।।' | 12-228-35a |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि अष्टाविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 228।। |
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