महाभारतम्-12-शांतिपर्व-106
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति कालकवृक्षीयनिदेशेन कौसल्यस्य पुना राज्यप्राप्त्यादिकथनम्।। 1।।
राजोवाच। | 12-106-1x |
न निकृत्या न दम्भेन ब्रह्मन्निच्छामि जीवितुम्। नाधर्मयुक्तानिच्छेयमर्थान्सुमहतोऽप्यहम्।। | 12-106-1a 12-106-1b |
पुरस्तादेव भगवन्मयैतदपवर्जितम्। येन पापं न शङ्केत यद्वा कृत्स्नं हितं भवेत्।। | 12-106-2a 12-106-2b |
आनृशंस्येन धर्मेण लोके ह्यस्मिञ्जिजीविषुः। नाहमेतदलं कर्तुं नैतन्मय्युपपद्यते।। | 12-106-3a 12-106-3b |
मुनिरुवाच। | 12-106-4x |
उपपन्नस्त्वमेतेन यथा क्षत्रिय भाषसे। प्रकृत्या ह्युपपन्नोऽसि बुद्ध्या चाद्भुतदर्शनः।। | 12-106-4a 12-106-4b |
उभयोरेव साह्यार्थे यतिष्ये तव तस्य च। संश्लेषं वा करिष्यामि शाश्वतं ह्यनपायिनम्।। | 12-106-5a 12-106-5b |
त्वादृशं हि कुले जातभनृशंसं बहुश्रुतम्। अमात्यं को न कुर्वीत राज्यप्रणयकोविदम्।। | 12-106-6a 12-106-6b |
यस्त्वं प्रव्राजितो राज्याद्व्यसनं चोत्तमं गतः। आनृशंस्येन वृत्तेन क्षत्रियेच्छसि जीवितुम्।। | 12-106-7a 12-106-7b |
आगन्ता मद्गृहं तात वैदेहः सत्यसंगरः। अथाहं तं नियोक्ष्यामि तत्करिष्यत्यसंशयम्।। | 12-106-8a 12-106-8b |
भीष्म उवाच। | 12-106-9x |
तत आहूय वैदेहं मुनिर्वचनमब्रवीत्। अयं राजकुले जातो विदिताभ्यन्तरो मम।। | 12-106-9a 12-106-9b |
आदर्श इव शुद्धात्मा शारदश्चन्द्रमा यथा। नास्मिन्पश्यामि वृजिनं सर्वतो मे परीक्षितः।। | 12-106-10a 12-106-10b |
तेन ते संधिरेवास्तु विश्वसास्मिन्यथा मयि। न राज्यमनमात्येन शक्यं शास्तुममित्रहन्।। | 12-106-11a 12-106-11b |
अमात्य शुद्ध एव स्याद्बुद्धिसंपन्न एव वा। तस्माच्चैव भयं राज्ञः पश्य राज्यस्य योजनम्।। | 12-106-12a 12-106-12b |
धर्मात्मनां क्वचिल्लोके नान्यास्ति गतिरीदृशी। तदा राजपुत्रोऽयं सतां मार्गमनुष्ठितः। असंगृहीतस्त्वेवैष त्वया धर्मपुरोगमः।। | 12-106-13a 12-106-13b 12-106-13c |
संसेव्यमानः शत्रूंस्ते गृह्णीयान्महतो गणान्।। | 12-106-14a |
यद्ययं प्रतियुद्ध्येत स्वकर्म क्षत्रियस्य तत्। जिगीषमाणस्त्वां युद्धे पितृपैतामहे पदे।। | 12-106-15a 12-106-15b |
त्वं अपि प्रतियुद्ध्येथा विजिगीषुर्व्रते स्थितः। अयुद्ध्वैव नियोगान्मे वशे कुरु हिते स्थितः।। | 12-106-16a 12-106-16b |
स त्वं धर्ममवेक्षस्व हित्वा लोभमसांप्रतम्। न च कामान्न च द्रोहात्स्वधर्मं हातुमर्हसि।। | 12-106-17a 12-106-17b |
नैव नित्यं जयस्तात नैव नित्यं पराजयः। तस्माज्जयश्च भोक्तव्यो भोक्तव्यश्च पराजयः।। | 12-106-18a 12-106-18b |
आत्मन्यपि च संदृश्यावृभौ जयपराजयौ। निःशेषकारिणां तात निःशेषकरणाद्भयम्।। | 12-106-19a 12-106-19b |
इत्युक्तः प्रत्युवाचेदं वचनं ब्राह्मणर्षभम्। प्रतिपूज्याभिसत्कृत्य पूजार्हमनुमान्य च।। | 12-106-20a 12-106-20b |
यथा ब्रूयान्महाप्राज्ञो यथा ब्रूयान्महाश्रुतः। श्रेयस्कामो यथा ब्रूयादुभयोरेव तत्क्षमम्।। | 12-106-21a 12-106-21b |
यद्यद्वचनमुक्तोऽस्मि करिष्यामि च तत्तथा। एतद्धि परमं श्रेयो न मेऽत्रास्ति विचारणा।। | 12-106-22a 12-106-22b |
ततः कौसल्यमाहूय मैथिलो वाक्यमब्रवीत्। धर्मतो बुद्धितश्चैव बलेन च जितं मया।। | 12-106-23a 12-106-23b |
अहं त्वया चात्मगुणैर्जितः पार्थिवसत्तम। आत्मानमनवज्ञाय जितवद्वर्ततां भवान्।। | 12-106-24a 12-106-24b |
नावमन्यामि ते बुद्धिं नावमन्ये च पौरुषम्। नावमन्ये जयामीति जितवद्वर्ततां भवान्।। | 12-106-25a 12-106-25b |
यथावत्पूजितो राजन्गृहं गन्तासि मे गृहात्। ततः संपूज्य तौ विप्रं विश्वस्तौ जग्मतुर्गृहान्।। | 12-106-26a 12-106-26b |
वैदेहस्त्वथ कौसल्यं प्रवेश्य गृहमञ्जसा। प्राद्यार्ध्यमधुपर्कैस्तं पूजार्हं प्रत्यपूजयत्।। | 12-106-27a 12-106-27b |
ददौ दुहितरं चास्मै रत्नानि विविधानि च। एष राज्ञां परो धर्मः समौ जयपराजयौ।। | 12-106-28a 12-106-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि ष़डधिकशततमोऽध्यायः।। 106।। |
12-106-5 तस्य विदेहस्य।। 12-106-6 त्वादृशा राजानं लब्ध्वा अमात्यकर्म को न कुर्वीताऽपितु सर्वोऽपि मादृशः कुर्वीतैवेत्यर्थः।। 12-106-7 उत्तमं महृत्।। 12-106-14 गणाञ्शत्रुसङ्घान्।। 12-106-17 असांप्रतमनुचितम्।। 12-106-24 जितवत्प्राप्तजयइव।।
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