महाभारतम्-12-शांतिपर्व-142
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति राज्ञा ब्राह्मणवर्जं दण्डेन प्रजापालनकरणे शुक्रमतानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-142-1x |
यदिदं घोरमुद्दिष्टमश्रद्धेयमिवानृतम्। अस्तिस्विद्दस्युमर्यादा यामयं परिवर्जयेत्।। | 12-142-1a 12-142-1b |
संमुह्यामि विपीदामि धर्मो मे शिथिलीकृतः। उद्यमं नाधिगच्छामि कुतश्चित्परिचिन्तयन्।। | 12-142-2a 12-142-2b |
भीष्म उवाच। | 12-142-2x |
नैतच्छ्रुत्वागमादेव तव धर्मानुशासनम्। प्रज्ञासमभिहारोऽयं कविभिः संभृतं मधु।। | 12-142-3a 12-142-3b |
बाह्याः प्रतिविधातव्याः प्रज्ञा राज्ञा ततस्ततः। बहुशाखेन धर्मेण यत्रैषा संप्रसिध्यते।। | 12-142-4a 12-142-4b |
बुद्धिं संजनयेद्राज्ञां धर्ममाचरतां सदा। जयो भवति कौरव्य सदा तद्वृद्धिरेव च।। | 12-142-5a 12-142-5b |
बुद्धिश्रेष्ठा हि राजानो जयन्ति विजयैषिणः। धर्मः प्रतिविधातव्यो बुद्ध्या राज्ञा ततस्ततः।। | 12-142-6a 12-142-6b |
नैकशाखेन धर्मेण राज्ञो धर्मो विधीयते। दुर्बलस्य कुतः प्रज्ञा पुरस्तादनुदाहृता।। | 12-142-7a 12-142-7b |
अद्वैधज्ञः प्रतिद्वैधे संशयं प्राप्नुमर्हति। बुद्धिद्वैधं विधातव्यं पुरस्तादेव भारत।। | 12-142-8a 12-142-8b |
पार्श्वतः कारणं राज्ञो विषूच्यस्त्वापगा इव। जनास्तूच्चरितं धर्मं विजान्त्यन्यथाऽन्यथा।। | 12-142-9a 12-142-9b |
सम्यग्विज्ञानिनः केचिन्मिथ्याविज्ञानिनः परे। तद्वै यथायथं बुद्ध्वा ज्ञानमाददते सताम्।। | 12-142-10a 12-142-10b |
परिमुष्णन्ति शास्त्राणि धर्मस्य परिपन्थिनः। वैषम्यमर्थविद्यानां निरर्थाः ख्यापयन्ति ते।। | 12-142-11a 12-142-11b |
आजिजीविषवो विद्यां यशः कामौ समन्तनः। ते सर्वे नृप पापिष्ठा धर्मस्य परिपन्थिनः।। | 12-142-12a 12-142-12b |
अपक्वमतयो मन्दा न जानन्ति यथातथम्। तथा ह्यशास्त्रकुशलाः सर्वत्रायुक्तिनिष्ठिताः।। | 12-142-13a 12-142-13b |
परिमुष्णन्ति शास्त्राणि शास्त्रदोषानुदर्शिनः। विज्ञानमथ विद्यानां न सम्यगिति मे मतिः।। | 12-142-14a 12-142-14b |
निन्दया परविद्यानां स्वविद्यां ख्यापयन्ति च। वागास्तिक्यानुनीताश्च दुग्धविद्याफला इव।। | 12-142-15a 12-142-15b |
तान्विद्यावणिजो विद्धि राक्षसानिव भारत। व्याजेन कृत्स्नो विहितो धर्मस्ते परिहास्यते।। | 12-142-16a 12-142-16b |
न धर्मवचनं वाचा नैव बुद्ध्येति नः श्रुतम्। इति बार्हस्पत्यविज्ञानं प्रोवाच मघवा स्वयम्।। | 12-142-17a 12-142-17b |
न त्यव वचनं किंचिदनिमित्तादिहोच्यते। स्वविनीतेन शास्त्रेण ह्यविद्यः स्यादथापरः।। | 12-142-18a 12-142-18b |
लोकयात्रामिहैके तु धर्मं प्राहुर्मनीषिणः। समुद्दिष्टं सतां धर्मं स्वयमूहेत् पण्डितः।। | 12-142-19a 12-142-19b |
अमर्षाच्छास्त्रसंमोहादनिमित्तादिहोच्यते। शास्त्रं प्राज्ञस्य वदतः समूहे यात्यदर्शनम्।। | 12-142-20a 12-142-20b |
आगमागतया बुद्ध्या वचनेन प्रशस्यते। अज्ञानाज्ज्ञानहेतुत्वाद्वचनं साधु मन्यते।। | 12-142-21a 12-142-21b |
अनुपागतमेवेदं शास्त्रमेवमपार्थकम्। दैतेयानुशना प्राह संशयच्छेदनं पुरा।। | 12-142-22a 12-142-22b |
ज्ञानमप्यपदिश्यं हि यथा नास्ति तथैव तत्। तेन संच्छिन्नमूलेन कस्तोषयितुमिच्छति।। | 12-142-23a 12-142-23b |
पुनर्व्यवसितं यो वा नेदं वाक्यमुपाश्नुते। उग्रायैव हि सृष्टोऽसि कर्मणे तत्त्वमीक्षसे।। | 12-142-24a 12-142-24b |
अग्रे मामन्ववेक्षस्व राजन्योऽयं बुभूषते। यथा प्रमुच्यते त्वन्यो यदर्थं न प्रमोदते।। | 12-142-25a 12-142-25b |
अजोऽश्वः क्षत्रमित्येतत्सदृशं ब्रह्मणा कृतम्। तस्मान्नतैक्ष्ण्याद्भूतानां यात्रा काचित्प्रसिद्ध्यति।। | 12-142-26a 12-142-26b |
यस्त्ववध्यवधे दोषः स वध्यस्यावधे स्मृतः। एषा ह्येव तु मर्यादा यामयं परिवर्जयेत्।। | 12-142-27a 12-142-27b |
तस्मात्तीक्ष्णः प्रजा राजा स्वधर्मे स्थापयत्युत। अन्योन्यं भक्षयन्तो हि प्रचरेयुर्वृका इव।। | 12-142-28a 12-142-28b |
यस्य दस्युगणा राष्ट्रे ध्वाङ्क्षा मत्स्याञ्जलादिव। विहरन्ति परस्वानि स वै क्षत्रियपांसनः।। | 12-142-29a 12-142-29b |
कुलीनान्सचिवान्कृत्वा वेदविद्यासमन्वितान्। प्रशाधि पृथिवीं राजन्प्रजा धर्मेण पालयन्।। | 12-142-30a 12-142-30b |
विहीनजन्मकर्माणि यः प्रगृह्णाति भूमिपः। उभयस्याविशेषज्ञस्तद्वै क्षत्रं नपुंसकम्।। | 12-142-31a 12-142-31b |
नैवोग्रं नैव चानुग्रं धर्मेणेह प्रशस्यते। उभयं न व्यतिक्रामेदुग्रो भूत्वा मृदुर्भव।। | 12-142-32a 12-142-32b |
कष्टः क्षत्रियधर्मोऽयं सौहृदं त्वयि मे स्थितम्। उग्रकर्मणि सृष्टोऽसि तस्माद्राज्यं प्रशाधि वै।। | 12-142-33a 12-142-33b |
`अरुष्टः कस्यचिद्राजन्नेवमेव समाचर।' अशिष्टनिग्रहो नित्यं शिष्टस्य परिपालनम्। एवं शुक्रोऽब्रवीद्धीमानापत्सु भरतर्षभ।। | 12-142-34a 12-142-34b 12-142-34c |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-142-35x |
अस्ति चेदिह मर्यादा यामन्यो नातिलङ्घयेत्। पृच्छामि त्वां सतां श्रेष्ठ तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-142-35a 12-142-35b |
भीष्म उवाच। | 12-142-36x |
ब्राह्मणानेव सेवेत विद्याबृद्धांस्तपस्विनः। श्रुतचारित्रवृत्ताढ्यान्पवित्रं ह्येतदुत्तमम्।। | 12-142-36a 12-142-36b |
शुश्रूषा तु महाराज सान्त्वं विप्रेषु नित्यदा। क्रुद्धैर्हि विप्रैः कर्माणि कृतानि बहुधा नृप।। | 12-142-37a 12-142-37b |
तेषां प्रीत्या यशो मुख्यमप्रीत्या परमं भयम्। प्रीत्या ह्यमृतवद्विप्राः क्रुद्धाश्चैव यथोरगाः।। | 12-142-38a 12-142-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि द्विचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 142।। |
12-142-1 अस्तिस्विदस्य मर्यादा इति ध. पाठः।। 12-142-3 एतदागमादेव श्रुत्वा तव धर्मानुशासनं मया कृतमिति नास्ति किंतु प्रज्ञायाः समभिहारो निष्ठा कल्पितेयमित्यर्थः। एतदग्रिहोत्रादिवद्विधेयं न अपितु कविभिरकरणे महान्तं दोषं पश्यद्भिः कल्पितमिति भावः। नैतद्वुध्वाऽऽगमादेवेति ध. पाठः।। 12-142-4 ततस्ततः कोकिलवराहवूकसिंहादिभ्यः शिक्षित्वा प्रज्ञाः प्रतिविधातव्याः।। 12-142-6 प्रतिविधातव्यश्चिकित्सनीयः।। 12-142-7 द्वैधमेकस्यैव कर्मणः क्वचित्काले धर्मत्वं क्वचिदधर्मत्वमिति द्विप्रकारत्वम्। तस्मिन्प्राप्ते तदनभिज्ञः संशयं संकटं प्राप्नोति। अहिंसाया धर्मत्वेऽपि चोररक्षया पापं भवति तद्वदिहं ज्ञेयम्।। 12-142-8 सतां मतमिति शेषः।। 12-142-11 मुष्णन्ति धर्मशास्त्रविरुद्धमर्थशास्त्रां नादर्तव्यमिति वदन्ति। वैषम्यमप्रामाण्यमधर्मत्वं वा।। 12-142-12 शास्त्रचोरनिन्दाप्रसङ्गात्तदुपजीविनोऽपि निन्दति। आजिजीविषव इति सार्धैस्चतुर्भिः।। 12-142-14 न सम्यगिति वर्तत इति ट. ड.द. पाठः।। 12-142-15 निवर्तनैरविद्यानामिति थ. पाठः। वागस्त्रा वाक्छरीभूता इति झ. ट. पाठः।। 12-142-17 वाचा केवलया बुद्ध्या वा केवलेन धर्मवचनं धर्मिश्चयो नास्त्यपितु समुच्चिताभ्यामुभाभ्यां धर्मनिर्णय इत्यर्थः।। 12-142-18 अध्यवस्यन्ति चापर इति ट. ड. द. पाठः।। 12-142-19 इहलोके तु एके आचार्याः लोकयात्रां तन्निर्वाहमेव धर्मं प्राहुः। साच चोरादीनां वधमन्तरेण न संभवतीत्यवश्यं हिंसापि कर्तव्येति तेषामाशयः। एवंसत्यपि मतभेदे युक्त्यैव धर्मं ऊहेतेत्याह समिति।। 12-142-20 तस्मादमर्षादींस्त्यक्त्वा समूहे सभायां शास्त्रं वदेदित्याशयेनाह अमर्षादिति। समूहे यत्प्रदर्शनमिति ध. पाठः।। 12-142-21 आगमागतया बुद्ध्या श्रुत्युपगृहीतेन तर्केण सहितं यद्वचनं तेन प्रशस्यते शास्त्रं नान्यतरेण। अन्यस्तु ज्ञानहेतुत्वात् अज्ञातज्ञापकतया वचनं तर्केण हीनं शब्दमेव साधु मन्यते। कुतः अज्ञानात्।। 12-142-22 अन्यः पुनः युक्त्या इदं शास्त्रं दूषितं इति हेतोरपार्थकं व्यर्थमिति मन्यते तदप्यज्ञानादेव। तस्मात्तर्केण शास्त्रस्य शास्त्रेण तर्कस्य वा बाधमकृत्वा यदुभयसंमतं तदेवानुष्ठेयमित्युशनसो मतं पूर्वोक्तेन बार्हस्पत्येन ज्ञानेनैक्यं गतमिति दर्शितम्।। 12-142-23 अपदिश्यं दिशोर्मध्ये स्थितं कोटिद्वयस्पर्शि ज्ञानं संशयरूपं तद्यथा नास्ति तथैव व्यर्थमित्यर्थः।। 12-142-26 अज इति। यथाऽजो यज्ञार्थं नीयते तद्धिताय एवं अश्वक्षत्रियावपि संग्रामार्थं नीयेते तद्धितायैव।। 12-142-35 वृत्तिश्चैषा महाबाहो इति ट. ड. थ. पाठः।। 12-142-36 ब्राह्मणादर्वागेव दण्डस्य मर्यादा ब्राह्मणस्तु नैव दण्ड्योऽपि तु पूज्य एवेत्याह ब्राह्मणानेवेति।।
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