महाभारतम्-12-शांतिपर्व-030
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नारदेन युधिष्ठिरंप्रति सुवर्णष्ठीविचरितवर्णनम्।। 1।।
वैशंपायन उवाच। | 12-30-1x |
ततो राजा पाण्डुसुतो नारदं प्रत्यभाषत। भगवञ्छ्रोतुमिच्छामि सुवर्णष्ठीविसंभवम्।। | 12-30-1a 12-30-1b |
एवमुक्तस्तु स मुनिर्धर्मराजेन नारदः। आचचक्षे यथावृत्तं सुवर्णष्ठीविनं प्रति।। | 12-30-2a 12-30-2b |
नारद उवाच। | 12-30-3x |
एवमेतन्महाबाहो यथाऽयं केशवोऽब्रवीत्। कार्यस्यास्य तु यच्छेषं तत्ते वक्ष्यामि पृच्छतः।। | 12-30-3a 12-30-3b |
अहं च पर्वतश्चैव स्वस्रीयो मे महाप्नुनिः। वस्तुकामावभिगतौ सृञ्जयं जयतां वरम्।। | 12-30-4a 12-30-4b |
तत्रावां पूजितौ तेन विधिदृष्टेन कर्मणा। सर्वकामैः सुविहितौ निवसावोऽस्य वेश्मनि।। | 12-30-5a 12-30-5b |
व्यतिक्रान्तासु वर्षासु समये गमनस्य च। पर्वतो मामुवाचेदं काले वचनमर्थवत्।। | 12-30-6a 12-30-6b |
आवामस्य नरेन्द्रस्य गृहे परमपूजितौ। उषितौ समये ब्रह्मंस्तद्विचिन्तय सांप्रतम्।। | 12-30-7a 12-30-7b |
ततोऽहमब्रुवं राजन्पर्वतं सुभदर्शनम्। सर्वमेतत्त्वयि विभो भागिनेयोपपद्यते।। | 12-30-8a 12-30-8b |
वरेण च्छन्द्यतां राजा लभतां यद्यदिच्छति। आवयोस्तपसा सिद्धिं प्राप्नोतु यदि मन्यसे।। | 12-30-9a 12-30-9b |
तत आहूय राजानं सृञ्जयं जयतां वरम्। पर्वतोऽनुमतो वाक्यमुवाच कुरुपुङ्गव।। | 12-30-10a 12-30-10b |
प्रीतौ स्वो नृप सत्कारैर्भवदार्जवसंभृतैः। आवाभ्यामभ्यनुज्ञातो वरं नृवर चिन्तय।। | 12-30-11a 12-30-11b |
देवानामविहिंसायां न भवेन्मानुषे क्षमम्। तद्गृहाण महाराज पूजार्हो नौ मतो भवान्।। | 12-30-12a 12-30-12b |
सृञ्जय उवाच। | 12-30-13x |
प्रीतौ भवन्तौ यदि मे कृतमेतावता मम। एष एव परो लाभो निर्वृत्तो मे महाफलः।। | 12-30-13a 12-30-13b |
तमेवंवादिनं भूयः पर्वतः प्रत्यभाषत। शृणु राजन्सुसंकल्पं यत्ते हृदि चिरं स्थितम्।। | 12-30-14a 12-30-14b |
अभीप्ससि सुतं वीरं वीर्यवन्तं दृढव्रतम्। आयुष्मतं महाभागं देवराजसमद्युतिम्।। | 12-30-15a 12-30-15b |
भविष्यत्येष ते कामो न त्वायुष्मान्भविष्यति। देवराजाभिभूत्यर्थं संकल्पो ह्ये ते हृदि।। | 12-30-16a 12-30-16b |
सुवर्णष्ठीवनाच्चैव स्वर्णष्ठीवी भविष्यति। रक्ष्यश्च देवराजात्स देवराजसमद्युतिः।। | 12-30-17a 12-30-17b |
तच्छ्रुत्वा सृञ्जयो वाक्यं पर्वतस्य महात्मनः। प्रसादयामास तदा नैतदेवं भवेदिति।। | 12-30-18a 12-30-18b |
आयुष्मान्मे भवेत्पुत्रो भवतोस्तपस मुन। न च तं पर्वतः किंचिदुवाचेन्द्रव्यपेक्षया।। | 12-30-19a 12-30-19b |
तमहं नृपतिं दीनमब्रवं पुनरेव च। स्मर्तव्योऽस्मि महाराज दर्शयिष्यामि ते सुतम्।। | 12-30-20a 12-30-20b |
अहं ते दयितं पुत्रं प्रेतराजवशं गतम्। पुनर्दास्यामि तद्रूपं मा शुचः पृथिवीपते।। | 12-30-21a 12-30-21b |
एवमुक्त्वा तु नृपतिं प्रयातौ स्वो यथेप्सितम्। सृञ्जयश्च यथाकामं प्रविवेश स्वमन्दिरम्।। | 12-30-22a 12-30-22b |
सृञ्जयस्याथ राजर्षेः कस्मिंश्चित्कालपर्यये। जज्ञे पुत्रो महावीर्यस्तेजसा प्रज्वलन्निव।। | 12-30-23a 12-30-23b |
ववृधे स यथाकालं सरसीव महोत्पलम्। बभूव काञ्चनष्ठीवी यथार्थं नाम तस्य तत्।। | 12-30-24a 12-30-24b |
तदद्भुततमं लोके पप्रथे कुरुसत्तम। बुबुधे तच्च देवेन्द्रो वरदानं मनीषिणोः।। | 12-30-25a 12-30-25b |
ततः स्वाभिभवाद्भीतो बृहस्पतिमते स्थितः। कुमारस्यान्तरप्रेक्षी नित्यमेवाभ्यवर्तत।। | 12-30-26a 12-30-26b |
चोदयामास तद्वज्रं दिव्यास्रं मूर्तिमत्स्थ्रितम्। व्याघ्रो भूत्वा जहीमं त्वं राजपुत्रमिति प्रभो।। | 12-30-27a 12-30-27b |
प्रवृद्धः किल वीर्येण मामेषोऽभिभविष्यति। सृञ्जयस्य सुतो वज्र यथैनं पर्वतोऽब्रवीत्।। | 12-30-28a 12-30-28b |
एवमुक्तस्तु शक्रेण वज्रः परपुरंजयः। कुमारमन्तरप्रेक्षी नित्यमेवान्वपद्यत।। | 12-30-29a 12-30-29b |
सृञ्जयोऽपि सुतं प्राप्य देवराजसमद्युतिम्। हृष्टः सान्तः पुरो राजा वननित्यो बभूव ह।। | 12-30-30a 12-30-30b |
ततो भागीरथीतीरे कदाचिन्निर्जने वने। धात्रीद्वितीयो बालः स क्रीडार्थं पर्यधावत।। | 12-30-31a 12-30-31b |
पञ्चवर्षकदेशीयो बालो नागेन्द्रविक्रमः। सहसोत्पतितं व्याघ्रमाससाद महाबलम्।। | 12-30-32a 12-30-32b |
स बालस्तेन निष्पिष्टो वेपमानो नृपात्मजः। व्यसुः पपात मेदिन्यां ततो धात्री विचुक्रुशे।। | 12-30-33a 12-30-33b |
हत्वा तु राजपुत्रं स तत्रैवान्तरधीयत। शार्दूलो देवराजस्य माययान्तर्हितस्तदा।। | 12-30-34a 12-30-34b |
धात्र्यास्तु निनदं श्रुत्वा रुदत्याः परमार्तवत्। अभ्यधावत तं देशं स्वयमेव महीपतिः।। | 12-30-35a 12-30-35b |
स ददर्श शयानं तं गतासुं पीतशोणितम्। कुमारं विगतानन्दं निशाकरमिव च्युतम्।। | 12-30-36a 12-30-36b |
स तमुत्सङ्गमारोप्य परिपीडितवक्षसम्। पुत्रं रुधिरसंसिक्तं पर्यदेवयदातुरः।। | 12-30-37a 12-30-37b |
ततस्ता मातरस्तस्य रुदत्यः शोककर्शिताः। अभ्यधावन्त तं देशं यत्र राजा स सृञ्जयः।। | 12-30-38a 12-30-38b |
ततः स राजा सस्मार मामेव गतमानसः। तदाऽहं चिन्तनं ज्ञात्वा गतवांस्तस्य दर्शनम्।। | 12-30-39a 12-30-39b |
मयैतानि च वाक्यानि श्रावितः शोकलालसः। यानि ते यदुवीरेण कथितानि महीपते।। | 12-30-40a 12-30-40b |
संजीवितश्चापि पुनर्वासवानुमते तदा। भवितव्यं तथा तच्च न तच्छक्यमतोऽन्यथा।। | 12-30-41a 12-30-41b |
तत ऊर्ध्वं कुमारस्तु स्वर्णष्ठीवी महायशाः। चित्तं प्रसादयामास पितृर्मातुश्च वीर्यवान्।। | 12-30-42a 12-30-42b |
कारयामास राज्यं च पितरि स्वर्गते नृप। वर्षाणां शतमेकं च सहस्रं भीमविक्रमः।। | 12-30-43a 12-30-43b |
तत ईजे महायज्ञैर्बहुभिर्भूरिदक्षिणैः। तर्पयामास देवांश्च पितॄंश्चैव महाद्युतिः।। | 12-30-44a 12-30-44b |
उत्पाद्य च बहून्पुत्रान्कुलसतानकारिणः। कालेन महता राजन्कालधर्ममुपेयिवान्।। | 12-30-45a 12-30-45b |
स त्वं राजेन्द्र संजातं शोकमेकं निवर्तय। यथा त्वं केशवः प्राह व्यामश्च सुमहातपाः।। | 12-30-46a 12-30-46b |
पितृपैतामहं राज्यमास्थाय धुरमुद्वह। इष्ट्वा पुण्यैर्महायज्ञैरिष्टं लोकमवाप्स्यसि।। | 12-30-47a 12-30-47b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि त्रिंशोऽध्यायः।। 30।।* |
- द्रोणपर्वणि स्वर्णष्ठीविचरितमन्यादृशमत्र पर्वणित्वन्यादृशम्।
12-30-7 सांप्रतं कल्याणम्।। 12-30-12 न भवेन्मानुषक्षयमिति झ. पाठः। तत्र येन देवपीडा मनुष्यक्षयश्च न भवति तत्तादृशं वरं गृहाणेति भावः।। 12-30-16 देवराजविभूत्यर्थमिति ड. पाठः।।
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