महाभारतम्-12-शांतिपर्व-196
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति जापकोपाख्यानम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-196-1x |
कीदृशं निरयं याति जापको वर्णयस्व मे। कौतूहलं हि राजन्मे तद्भवान्वक्तुमर्हति।। | 12-196-1a 12-196-1b |
भीष्म उवाच। | 12-196-2x |
धर्मस्यांशप्रसूतोऽसि धर्मज्ञोऽसि स्वभावतः। धर्ममूलाश्रयं वाक्यं शृणुष्वावहितोऽनघ।। | 12-196-2a 12-196-2b |
अमूनि यानि स्थानानि देवानाममरात्मनाम्। नानासंस्थानवर्णानि नानारूपफलानि च।। | 12-196-3a 12-196-3b |
दिव्यानि कामचारीणि विमानानि सभास्तथा। आक्रीडा विविधा राजन्पद्मिन्यश्चामलोदकाः।। | 12-196-4a 12-196-4b |
चतुर्णां लोकपालानां शुक्रस्याथ बृहस्पतेः। मरुतां विश्वदेवानां साध्यानामश्विनोरपि।। | 12-196-5a 12-196-5b |
रुद्रादित्यवसूनां च तथाऽन्येषां दिवौकसाम्। एते वै निरयास्तात स्थानस्य परमात्मनः।। | 12-196-6a 12-196-6b |
अभयं चानिमित्तं च न च क्लेशभयावृतम्। द्वाभ्यां मुक्तं त्रिभिर्मुक्तमष्टाभिस्त्रिभिरेव च।। | 12-196-7a 12-196-7b |
चतुर्लक्षणवर्जं तु चतुष्कारणवर्जितम्। अप्रहर्षमनानन्दमशोकं विगतक्लमम्।। | 12-196-8a 12-196-8b |
कालः संपच्यते तत्र कालस्तत्र न वै प्रभुः। स कालस्य प्रभू राजन्सर्वस्यापि तथेश्वरः।। | 12-196-9a 12-196-9b |
`एतद्वै ब्रह्मणः स्थाने जापकस्य महात्मनः। तत्रस्थं परमात्मानं ध्यायन्वै सुसमाहितः। हिरण्यगर्भः सायुज्यं प्राप्नुयाद्वा नृपोत्तम।।' | 12-196-10a 12-196-10b 12-196-10c |
आत्मकेवलतां प्राप्तस्तत्र गत्वा न शोचति। ईदृशं परमं स्थानं निरयास्ते च तादृशाः।। | 12-196-11a 12-196-11b |
एते ते निरयाः प्रोक्ताः सर्व एव यथातथम्। तस्य स्थानवरस्येह सर्वे निरयसंज्ञिताः।। | 12-196-12a 12-196-12b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि षण्णवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 196।। |
12-196-2 धर्ममूलं वेदः परमात्मा च तावाश्रयौ यस्य।। 12-196-3 अमूनि वक्ष्यमाणानि देवानां दिव्यदेहानाम्। संस्थानान्याकृतयः। वर्णाः श्वेतपीताद्याः। नानारूपाण्यनेकविधानि।। 12-196-4 आक्रौडाः उद्यानानि।। 12-196-7 अभयं नाशभयशून्यम्। अनिमित्तं स्वभावसिद्धम्। त्रिभिर्गुणैः द्वाभ्यां युक्तं त्रिभिर्युक्तमिति ट. पाठः।। 12-196-8 अप्रतर्क्यमनाद्यनन्तमशोकमिति ट.ड.थ. पाठः।। 12-196-9 कालं संवहते तत्रेति ध. पाठः।।
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