महाभारतम्-12-शांतिपर्व-082
← शांतिपर्व-081 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-082 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-083 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रत्यमात्यपरीक्षार्थं कालकवृक्षीयोपाख्यांनकथनम्।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-82-1x |
एषा प्रथमतो वृत्तिर्द्वितीयां शृणु भारत। यः कश्चिद्वेदयेदर्थं राज्ञा रक्ष्यः स मानवः।। | 12-82-1a 12-82-1b |
ह्रियमाणममात्येन भृत्यो वा यदि वा भृतः। यो राजकोशं नश्यन्तमाचक्षीत युधिष्ठिर।। | 12-82-2a 12-82-2b |
श्रोतव्यमस्य च रहो रक्ष्यश्चामात्यतो भवेत्। अमात्या ह्यपहर्तारो भूयिष्ठं घ्नन्ति भारत।। | 12-82-3a 12-82-3b |
राजकोशस्य गोप्तारं राजकोशविलोपकाः। समेत्य सर्वे बाधन्ते स विनश्यत्यरक्षितः।। | 12-82-4a 12-82-4b |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। मुनिः कालकवृक्षीयः कौसल्यं यदुवाच ह।। | 12-82-5a 12-82-5b |
कोसलानामाधिपत्यं संप्राप्तं क्षेमदर्शिनम्। मुनिः कालकवृक्षीय आजगोमेति नः श्रुतम्।। | 12-82-6a 12-82-6b |
स काकं पञ्जरे बद्ध्वा विषयं क्षेमदर्शिनः। सर्वं पर्यचरद्युक्तः प्रवृत्त्यर्थी पुनः पुनः।। | 12-82-7a 12-82-7b |
अधीये वायसीं विद्यां शंसन्ति मम वायसाः। अनागतमतीतं च यच्च संप्रति वर्तते।। | 12-82-8a 12-82-8b |
इति राष्ट्रे परिपतन्बहुभिः पुरुषैः सह। सर्वेषां राजयुक्तानां दुष्कृतं परिदृष्टवान्।। | 12-82-9a 12-82-9b |
स बुद्ध्वा तस्य राष्ट्रस्य व्यवसायं हि सर्वशः। राजयुक्तापचारांश्च सर्वान्बुद्ध्वा ततस्ततः।। | 12-82-10a 12-82-10b |
ततः स काकमादाय राजानं द्रष्टुमागमत्। सर्वज्ञोऽस्मीति वचनं ब्रुवाणः संशितव्रतः।। | 12-82-11a 12-82-11b |
स स्म कौसल्यमागम्य राजामात्यमलंकृतम्। प्राह काकस्य वचनादमुत्रेदं त्वया कृतम्।। | 12-82-12a 12-82-12b |
असौ चासौ च जानीते राजकेशस्त्वया हृतः। एवमाख्याति काकोऽयं तच्छीघ्रमनुगम्यताम्।। | 12-82-13a 12-82-13b |
तथाऽन्यानपि स प्राह राजकोशहरांस्तदा। न चास्य वचनं किंचिदनृतं श्रूयते क्वचित्।। | 12-82-14a 12-82-14b |
तेन विप्रकृताः सर्वे राजयुक्ताः कुरूद्वह। तमतिक्रम्य सुप्तं तु निशि काकमपोथयन्।। | 12-82-15a 12-82-15b |
वायसं तु विनिर्भिन्नं दृष्ट्वा वाणेन पञ्जरे। पूर्वाह्णे ब्राह्मणो वाक्यं क्षेमदर्शिनमब्रवीत्।। | 12-82-16a 12-82-16b |
राजंस्त्वामभयं याचे प्रभुं प्राणधनेश्वरम्। अनुज्ञातस्त्वया ब्रूयां वचनं भवतो हितम्।। | 12-82-17a 12-82-17b |
मित्रार्थमभिसंतप्तो भक्त्या सर्वात्मनाऽऽगतः। ह्रियन्ते हि महार्थाश्च पुरुषे विक्रमत्यपि।। | 12-82-18a 12-82-18b |
संबुबोधयिषुर्मित्रं सदश्वमिव सारथिः। अतिमन्युप्रसक्तो हि प्रसह्य हितकारणात्।। | 12-82-19a 12-82-19b |
तथाविधस्य सुहृदा क्षन्तव्यं संविजानता। ऐश्वर्यमिच्छता नित्यं पुरुषेण बुभूषता।। | 12-82-20a 12-82-20b |
तं राजा प्रत्युवाचेदं यत्किंचिन्मां भवान्वदेत्। कस्मादहं न क्षमेयमाकाङ्क्षन्नात्मनो हितम्।। | 12-82-21a 12-82-21b |
ब्राह्मण प्रतिजाने ते प्रब्रूहि यदिहेच्छसि। करिष्यामि हि ते वाक्यं यन्मां विप्र प्रवक्ष्यसि।। | 12-82-22a 12-82-22b |
मुनिरुवाच। | 12-82-23x |
विद्वान्नयानपायांश्च भयाख्यातॄन्भयानि च। भक्त्या वृत्तिं समाख्यातुं भवतोऽन्तिकमागतः।। | 12-82-23a 12-82-23b |
प्रागेवोक्तं तु दोषोऽयमाचार्यैर्नृपसेवनम्। अगतेः कुगतिर्ह्येषा या राज्ञा सहजीविका।। | 12-82-24a 12-82-24b |
आशीविषैश्च तस्याहुः संगमं यस्य राजभिः। बहुमित्रांश्च राजानो बह्वभित्रास्तथैव च।। | 12-82-25a 12-82-25b |
तेभ्यः सर्वेभ्य एवाहुर्भयं राजोपजीविनाम्। तथाऽस्य राजतो राजन्मुहुर्तादागतं भयम्।। | 12-82-26a 12-82-26b |
नैकान्तेनाप्रमादो हि शक्यः कर्तुं महीपतौ। न तु प्रमादः कर्तव्यः कथंचिद्भूतिमिच्छता।। | 12-82-27a 12-82-27b |
प्रमादात्स्खलते बुद्धिः स्खलतो नास्ति जीवितम्। अग्निं दीप्तमिवासीदेद्राजानप्नुपशिक्षितः।। | 12-82-28a 12-82-28b |
आशीविषमिव क्रुद्धं प्रभुं प्राणधनेश्वरम्। यत्नेनोपचरेन्नित्यं नाहमस्मीति मानवः।। | 12-82-29a 12-82-29b |
दुर्व्याहृताच्छङ्कमानो दुःस्थिताद्दुरनुष्ठितात्। दुरासदाद्दुर्वृजिनादिङ्गिताद्ध्यायितादपि।। | 12-82-30a 12-82-30b |
देवतेव हि सर्वार्थान्कुर्याद्राजा प्रसादितः। वैश्वानर इव क्रुद्धः समूलमपि निर्दहेत्।। | 12-82-31a 12-82-31b |
इति राजन्यमः प्राह वर्तते च तथैव तत्। अथ भूयांसमेवार्थं करिष्यामि पुनः पुनः।। | 12-82-32a 12-82-32b |
ददात्यत्मद्विधोऽऽमात्यो बुद्धिसाहाय्यमापदि। वायसस्त्वेष मे राजन्नन्तकायाभिसंहितः।। | 12-82-33a 12-82-33b |
न च मेऽत्र भवान्गर्ह्यो न च येषां भवान्प्रियः। हिताहितांस्तु बुद्ध्येथा मापरोक्षमतिर्भव।। | 12-82-34a 12-82-34b |
ये त्वादानपरा एव वसन्ति भवतो गृहे। अभूतिकामा भूतानां तादृशैर्मेऽभिसंहितम्।। | 12-82-35a 12-82-35b |
यो वा भवद्विनाशेन राज्यमिच्छत्यनन्तरम्। आन्तरैराभेसंधाय राजन्सिद्ध्यति नान्यथा।। | 12-82-36a 12-82-36b |
तेषामहं भयाद्राजन्गमिष्याम्यन्यमाश्रमम्। तैर्हि मे संधितो बाणः काके निपतितः प्रभो।। | 12-82-37a 12-82-37b |
छझना मम काकश्च गमितो यमसादनम्। दृष्टं ह्येतन्मया राजंस्तपोदीर्घेन चक्षुषा।। | 12-82-38a 12-82-38b |
बहुनक्रझषग्राहां तिमिंगिलगणैर्युताम्। काकेन वालिशेनेमामतार्षमहमापगाम्।। | 12-82-39a 12-82-39b |
स्थाण्वश्मकण्टकवर्तीं सिंह व्याघ्रसमाकुलाम्। दुरासदां दुष्प्रसहां गुहां हैमवतीमिव। | 12-82-40a 12-82-40b |
अग्निना तामसं दुर्गं नौभिराप्यं च गम्यते। राजदुर्गावतरणे नोपायं पण्डिता विदुः।। | 12-82-41a 12-82-41b |
गहनं भवतो राज्यमन्धकारं तमोन्वितम्। नेह विश्वसितुं शक्यं भवताऽपि कुतो मया।। | 12-82-42a 12-82-42b |
अतो नायं शुभो वासस्तुल्ये सदसती इह। वधो ह्येवात्र सुकृते दुष्कृते न च संशयः।। | 12-82-43a 12-82-43b |
न्यायतो दुष्कृते घातः सुकृते न कथनम्। नेह युक्तं स्थिरं स्थातुं जवेनैवाव्रजेद्वुधः।। | 12-82-44a 12-82-44b |
सीता नाम नदी राजन्प्लवो यस्यां निमज्जति। तयोपमामिमां मन्ये वागुरां सर्वधातिनीम्।। | 12-82-45a 12-82-45b |
मधुप्रपातो हि भवान्भोजनं विषसंयुतम्। असतामिव ते भावो वर्तते न सतामिव।। | 12-82-46a 12-82-46b |
आशीविषैः परिवृतः कूपस्त्वमसि पार्थिव।। | 12-82-47a |
दुर्गतीर्था बृहत्कूला कावेरी चोरसंयुता। नदी मधुरपानीया यथा राजंस्तथा भवान्। श्वगृध्रगोमायुयुतो राजहंससमो ह्यसि।। | 12-82-48a 12-82-48b 12-82-48c |
यथाऽऽश्रित्य महावृक्षं कक्षः संवर्धते महान्। ततस्तं संवृणोत्येव तमतीत्य च वर्धते।। | 12-82-49a 12-82-49b |
तेनैवोग्रेन्धनेनैनं दावो दहति दारुणः। तथोपमा ह्यमात्यास्ते राजंस्तान्परिशोधय।। | 12-82-50a 12-82-50b |
त्वया चैव कृता राजन्भवता परिपालिताः। भवन्तं पर्यवज्ञाय जिघांसन्ति भवत्प्रियम्।। | 12-82-51a 12-82-51b |
उषितं शङ्कमानेन प्रमादं परिरक्षता। अन्तः सर्प इवागारे वीरपत्न्या इवालये। शीलं जिज्ञासमानेन राज्ञः साहसजीविनः।। | 12-82-52a 12-82-52b 12-82-52c |
कच्चिज्जितेन्द्रियो राजा कच्चिदस्यान्तरा जिताः। कच्चिदेषां प्रियो राजा कच्चिद्राज्ञः प्रियाः प्रजाः।। | 12-82-53a 12-82-53b |
विजिज्ञासुरिह प्राप्तस्तवाहं राजसत्तम। तस्य मे रोचते राजन्क्षुधितस्येव भोजनम्।। | 12-82-54a 12-82-54b |
अमात्या मे न रोचन्ते वितृष्णस्य यथोदकम्। भवतोऽर्थकृदित्येवं मयि ते दोषमादधन्। विद्यते कारणं नान्यदिति मे नात्र संशयः।। | 12-82-55a 12-82-55b 12-82-55c |
न हि तेषामहं द्रोग्धा तत्तेषां द्रोहवद्गतम्। अरेर्हि दुर्हृदाद्भेयं भग्नपृष्ठादिवोरगात्।। | 12-82-56a 12-82-56b |
राजोवाच। | 12-82-57x |
भूयसा परिहारेण सत्कारेण च भूयसा। पूजितो ब्राह्मणश्रेष्ठ भूयो वस गृहे मम।। | 12-82-57a 12-82-57b |
ये त्वां ब्राह्मण नेच्छन्ति ते न वत्स्यन्ति मे गृहे। भवतैव हि तज्ज्ञेयं यत्तदेषामनन्तरम्।। | 12-82-58a 12-82-58b |
यथा स्यात्सुधृतो दण्डो यथा च सुकृतं कृतम्। तथा समीक्ष्य भगवञ्श्रेयसे विनियुङ्क्ष्व माम्।। | 12-82-59a 12-82-59b |
मुनिरुवाच। | 12-82-60x |
अदर्शयन्निमं दोषमेकैकं दुर्बलं कुरु। ततः कारणमाज्ञाय पुरुषंपुरुषं जहि। एकदोषा हि बहवो मृद्गीयुरपि कण्टकान्।। | 12-82-60a 12-82-60b 12-82-60c |
`अर्थे सर्वं जगद्वद्धमर्थेनैव निबध्यते। अर्थे दर्पो मनुष्याणां तस्मादर्थं विरोचय।। | 12-82-61a 12-82-61b |
एकेनैकस्य दोषेण तद्विरुद्धं प्रचोदय। स तस्य दोषानुद्भाव्य तस्यार्थं ग्राहयिष्यति।। | 12-82-62a 12-82-62b |
सामपूर्वं च केषांचिद्भेदेन च परस्परम्। वैरं कारय भूपाल पश्चाद्दण्डं प्रचोदय।। | 12-82-63a 12-82-63b |
बिल्वेन च यथा बिल्वमाकारं छाद्य बुद्धिमान्। अशुद्धं सचिवं राजन्नशुद्धेनैव नाशय।।' | 12-82-64a 12-82-64b |
मन्त्रभेदभयाद्राजंस्तस्मादेतद्ब्रवीमि ते।। | 12-82-65a |
वयं तु ब्राह्मणा नाम मृदुदण्डाः कृपालवः। स्वस्ति चेच्छाम भवतः परेषां च यथाऽऽत्मनः।। | 12-82-66a 12-82-66b |
राजन्नात्मानमाचक्षे संबन्धी भवतो ह्यहम्। मुनिः कालकवृक्षीय इत्येवमभिसंज्ञितः। पितुः सखा च भवतः संमतः सत्यसंगरः।। | 12-82-67a 12-82-67b 12-82-67c |
व्यापन्ने भवतो राज्ये राजन्पितरि संस्थिते। सर्वकामान्परित्यज्य तपस्तप्तं तदा मया।। | 12-82-68a 12-82-68b |
स्नेहात्त्वां तु ब्रवीम्येतन्मा भूयो विभ्रो दिति।। | 12-82-69a |
उभे दृष्ट्वा दुःखसुखे राज्यं प्राप्य यदृच्छया। राज्येनामात्यसंस्थेन कथं राजन्प्रमाद्यसि।। | 12-82-70a 12-82-70b |
भीष्म उवाच। | 12-82-71x |
ततो राजकुले नान्दी संजज्ञे भूयसा पुनः। पुरोहितकुले चैव संप्राप्ते ब्राह्मणर्षभे।। | 12-82-71a 12-82-71b |
एकच्छत्रां महीं कृत्वा कौसल्याय यशस्विने। मुनिः कालकवृक्षीय ईजे क्रतुभिरुत्तमैः।। | 12-82-72a 12-82-72b |
हितं तद्वचनं श्रुत्वा कौसल्योऽप्यजयन्महीम्। तथा च कृतवान्राजा यथोक्तं तेन भारत।। | 12-82-73a 12-82-73b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि द्व्यशीतितमोऽध्यायः।। 82।। |
12-82-7 प्रवृत्त्यर्था अमात्यदोषदर्शने राजानं प्रवर्तयितुकामः।। 12-82-9 परिपतन्परितो भ्रमन्। राजयुक्तानां राज्ञा तेषु तेषु कार्येषु नियुक्तानाम्। दुष्कृतं स्वामिद्रव्यापहाररूपं वापम्।। 12-82-12 राजानमागम्य तत्समक्षमेवामात्यं प्राह। अमुत्रस्थाने त्वया इदं धनचौर्यं कृतमिति।। 12-82-13 अनुगम्यतां आलोच्यताम्।। 12-82-18,19 ह्रियन्त इति मित्रं त्वां संबुबोधयिपुरागत इति श्लोकद्वयभेकान्वयम्।। 12-82-23 ज्ञात्वा पापानपापाभृत्यतस्ते भयानि चेति झ. पाठः।। 12-82-29 नाहमस्मीति मत्वा जीवनाशं त्यक्त्वेत्यर्थः।। 12-82-35 आदानपराः कोशलोप्तारः। मे मयि। तादृशैरभिसंहितमभिसंधिर्वैरं कृतम्। मदीयकाकहननादिति भावः।। 12-82-36 आन्तरैः सूदादिभिः अभिसंधायाऽन्नदौ विषं प्रक्षेप्तव्यमिति स्नेहं कृत्वा। तेषामभीप्सितो भवद्विनाशः सिध्यति चाऽन्यथा न सिध्यति व। आयुःशेषे सतीति भावः।। 12-82-37 तेषां त्वद्वैरिणाम् ।। 12-82-39 इमां राजनीतिनदीम्। नक्रादितुल्यैरधिकारिपुरुषैर्व्याप्ताम्। बालिशेन स्वमृत्युं संपादयता विरुद्धलक्षणया तन्मरणान्मृतोऽस्मीति भावः।। 12-82-41 अग्निना दीपेन आप्यं जलरूपम्।। 12-82-42 गहनं कपटम्। अन्धकारमिव तमोन्वितं धर्माधर्मदर्शनशून्यम्।। 12-82-52 उषितं मयेति शेषः।। 12-82-53 जिज्ञासामेवाह कच्चिदिति।। 12-82-54 रोचते भवानिति शेषः।। 12-82-56 भेयं भेतव्यम्। भग्नपृष्ठात् पृष्ठभङ्गेन कोपितात्।। 12-82-60 तेषामकस्मात् युगपच्च वधे दोषमाह एकेति। संहताः कण्टकानपि मृद्रीयुः किमुत मादृशान्मृदूनित्यर्थः।। 12-82-68 पितरि त्वदीये संस्थिते मृते।। 12-82-69 विभ्रमेत् अनाप्तेष्वाप्तबुद्धिं भवान्माकार्षीत्।। 12-82-71 नान्दी मङ्गलपाठः। ततस्तस्मिन्मन्त्रिणि वृते सति।। 12-82-72 कौसल्याय कौसल्यार्थे।।
कालकवृक्षीयोपाख्यानम्
१२.८३ 12.82
भीष्म उवाच॥
एषा प्रथमतो वृत्तिर्द्वितीयां शृणु भारत |
यः कश्चिज्जनयेदर्थं राज्ञा रक्ष्यः स मानवः ॥१॥
ह्रियमाणममात्येन भृतो वा यदि वाभृतः |
यो राजकोशं नश्यन्तमाचक्षीत युधिष्ठिर ॥२॥
श्रोतव्यं तस्य च रहो रक्ष्यश्चामात्यतो भवेत् |
अमात्या ह्युपहन्तारं भूयिष्ठं घ्नन्ति भारत ॥३॥
राजकोशस्य गोप्तारं राजकोशविलोपकाः |
समेत्य सर्वे बाधन्ते स विनश्यत्यरक्षितः ॥४॥
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् |
मुनिः कालकवृक्षीयः कौसल्यं यदुवाच ह ॥५॥
कोसलानामाधिपत्यं सम्प्राप्ते क्षेमदर्शिनि |
मुनिः कालकवृक्षीय आजगामेति नः श्रुतम् ॥६॥
स काकं पञ्जरे बद्ध्वा विषयं क्षेमदर्शिनः |
पूर्वं पर्यचरद्युक्तः प्रवृत्त्यर्थी पुनः पुनः ॥७॥
अधीये वायसीं विद्यां शंसन्ति मम वायसाः |
अनागतमतीतं च यच्च सम्प्रति वर्तते ॥८॥
इति राष्ट्रे परिपतन्बहुशः पुरुषैः सह |
सर्वेषां राजयुक्तानां दुष्कृतं परिपृष्टवान् ॥९॥
स बुद्ध्वा तस्य राष्ट्रस्य व्यवसायं हि सर्वशः |
राजयुक्तापचारांश्च सर्वान्बुद्ध्वा ततस्ततः ॥१०॥
तमेव काकमादाय राजानं द्रष्टुमागमत् |
सर्वज्ञोऽस्मीति वचनं ब्रुवाणः संशितव्रतः ॥११॥
स स्म कौसल्यमागम्य राजामात्यमलङ्कृतम् |
प्राह काकस्य वचनादमुत्रेदं त्वया कृतम् ॥१२॥
असौ चासौ च जानीते राजकोशस्त्वया हृतः |
एवमाख्याति काकोऽयं तच्छीघ्रमनुगम्यताम् ॥१३॥
तथान्यानपि स प्राह राजकोशहरान्सदा |
न चास्य वचनं किञ्चिदकृतं श्रूयते क्वचित् ॥१४॥
तेन विप्रकृताः सर्वे राजयुक्ताः कुरूद्वह |
तमतिक्रम्य सुप्तस्य निशि काकमपोथयन् ॥१५॥
वायसं तु विनिर्भिन्नं दृष्ट्वा बाणेन पञ्जरे |
पूर्वाह्णे ब्राह्मणो वाक्यं क्षेमदर्शिनमब्रवीत् ॥१६॥
राजंस्त्वामभयं याचे प्रभुं प्राणधनेश्वरम् |
अनुज्ञातस्त्वया ब्रूयां वचनं त्वत्पुरो हितम् ॥१७॥
मित्रार्थमभिसन्तप्तो भक्त्या सर्वात्मना गतः |
अयं तवार्थं हरते यो ब्रूयादक्षमान्वितः ॥१८॥
सम्बुबोधयिषुर्मित्रं सदश्वमिव सारथिः |
अतिमन्युप्रसक्तो हि प्रसज्य हितकारणम् ॥१९॥
तथाविधस्य सुहृदः क्षन्तव्यं संविजानता |
ऐश्वर्यमिच्छता नित्यं पुरुषेण बुभूषता ॥२०॥
तं राजा प्रत्युवाचेदं यन्मा किञ्चिद्भवान्वदेत् |
कस्मादहं न क्षमेयमाकाङ्क्षन्नात्मनो हितम् ॥२१॥
ब्राह्मण प्रतिजानीहि प्रब्रूहि यदि चेच्छसि |
करिष्यामि हि ते वाक्यं यद्यन्मां विप्र वक्ष्यसि ॥२२॥
मुनिरुवाच॥
ज्ञात्वा नयानपायांश्च भृत्यतस्ते भयानि च |
भक्त्या वृत्तिं समाख्यातुं भवतोऽन्तिकमागमम् ॥२३॥
प्रागेवोक्तश्च दोषोऽयमाचार्यैर्नृपसेविनाम् |
अगतीकगतिर्ह्येषा या राज्ञा सह जीविका ॥२४॥
आशीविषैश्च तस्याहुः सङ्गतं यस्य राजभिः |
बहुमित्राश्च राजानो बह्वमित्रास्तथैव च ॥२५॥
तेभ्यः सर्वेभ्य एवाहुर्भयं राजोपसेविनाम् |
अथैषामेकतो राजन्मुहूर्तादेव भीर्भवेत् ॥२६॥
नैकान्तेनाप्रमादो हि कर्तुं शक्यो महीपतौ |
न तु प्रमादः कर्तव्यः कथञ्चिद्भूतिमिच्छता ॥२७॥
प्रमादाद्धि स्खलेद्राजा स्खलिते नास्ति जीवितम् |
अग्निं दीप्तमिवासीदेद्राजानमुपशिक्षितः ॥२८॥
आशीविषमिव क्रुद्धं प्रभुं प्राणधनेश्वरम् |
यत्नेनोपचरेन्नित्यं नाहमस्मीति मानवः ॥२९॥
दुर्व्याहृताच्छङ्कमानो दुष्कृताद्दुरधिष्ठितात् |
दुरासिताद्दुर्व्रजितादिङ्गितादङ्गचेष्टितात् ॥३०॥
देवतेव हि सर्वार्थान्कुर्याद्राजा प्रसादितः |
वैश्वानर इव क्रुद्धः समूलमपि निर्दहेत् ॥३१॥
इति राजन्मयः प्राह वर्तते च तथैव तत् ॥३१॥
अथ भूयांसमेवार्थं करिष्यामि पुनः पुनः |
ददात्यस्मद्विधोऽमात्यो बुद्धिसाहाय्यमापदि ॥३२॥
वायसश्चैव मे राजन्नन्तकायाभिसंहितः |
न च मेऽत्र भवान्गर्ह्यो न च येषां भवान्प्रियः ॥३३॥
हिताहितांस्तु बुध्येथा मा परोक्षमतिर्भव ॥३३॥
ये त्वादानपरा एव वसन्ति भवतो गृहे |
अभूतिकामा भूतानां तादृशैर्मेऽभिसंहितम् ॥३४॥
ये वा भवद्विनाशेन राज्यमिच्छन्त्यनन्तरम् |
अन्तरैरभिसन्धाय राजन्सिध्यन्ति नान्यथा ॥३५॥
तेषामहं भयाद्राजन्गमिष्याम्यन्यमाश्रमम् |
तैर्हि मे सन्धितो बाणः काके निपतितः प्रभो ॥३६॥
छद्मना मम काकश्च गमितो यमसादनम् |
दृष्टं ह्येतन्मया राजंस्तपोदीर्घेण चक्षुषा ॥३७॥
बहुनक्रझषग्राहां तिमिङ्गिलगणायुताम् |
काकेन बडिशेनेमामतार्षं त्वामहं नदीम् ॥३८॥
स्थाण्वश्मकण्टकवतीं व्याघ्रसिंहगजाकुलाम् |
दुरासदां दुष्प्रवेशां गुहां हैमवतीमिव ॥३९॥
अग्निना तामसं दुर्गं नौभिराप्यं च गम्यते |
राजदुर्गावतरणे नोपायं पण्डिता विदुः ॥४०॥
गहनं भवतो राज्यमन्धकारतमोवृतम् |
नेह विश्वसितुं शक्यं भवतापि कुतो मया ॥४१॥
अतो नायं शुभो वासस्तुल्ये सदसती इह |
वधो ह्येवात्र सुकृते दुष्कृते न च संशयः ॥४२॥
न्यायतो दुष्कृते घातः सुकृते स्यात्कथं वधः |
नेह युक्तं चिरं स्थातुं जवेनातो व्रजेद्बुधः ॥४३॥
सीता नाम नदी राजन्प्लवो यस्यां निमज्जति |
तथोपमामिमां मन्ये वागुरां सर्वघातिनीम् ॥४४॥
मधुप्रपातो हि भवान्भोजनं विषसंयुतम् |
असतामिव ते भावो वर्तते न सतामिव ॥४५॥
आशीविषैः परिवृतः कूपस्त्वमिव पार्थिव ॥४५॥
दुर्गतीर्था बृहत्कूला करीरीवेत्रसंयुता |
नदी मधुरपानीया यथा राजंस्तथा भवान् ॥४६॥
श्वगृध्रगोमायुयुतो राजहंससमो ह्यसि ॥४६॥
यथाश्रित्य महावृक्षं कक्षः संवर्धते महान् |
ततस्तं संवृणोत्येव तमतीत्य च वर्धते ॥४७॥
तेनैवोपेन्धनो नूनं दावो दहति दारुणः |
तथोपमा ह्यमात्यास्ते राजंस्तान्परिशोधय ॥४८॥
भवतैव कृता राजन्भवता परिपालिताः |
भवन्तं पर्यवज्ञाय जिघांसन्ति भवत्प्रियम् ॥४९॥
उषितं शङ्कमानेन प्रमादं परिरक्षता |
अन्तःसर्प इवागारे वीरपत्न्या इवालये ॥५०॥
शीलं जिज्ञासमानेन राज्ञश्च सहजीविना ॥५०॥
कच्चिज्जितेन्द्रियो राजा कच्चिदभ्यन्तरा जिताः |
कच्चिदेषां प्रियो राजा कच्चिद्राज्ञः प्रियाः प्रजाः ॥५१॥
जिज्ञासुरिह सम्प्राप्तस्तवाहं राजसत्तम |
तस्य मे रोचसे राजन्क्षुधितस्येव भोजनम् ॥५२॥
अमात्या मे न रोचन्ते वितृष्णस्य यथोदकम् |
भवतोऽर्थकृदित्येव मयि दोषो हि तैः कृतः ॥५३॥
विद्यते कारणं नान्यदिति मे नात्र संशयः ॥५३॥
न हि तेषामहं द्रुग्धस्तत्तेषां दोषवद्गतम् |
अरेर्हि दुर्हताद्भेयं भग्नपृष्ठादिवोरगात् ॥५४॥
राजोवाच॥
भूयसा परिबर्हेण सत्कारेण च भूयसा |
पूजितो ब्राह्मणश्रेष्ठ भूयो वस गृहे मम ॥५५॥
ये त्वां ब्राह्मण नेच्छन्ति न ते वत्स्यन्ति मे गृहे |
भवतैव हि तज्ज्ञेयं यदिदानीमनन्तरम् ॥५६॥
यथा स्याद्दुष्कृतो दण्डो यथा च सुकृतं कृतम् |
तथा समीक्ष्य भगवञ्श्रेयसे विनियुङ्क्ष्व माम् ॥५७॥
मुनिरुवाच॥
अदर्शयन्निमं दोषमेकैकं दुर्बलं कुरु |
ततः कारणमाज्ञाय पुरुषं पुरुषं जहि ॥५८॥
एकदोषा हि बहवो मृद्नीयुरपि कण्टकान् |
मन्त्रभेदभयाद्राजंस्तस्मादेतद्ब्रवीमि ते ॥५९॥
वयं तु ब्राह्मणा नाम मृदुदण्डाः कृपालवः |
स्वस्ति चेच्छामि भवतः परेषां च यथात्मनः ॥६०॥
राजन्नात्मानमाचक्षे सम्बन्धी भवतो ह्यहम् |
मुनिः कालकवृक्षीय इत्येवमभिसञ्ज्ञितः ॥६१॥
पितुः सखा च भवतः संमतः सत्यसङ्गरः |
व्यापन्ने भवतो राज्ये राजन्पितरि संस्थिते ॥६२॥
सर्वकामान्परित्यज्य तपस्तप्तं तदा मया |
स्नेहात्त्वां प्रब्रवीम्येतन्मा भूयो विभ्रमेदिति ॥६३॥
उभे दृष्ट्वा दुःखसुखे राज्यं प्राप्य यदृच्छया |
राज्येनामात्यसंस्थेन कथं राजन्प्रमाद्यसि ॥६४॥
भीष्म उवाच॥
ततो राजकुले नान्दी सञ्जज्ञे भूयसी पुनः |
पुरोहितकुले चैव सम्प्राप्ते ब्राह्मणर्षभे ॥६५॥
एकच्छत्रां महीं कृत्वा कौसल्याय यशस्विने |
मुनिः कालकवृक्षीय ईजे क्रतुभिरुत्तमैः ॥६६॥
हितं तद्वचनं श्रुत्वा कौसल्योऽन्वशिषन्महीम् |
तथा च कृतवान्राजा यथोक्तं तेन भारत ॥६७॥ 12.82.70
शांतिपर्व-081 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-083 |