महाभारतम्-12-शांतिपर्व-061
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युधिष्ठिरंप्रति भीष्मेण ब्राह्मणधर्मकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-61-1x |
पुनः शिवान्महोदर्कानहिंस्रांल्लोकसंमतान्। ब्रूहि धर्मान्सुखोपायान्मद्विधानां सुखावहान्।। | 12-61-1a 12-61-1b |
भीष्म उवाच। | 12-61-2x |
ब्राह्मणस्य तु चत्वारस्त्वाश्रमा विहिताः प्रभो। वर्णास्तान्नानुवर्तन्ते त्रयो भारतसत्तम।। | 12-61-2a 12-61-2b |
उक्तानि कर्माणि बहूनि राज न्स्वर्ग्याणि राजन्यपरायणानि। शास्त्रस्य सर्वस्य विधौ स्मृतानि क्षात्रे हि सर्वं विहितं यथावत्।। | 12-61-3a 12-61-3b 12-61-3c 12-61-3d |
क्षात्राणि वैश्यानि च सेवमानः शौद्राणि कर्माणि च ब्राह्मणः सत्। अस्मिँल्लोके निन्दितो मन्दचेताः। परे च लोके निरयं प्रयाति।। | 12-61-4a 12-61-4b 12-61-4c 12-61-4d |
या संज्ञा विहिता लोके दासे शुनि वृके पशौ। विकर्मणि स्थिते विप्रे तां संज्ञां कुरु पाण्डव।। | 12-61-5a 12-61-5b |
षट्कर्मसंप्रवृत्तस्य आश्रमेषु चतुर्ष्वपि। सर्वधर्मोपपन्नस्य तद्भूतस्य कृतात्मनः।। | 12-61-6a 12-61-6b |
ब्राह्मणस्य विशुद्धस्य तपस्यभिरतस्य च। निराशिषो वदान्यस्य लोका ह्यक्षरसंज्ञिताः।। | 12-61-7a 12-61-7b |
यो यस्मिन्कुरुते कर्म यादृशं येन यत्र च। तादृशं तादृशेनैव सगुणं प्रतिपद्यते।। | 12-61-8a 12-61-8b |
वृद्ध्या कृषिवणिक्त्वेन जीवसंजीवनेन च। वेत्तुमर्हसि राजेन्द्र स्वाध्यात्मगुणितेन च।। | 12-61-9a 12-61-9b |
कालसंचोदितः काले कालपर्यायनिश्चितः। उत्तमाधममध्यानि कर्माणि कुरुतेऽवशः।। | 12-61-10a 12-61-10b |
अन्तवन्ति प्रदानानि परं श्रेयस्कराणि च। स्वकर्मविहितो लोको ह्यक्षरः सर्वतोमुखः।। | 12-61-11a 12-61-11b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि एकषष्टितमोऽध्यायः।। 61।। |
12-61-6 षट्कर्माणि प्राणायामः प्रत्याहारो ध्यानं धारणा तर्क समाधिरिति। इज्यादीनामाश्रमान्तरेष्वयोगात्। सर्वधर्मोऽहिंसा।। 12-61-7 तपसि विचारे। अक्षरसंज्ञिताः अक्षयाः।। 12-61-8 यः पुमान्यस्मिन्नवस्थाविशेषे यत्र देशे काले वा येन फलेन निमित्तेन यत्कर्म करोति साध्वसाधु वा तत्सकलं लोभाच्चिराभ्यासाच्च सगुणमेवेति प्रतिपद्यते नत्विदं निन्द्यमिति ततो विरज्यत इत्यर्थः।। 12-61-9 जीवै संजीवनं मृगयाजीवित्वं तेन। वृभ्द्यादिभिः समानमिति हेत्तुमर्हसि उक्तहेतोरित्यर्थः।। 12-61-10 कालेन पर्येत्याविर्भवतीति कालपर्यायः प्राग्भवीयो वासनासमूहस्तेन निश्चितः।।
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