महाभारतम्-12-शांतिपर्व-066
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति लोकस्य सराजकत्वाराजकत्वाभ्यां गुणदोषनिरूपणम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-66-1x |
चातुराश्रम्यमुक्तं ते चातुर्वण्यं तथैव च। राष्ट्रस्य यत्कृत्यतमं तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-66-1a 12-66-1b |
भीष्म उवाच। | 12-66-2x |
राष्ट्रस्य यत्कृत्यतमं राज्ञ एवाभिषेचनम्। अनिन्द्रमबलं राष्ट्रं दस्यवोऽभिभवन्त्युत।। | 12-66-2a 12-66-2b |
अराजकेषु राष्ट्रेषु धर्मो न व्यवतिष्ठते। परस्परं च खादन्ति सर्वथा धिगराजकम्।। | 12-66-3a 12-66-3b |
इन्द्रमेव प्रणमते यद्राजानमिति श्रुतिः। यथैवेन्द्रस्तथा राजा संपूज्यो भूतिमिच्छता।। | 12-66-4a 12-66-4b |
नाराजकेषु राष्ट्रेषु वस्तव्यमिति वैदिकम्। नाराजकेषु राष्ट्रेषु हव्यं वहति पावकः।। | 12-66-5a 12-66-5b |
अथ चेदधिवेर्तेत राज्यार्थी बलवत्तरः। अराजकाणि राष्ट्राणि हतवीराणि वा पुनः।। | 12-66-6a 12-66-6b |
प्रत्युद्गम्याभिपूज्यः स्यादेतदत्र सुमन्त्रितम्। न हि राज्यात्पापतरमस्ति किंचिदराजकात्।। | 12-66-7a 12-66-7b |
स चेत्समनुपश्येत समग्रं कुशलं भवेत्। बलवान्हि प्रकुपितः कुर्यान्निः शेषतामपि।। | 12-66-8a 12-66-8b |
भूयांसं लभते क्लेशं या गौर्भवति दुर्दुहा। अथ या सुदुहा राजन्नैव तां वितुदन्त्यपि।। | 12-66-9a 12-66-9b |
यदतप्तं प्रणमते न तत्संतापयन्त्युत। यत्स्वयं नमते दारु न तत्संनामयन्त्यपि।। | 12-66-10a 12-66-10b |
एतयोपमया धीरः सन्नमेत बलीयसे। इन्द्राय स प्रणमते नमते यो बलीयसे।। | 12-66-11a 12-66-11b |
तस्माद्राजैव कर्तव्यः सततं भूतिमिच्छता। न धनार्थो न दारार्थस्तेषां येषामराजकम्।। | 12-66-12a 12-66-12b |
प्रीयते हि हरन्पापः परवित्तमराजके। यदाऽस्य तद्धरन्त्यन्ये तदा राजानमिच्छति।। | 12-66-13a 12-66-13b |
पापा ह्यपि तदा क्षेमं न लभन्ते कदाचन। एकस्य हि द्वौ हरतो द्वयोश्च बहवोऽपरे।। | 12-66-14a 12-66-14b |
अदासः क्रियते दासो ह्रियन्ते च बलात्स्त्रियः। एतस्मात्कारणाद्देवाः प्रजापालान्प्रचक्रिरे।। | 12-66-15a 12-66-15b |
राजा चेन्न भवेल्लोके पृथिव्या दण्डधारकः। जले मत्स्यानिवाभक्ष्यन्दुर्बलं बलवत्तराः।। | 12-66-16a 12-66-16b |
अराजकाः प्रजाः पूर्वं विनेशुरिति नः श्रुतम्। परस्परं भक्षयन्तो मत्स्या इव जले कृशान्।। | 12-66-17a 12-66-17b |
समेत्य तास्ततश्चक्रुः समयानिति नः श्रुतम्। वाक्शूरो दण्डपरुषो यश्च स्यात्पारदारिकः।। | 12-66-18a 12-66-18b |
यश्च नः समयं भिन्द्यात्त्याज्या नस्तादृशा इति। विश्वासार्थं च सर्वेषां वर्णानामविशेषतः। तास्तथा समयं कृत्वा समयेनावतस्थिरे।। | 12-66-19a 12-66-19b 12-66-19c |
सहितास्तास्तदा जग्मुरसुखार्ताः पितामहम्। अनीश्वरा विनश्यामो भगवन्नीश्वरं दिश।। | 12-66-20a 12-66-20b |
यं पूजयेम संभूय यश्च नः प्रतिपालयेत्। ताभ्यो मनुं व्यादिदेश मनुर्नाभिननन्द ताः।। | 12-66-21a 12-66-21b |
मनुरुवाच। | 12-66-22x |
बिभेमि कर्मणः पापाद्राज्यं हि भृशदुष्करम्। विशेषतो मनुष्येषु मिथ्यावृत्तेषु नित्यदा।। | 12-66-22a 12-66-22b |
भीष्म उवाच। | 12-66-23x |
तमब्रुवन्प्रजा मा भैर्विधास्यामो धनं तव। पशूनामथ पञ्चांशं धरण्यस्य तथैव च।। | 12-66-23a 12-66-23b |
धान्यस्य दशमं भागं दास्यामः कोशवर्धनम्। कन्यां शुल्के चारुरूपां विवाहेषूद्यतासु च।। | 12-66-24a 12-66-24b |
मुख्येन शस्त्रपत्रेण ये मनुष्याः प्रधानतः। भवन्तं तेऽनुयास्यन्ति महेन्द्रमिव देवताः।। | 12-66-25a 12-66-25b |
स त्वं जातबलो राजन्दुष्प्रधर्षः प्रतापवान्। सुखे धास्यसि नः सर्वान्कुबेर इव नैर्ऋतान्।। | 12-66-26a 12-66-26b |
यं च धर्मं चरिष्यन्ति प्रजा राज्ञा सुरक्षिताः। चतुर्थं तस्य धर्मस्य त्वत्संस्थं नो भविष्यति।। | 12-66-27a 12-66-27b |
तेन धर्मेण महता सुखं लब्धेन भावितः। पाह्यस्मान्सर्वतो राजन्देवानिव शतक्रतुः।। | 12-66-28a 12-66-28b |
विजयाय हि निर्याहि प्रतपत्रश्मिवानिव। मानं विधम शत्रूणां धर्मं जनय नः सदा।। | 12-66-29a 12-66-29b |
स निर्ययौ महातेजा बलेन महता वृतः। महाभिजनसंपन्नस्तेजसा प्रज्वलन्निव।। | 12-66-30a 12-66-30b |
तस्य दृष्ट्वा महत्वं ते महेन्द्रस्येव देवताः। अपतत्रसिरे सर्वे स्वधर्मे च ददुर्मनः। `वर्णिनश्चाश्रमाश्चैव म्लेच्छाः सर्वे च दस्यवः।।' | 12-66-31a 12-66-31b 12-66-31c |
ततो महीं परिययौ पर्जन्य इव वृष्टिमान्। शमयन्सर्वतः पापान्स्वकर्मसु च योजयन्।। | 12-66-32a 12-66-32b |
एवं ये भूतिमिच्छेयुः पृथिव्यां मानवाः क्वचित्। कुर्यू राजानमेवाग्रे प्रजानुग्रहकारणात्।। | 12-66-33a 12-66-33b |
नमस्येरंश्च तं भक्त्या शिष्या इव गुरुं सदा। देवा इव च देवेन्द्रं नरा राजानमन्तिकात्।। | 12-66-34a 12-66-34b |
सत्कृतं स्वजनेनेह परोऽपि बहुमन्यते। स्वजनेन त्ववज्ञातं परे परिभवन्त्युत।। | 12-66-35a 12-66-35b |
राज्ञः परैः परिभवः सर्वेषामसुखावहः। तस्माच्छत्रं च पत्रं च वासांस्याभरणानि च।। | 12-66-36a 12-66-36b |
भोजनान्यथ पानानि राज्ञे दद्युर्गृहाणि च। आसनानि च शय्याश्च सर्वोपकरणानि च।। | 12-66-37a 12-66-37b |
गोप्ता चास्य दुराधर्षः स्मितपूर्वाभिभाषिता। आभाषितश्च मधुरं प्रत्याभाषेत मानवान्।। | 12-66-38a 12-66-38b |
कृतज्ञो दृढभक्तिः स्यात्संविभागी जितेन्द्रियः। ईक्षितः प्रतिवीक्षेत मृदु वल्गु च चर्जु च।। | 12-66-39a 12-66-39b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि षट्षष्टिमोऽध्यायः।। 66।। |
12-66-4 इन्द्रमेव प्रवृणुते इति झ. पाठः।। 12-66-12 धनादेरर्थ उपभोगः।। 12-66-18 वाक्शूरो निष्टुरभाषी। दण्डपरुष उग्रदण्डः।। 12-66-23 कर्तॄनेनो गमिष्यति इति झ. पाठः।। 12-66-24 विवाहेसूद्यतासु कन्यासु शुल्के मौल्यप्रसंगे सति सुरूपां कन्यां तुभ्यं दास्याम इत्यर्थः।। 12-66-25 शस्त्रपत्रेण शस्त्रेण वाहनेन च। प्रधानतः श्रेष्टाः। प्रथमार्थे तसिः।। 12-66-29 मानं दर्पम्। विधम नाशय।। 12-66-31 अपतत्रसिरे त्रासं प्राप्ताः।।
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