महाभारतम्-12-शांतिपर्व-163
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति यज्ञाद्यर्थं संपादीयद्रव्यविवेकथनम्।। 1।। तथा पापविशेषाणां प्रायश्चित्तविशेषकथनम्।। 2।।
भीष्म उवाच। | 12-163-1x |
कृतार्थी यक्ष्यमाणश्च सर्ववेदान्तगश्च यः। आचार्यपितृकार्यार्थं स्वाध्यायार्थमथापि च।। | 12-163-1a 12-163-1b |
एते वै साधवो दृष्टा ब्राह्मणाः धर्मभिक्षवः। निःस्वेभ्यो देयमेतेभ्यो दानं विद्या च भारत।। | 12-163-2a 12-163-2b |
अन्यत्र दक्षिणादानं देयं भरतसत्तम। अन्येभ्योऽपि बहिर्वेदि न कृतान्नं विधीयते।। | 12-163-3a 12-163-3b |
सर्वरत्नानि राजा हि यथार्हं प्रतिपादयेत्। ब्राह्मणायैव यज्ञाश्च सहान्नाः सहदक्षिणाः।। | 12-163-4a 12-163-4b |
अन्येभ्यो विमलाचारा यजन्ते गुणतः सदा। यस्य त्रैवार्षिकं भक्तं पर्याप्तं भृत्यवृत्तये। अधिकं चापि विद्येत स सोमं पातुमर्हति।। | 12-163-5a 12-163-5b 12-163-5c |
यज्ञश्चेत्प्रतिरुद्धः स्यादंशेनैकेन यज्वनः। ब्राह्मणस्य विशेषेण धार्मिके सति राजनि।। | 12-163-6a 12-163-6b |
यो वैश्यः स्याद्बहुपशुर्हीनक्रतुरसोमपः। कुटुम्बात्तस्य तद्वित्तं यज्ञार्थं पार्थिवो हरेत्।। | 12-163-7a 12-163-7b |
आहरेद्द्रुह्यतः किंचित्कामं शूद्रस्य वेश्मनि। न हि वेश्मनि शूद्रस्य किंचिदस्ति परिग्रहः।। | 12-163-8a 12-163-8b |
योऽनाहिताग्निः शतगुरयज्वा त्त सहस्रगुः। तयोरपि कुटुम्बाभ्यामाहरेदविचारयन्।। | 12-163-9a 12-163-9b |
अदातृभ्यो हरेद्वित्तं विख्याप्य नृपतिः सदा। तथैवाचरतो धर्मो नृपतेः स्यादथाखिलः।। | 12-163-10a 12-163-10b |
तथैव सप्तमे भक्ते भक्तानि षडनश्नतः। अश्वस्तनविभागेन हर्तव्यं हीनकर्मणः।। | 12-163-11a 12-163-11b |
खलात्क्षेत्रात्तथागाराद्यतो वाऽप्युपपद्यते। आख्यातव्यं नृपस्यैतत्पृच्छतोऽपृच्छतोपि वा। न तस्मै धारयेद्दण्डं राजा धर्मेण धर्मवित्।। | 12-163-12a 12-163-12b 12-163-12c |
क्षत्रियस्य तु बालिश्याद्ब्राह्मणः क्लिश्यते क्षुधा। श्रुतशीले समाज्ञाय वृत्तिमस्य प्रकल्पयेत्।। | 12-163-13a 12-163-13b |
अथैनं परिरक्षेत पिता पुत्रमिवौरसम्। | 12-163-14a |
इष्टिं वैश्वानरीं नित्यं निर्वपेदब्दपर्यये। अविकल्पः पुरा धर्मो धर्मवादैस्तु केवलः।। | 12-163-15a 12-163-15b |
विश्वैर्देवैश्च साध्यैश्च ब्राह्मणैश्च महर्षिभिः। आपत्सु गरणाद्भीतैर्लिङ्गः प्रतिनिधीकृतः।। | 12-163-16a 12-163-16b |
प्रभुः प्रथमकल्पस्य योऽनुकल्पेन वर्तते। स नाप्नोति फलं तस्य प्रेत्य चेह च दुर्मतिः।। | 12-163-17a 12-163-17b |
न ब्राह्मणो वेदयीत किंचिद्राजनि धर्मवित्। अविद्यावेदनाद्विद्यात्स्ववीर्यं वीर्यवत्तरम्। तस्माद्राज्ञः सदा तेजो दुःसहं ब्रह्मवादिनाम्।। | 12-163-18a 12-163-18b 12-163-18c |
मन्ता शास्ता विधाता च ब्राह्मणो देव उच्यते। तस्मिन्नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कामीरयेद्गिरम्।। | 12-163-19a 12-163-19b |
क्षत्रियो बाहुवीर्येण तरेदापदमात्मनः। धनैर्वैश्यश्च शुद्रश्च मन्त्रैर्होमैश्च वै द्विजः।। | 12-163-20a 12-163-20b |
नैव कन्या न युवतिर्नामन्त्रज्ञो न बालिशः। परिवेष्टाऽग्निहोत्रस्य भवेन्नासंस्कृतस्तथा।। | 12-163-21a 12-163-21b |
नरके निपतन्त्येते जुह्वानाः सवनस्य तत्। तस्माद्वैतानकुशलो होता स्याद्वेदपारगः।। | 12-163-22a 12-163-22b |
प्राजापत्यमदत्त्वा च अग्न्याधेयस्य दक्षिणाम्। अनाहिताग्निरिति सं प्रोच्यते धर्मदर्शिभिः।। | 12-163-23a 12-163-23b |
पुण्यान्यन्यानि कुर्वीत श्रद्दधानो जितेन्द्रियः। अनाप्तदक्षिणैर्यज्ञैर्न यजेत कथंचन।। | 12-163-24a 12-163-24b |
प्रजाः पंशूश्च स्वर्गं च हन्ति यज्ञो ह्यदक्षिणः। इन्द्रियाणि यशः कीर्तिभायुश्चाप्यवकृन्तति।। | 12-163-25a 12-163-25b |
उदक्यामासते ये च द्विजाः केचिदनग्नयः। कुलं चाश्रोत्रियं येषां सर्वे ते शूद्रकर्मिणः।। | 12-163-26a 12-163-26b |
उदपानोदके ग्रामे ब्राह्मणो वृपलीयतिः। अपित्वा द्वादश समाः शूद्रकर्मैव गच्छति।। | 12-163-27a 12-163-27b |
अभार्यी शयने विभ्रच्छूद्रं वृद्धं च वै द्विजः। अब्राह्मणं भन्यमानस्तृणेष्वासीत पृष्ठतः। तथा संशुध्यते राजञ्शृणु चात्र वचो मम।। | 12-163-28a 12-163-28b 12-163-28c |
यदेकरात्रेण करोति पापं कृष्णं वर्णं ब्राह्मणः सेवमानः। स्थानासनाभ्यां विहरन्वती स त्रिभिर्वर्षैः शमयेदात्मपापम्।। | 12-163-29a 12-163-29b 12-163-29c 12-163-29d |
न नर्मयुक्तमतृतं हिनस्ति न स्त्रीषु राजन्न विवाहकाले। प्राणात्यये सर्वधनापहारे पञ्चानृतान्याहुरपातकानि।। | 12-163-30a 12-163-30b 12-163-30c 12-163-30d |
श्रद्दधानः शुभां विद्यां हीनादपि समाप्नुयात्। सुवर्णमपि चामेध्यादाददीताविचारयन्।। | 12-163-31a 12-163-31b |
स्त्रीरत्नं दुष्कुलाच्चापि विषादप्यमृतं पिबेत्। अदूष्या हि स्त्रियो रत्नमाप इत्येव धर्मतः।। | 12-163-32a 12-163-32b |
गोब्राह्मणहितार्थं च वर्णानां संकरेषु च। वैश्यो गृह्णीत शस्त्राणि परित्राणार्थमात्मनः।। | 12-163-33a 12-163-33b |
सुरापो ब्रह्महा चैव गुरुतल्पगतस्तथा। अचिरेण महाराज पतितो वै भवत्युत।। | 12-163-34a 12-163-34b |
सुवर्णहरणं स्तैन्यं विप्रस्वं चेति पातकम्। विहारो मद्यपानं च अगम्यागमनं तथा।। | 12-163-35a 12-163-35b |
पतितैः संप्रयोगश्च ब्राह्मणीयोनितस्तथा। अनिर्देश्यानि मन्यन्ते प्राणान्तानीति धारणा।। | 12-163-36a 12-163-36b |
संवत्सरेण पतति पतितेन सहाचरन्। याजनाध्यापनाद्दानान्न तु यानासनाशनात्।। | 12-163-37a 12-163-37b |
एतानि हित्वातोऽन्यानि निर्देश्यानीति धारणा। निर्देश्यकेन विधिना कालेनाव्यसनी भवेत्।। | 12-163-38a 12-163-38b |
अनुत्तीर्य न होतव्यं प्रेतकर्मण्युपाश्रिते। त्रिषु त्वेतेषु पूर्वेषु न कुर्वीत विचारणम्।। | 12-163-39a 12-163-39b |
अमात्यान्वा गुरून्वापि जह्याद्धर्मेण धार्मिकः। प्रायश्चित्तान्यकुर्वाणा नैते कुर्वन्ति संविदम्।। | 12-163-40a 12-163-40b |
अधर्मकारी धर्मेण तपसा हन्ति किल्विषम्। ब्राह्मणायावगुर्येत स्पृष्टे गुरुतरं भवेत्।। | 12-163-41a 12-163-41b |
अस्तेनं स्तेन इत्युक्त्वा द्विगुणं पापमाप्नुयात्। त्रिभागं ब्रह्महत्यायाः कन्यां प्राप्नोति दुष्यति। यस्तु दूषयिता तस्याः शेषं प्राप्नोति पाप्मनः।। | 12-163-42a 12-163-42b 12-163-42c |
ब्राह्मणानवगर्ह्येह स्पृष्ट्वा गुरुतरं भवेत्। वर्षाणां हि शतं पापः प्रतिष्ठां नाधिगच्छति।। | 12-163-43a 12-163-43b |
सहस्रं चैव वर्षाणां निपत्य नरकं वसेत्। तस्मान्नैवावगुर्याद्धि नैव जातु निपातयेत्।। | 12-163-44a 12-163-44b |
शोणितं यावतः पांसून्संगृह्णीयाद्द्विजक्षतात्। तावतीः स समा राजन्नरके प्रतिपद्यते।। | 12-163-45a 12-163-45b |
भ्रूणहाऽऽहवमध्ये तु शुध्यते शस्त्रपाततः। आत्मानं जुहुयादग्नौ समिद्धे तेन शुध्यते।। | 12-163-46a 12-163-46b |
सुरापो वारुणीमुष्णां पीत्वा पापाद्विमुच्यते।। | 12-163-47a |
तया स काये निर्दग्धे मृत्युं वा प्राप्य शुध्यति। लोकांश्च लभते विप्रो नान्यथा लभते हि सः।। | 12-163-48a 12-163-48b |
गुरुतल्पमधिष्ठाय दुरात्मा पापचेतनः। शिलां ज्वलन्तीमासाद्य मृत्युना सोभिशुध्यति।। | 12-163-49a 12-163-49b |
अधवा शिश्नवृषणावादायाञ्जलिना स्वयम्। नैर्ऋतीं दिशमास्थाय निपतेत्सत्वजिह्मगः।। | 12-163-50a 12-163-50b |
ब्राह्मणार्थेऽपि वा प्राणान्संत्यजंस्तेन शुध्यति।। | 12-163-51a |
अश्वमेधेन वाऽपीष्ट्वा अथवा गोसवेन वा। मरुत्सोमेन वा सम्यगिह प्रेत्य च पूज्यते।। | 12-163-52a 12-163-52b |
तथैव द्वादशसमाः कापोतं धर्ममाचरेत्। एककालं चरेद्भैक्षं स्वकर्मोदाहरञ्जने।। | 12-163-53a 12-163-53b |
एवं वा तपसा युक्तो ब्रह्महा सवनी भवेत्। एवं गर्भमविज्ञातमात्रेयीं वा निपातयेत्।। | 12-163-54a 12-163-54b |
द्विगुणा ब्रह्महत्या वै आत्रेयीहिंसने भवेत्। सुरापी नियताहारो ब्रह्मचारी क्षपाचरः।। | 12-163-55a 12-163-55b |
ऊर्ध्वं त्रिभ्योऽपि वर्षेभ्यो यजेताग्निष्टुता परम्। ऋषभैकसहस्रं वा गा दत्त्वा शौचमाप्नुयात्।। | 12-163-56a 12-163-56b |
वैश्यं दत्त्वा तु वर्षे द्वे ऋषभैकशतं च गाः। शूद्रं हत्वाऽब्दमेवैकमृषभं च शतं च गाः।। | 12-163-57a 12-163-57b |
श्ववराहखरान्हत्वा शौद्रमेव व्रतं चरेत्। मार्जारचाषमण्डूकान्काकं व्यालं च मूषिकम्।। | 12-163-58a 12-163-58b |
उक्तः पशुवधे दोषो राजन्प्राणिनिपातनात्। `अनस्थिकेषु गोमूत्रं पानमेकं प्रचक्षते।' प्रायश्चित्तान्यथान्यानि प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः।। | 12-163-59a 12-163-59b 12-163-59c |
तल्पे वाऽन्यस्य चौर्ये च पृथक् संवत्सरं चरेत्। त्रीणि श्रोत्रियभार्यायां परदारे च द्वे स्मृते।। | 12-163-60a 12-163-60b |
काले चतुर्थे भुञ्जानो ब्रह्मचारी व्रती भवेत्। स्थानासनाभ्यां विहरेत्रिरह्नाऽभ्युपयन्नपः।। | 12-163-61a 12-163-61b |
`ऐवमेव चरन्राजंस्तस्मात्पापात्प्रमुच्यते।' एवमेव निराकर्ता यश्चाग्नीनपविध्यति।। | 12-163-62a 12-163-62b |
त्यजत्यकारणे यश्च पितरं मातरं गुरुम्। पतितः स्यात्स कौरव्य यथा धर्मेषु निश्चयः।। | 12-163-63a 12-163-63b |
ग्रासाच्छादनयानं च शयनं ह्यासनं तथा। `ब्रह्मचारी द्विजेभ्यश्च दत्त्वा पापात्प्रमुच्यते।।' | 12-163-64a 12-163-64b |
भार्यायां व्यभिचारिण्यां निरुद्धायां विशेषतः। यत्पुंसः परदारेषु तदेनां चारयेद्व्रतम्। | 12-163-65a 12-163-65b |
श्रेयांसं शयने हित्वा पापीयांसं समृच्छति। श्वभिस्तमर्दयेद्राजा संस्थाने बहुविस्तरे।। | 12-163-66a 12-163-66b |
पुमांसं बन्धयेत्पाशैः शयने तप्त आयसे। अप्यादधीत दारूणि तत्र दह्येत पापकृत।। | 12-163-67a 12-163-67b |
एव दण्डो महाराज स्त्रीणां भर्तृव्यतिक्रमे। संवत्सारोऽभिशस्तस्य दुष्टस्य द्विगुणो भवेत्।। | 12-163-68a 12-163-68b |
द्वे तस्य त्रीणि वर्षाणि चत्वारि सहसेविनः। कुमारः पञ्चवर्षाणि चरेद्भैक्षं मुनिव्रतः।। | 12-163-69a 12-163-69b |
परिवित्तिः परिवेत्ता या चैव परिविद्यते। पाणिग्राहस्त्वधर्मेण सर्वे ते पतिताः स्मृताः।। | 12-163-70a 12-163-70b |
चरेयुः सर्व एवैते वीरहा यद्व्रतं चरेत्। चान्द्रायणं चरेन्मासं कृच्छ्रं वा पापशुद्धये।। | 12-163-71a 12-163-71b |
परिवेत्ता प्रयच्छेता तां स्नुषां परिवित्तये। ज्येष्ठेन त्वभ्यनुज्ञातो यवीयाप्यनन्तरम्। एनसो मोक्षमाप्नोति तौ च सा चैव धर्मतः।। | 12-163-72a 12-163-72b 12-163-72c |
अमानुषीषु गोवर्जमनादिष्टं न दुष्यति। अधिष्ठातारमत्तारं पशूनां पुरुषं विदुः।। | 12-163-73a 12-163-73b |
परिधायोर्ध्ववालं तु पात्रमादाय मृन्मयम्। चरेत्सप्तगृहान्भैक्षं स्वकर्म परिकीर्तयन्।। | 12-163-74a 12-163-74b |
तथैव लब्धभोजी स्याद्द्वादशाहात्स शुध्यति। चरेत्संवत्सरं चापि तद्व्रतं येन कृन्तति।। | 12-163-75a 12-163-75b |
भवेत्तु मानुषेष्वेवं प्रायश्चिमनुत्तमम्। दानं वा दानशक्तेषु सवेर्मतत्प्रकल्पयेत्।। | 12-163-76a 12-163-76b |
अनास्तिकेषु गोमात्रं दानमेकं प्रचक्षते। श्ववराहमनुष्याणां कुक्कुटस्य खरस्य च।। | 12-163-77a 12-163-77b |
मांसं मूत्रं पुरीषं च प्राश्य संस्कारमर्हति। ब्राह्मणस्तु सुरापस्य गन्धमादाय सोमपाः।। | 12-163-78a 12-163-78b |
अपख्यहं पिबेदुष्णाः संयतात्मा जितेन्द्रियः। अपः पीत्वा तु स पुनर्वायुभक्षो भवेन्त्र्यहम्।। | 12-163-79a 12-163-79b |
एवमेतत्समुद्दिष्टं प्रायश्चित्तिषेवणम्। ब्राह्मणस्य विशेषेण यदज्ञानेन जायते।। | 12-163-80a 12-163-80b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि त्रिषष्ट्यधिकशततमोऽधअयायः।। 163।। |
12-163-2 निःश्वो निर्धनः।। 12-163-3 अन्यत्र उक्तेभ्योऽन्यत्रापि ब्राह्मणेषु अन्येभ्योऽब्राह्मणेभ्यः कृतान्न पक्वान्नं न विधीयते। तेभ्योऽप्यकृतान्नं देयमिति भावः।। 12-163-6 ब्राह्मणस्य यज्ञः एकेनांशेन स्त्र्याद्यङ्गनासेन प्रतिरुद्धः स्यात्तर्हितस्य वैश्यस्य तद्धनं एवर्थिवो यज्ञार्थं हरेदिति द्वितीयेन संबन्धः। दोषेणैकेन यज्वन इति ध. पाठः।। 12-163-11 भक्तानि षडनश्नतः ध्यहमुपोषितस्य।। 12-163-13 बालिश्यादित्यनेन क्षत्रियस्यैव स दोष इत्युक्तम्।। 12-163-21 परिवेष्टा आहुतिप्रक्षेप्ता। कन्यायुवत्योः स्मार्ताग्निहोमे स्वयं पल्यणि क पुत्रः कुमार्थन्तवासी वेत्याश्वलायनवचनादधिकृतयोरप्रति प्रसक्तेर्निषेध उक्तः।। 12-163-26 आसते मिथुनीभवन्ति।। 12-163-27 उदपानः कूपस्तदेकोदके एककूपोपजीव्येत्यर्थः।। 12-163-28 अभार्यामपरिणीतां शयने बिभ्रद्ब्राह्मणस्तथा शूद्रं वृद्धं महामिति गन्यमानस्तश्राऽब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं वा वृद्धं मन्यमानस्तृणेषु यद्यासीतोपविष्ठः स यथा संशुध्येत तथा तथा शृण्विशि सार्धार्थः।। 12-163-29 विहरन् करोतीति संबन्धः।। 12-163-36 अनिर्देश्यानि बुद्धिपूर्वकानि चेदत्र प्रायश्चित्तं नास्तीत्यर्थः। किं तर्हि मरणान्तमेव प्रायश्चित्तमिति धारणानिश्चयः। ब्राह्मणीयोनितः। अब्राह्मणस्य ब्राह्मणीगमनादित्यर्थः।। 12-163-37 याजनादित्रयेण सद्यः पतति नतु यानादिना। तेन तु वर्षेण पततीत्यर्थः।। 12-163-38 एतानि पञ्चमहापापानि। अन्यानि तु निर्देश्यानि सप्रायश्चित्तानि। अव्यसनी पुनः पापरुचिर्न स्यात्।। 12-163-39 पूर्वेषु त्रिषु सुरापब्रह्मघ्नगुरुतल्पगेषु तेषु मृतेषु सपिण्डानामाशौचाभावात्तेषां प्रेतकर्मनिषेधाच्चेति भावः।। 12-163-43 अवगर्ह्य विनिन्द्य। स्पृष्ट्वाऽर्थचन्द्रादिनापनोद्य। गुरुतरं शेषादयधिकं पातकं तस्य पलम्।। 12-163-46 आहवमध्ये गोब्राह्मणरक्षार्थं संग्रामे शस्त्रेण हतश्चेद्ब्राह्महा शुध्यते।। 12-163-54 सवनीत्रिषवणस्रायी। आत्रेयीं प्राप्तगर्भां स्रियम्।। 12-163-60 पृथक् एकैकस्योपपातकस्य प्रायश्चित्तं संवत्सरं चरेत्।। 12-163-68 अभिशस्तस्य प्रायश्चित्तं सद्योऽकुर्वतः।। 12-163-69 तस्य पतितस्य सहसेविनः संसर्गिणिः।। 12-163-72 परिवेत्ता कनिष्ठः परिवित्तये ज्येष्ठाय भार्यां स्रुषात्वेन प्रयच्छेत्। एतां स्वेनाभुक्तां तवैवेयं स्नुषेति मानपूर्वकं समर्पयेत्। तदा ज्येष्ठानुज्ञातो यवीयानन्तरं तां स्वीकुर्यात्। पाणिग्राहेण स्वदोषे क्षमापिते त्रयोऽपि पापान्मुच्यन्त इति सार्धश्लोयार्थः।। 12-163-73 अमानुषीषु पशुजातिषु।। 12-163-74 ऊर्ध्ववालं चमरीपुच्छं परिधाय रङ्गेऽव्रतरन् ब्राह्मण एवैतत्प्रायश्चित्तं कुर्यात्।। 12-163-75 येन परिधानेन हेतुभूतेन ऊर्ध्वंवालं यः कृन्तति छिनत्ति स उक्तं व्रतं संवत्सरं चरेत्।। 12-163-77 अनास्तिकेषु आस्तिकेषु।।
शांतिपर्व-162 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-164 |