महाभारतम्-12-शांतिपर्व-353
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श्वेतद्वीपाद्धदर्याश्रममुपागतस्य नारदस्य श्रीनारायणेन संवादः।। 1।।
शौनक उवाच। | 12-353-1x |
सौते सुमहदाख्यानं भवता परिकीर्तितम्। यच्छ्रुत्वा मुनयः सर्वे विस्मयं परमं गताः।। | 12-353-1a 12-353-1b |
सर्वाश्रमाभिगमनं सर्वतीर्थावगाहनम्। न तथा फलदं सौते नारायणकथा यथा।। | 12-353-2a 12-353-2b |
पाविताङ्गाः स्म संवृत्ताः श्रुत्वेमामादितः कथाम्। नारायणाश्रयां पुण्यां सर्वपापप्रमोचनीम्।। | 12-353-3a 12-353-3b |
दुर्दर्शो भगवान्देवः सर्वलोकनमस्कृतः। सब्रह्मकैः सुरैः कृत्स्नैरन्यैश्चैव महर्षिभिः।। | 12-353-4a 12-353-4b |
दृष्टवान्नारदो यत्तु देवं नारायणं हरिम्। नूनमेनद्ध्यनुमतं तस्य देवस्य सूतज।। | 12-353-5a 12-353-5b |
यदृष्टवाञ्जगन्नाथमनिरुद्दतनौ स्थितम्। यत्प्राद्रवत्पुनर्भूयो नारदो देवसत्तमौ। नरनारायणौ द्रष्टुं कारणं तद्ब्रवीहि मे।। | 12-353-6a 12-353-6b 12-353-6c |
सौतिरुवाच। | 12-353-7x |
तस्मिन्यज्ञे वर्तमाने राज्ञः पारिक्षितस्य वै। कर्मान्तरेषु विधिवद्वर्तमानेषु शौनक।। | 12-353-7a 12-353-7b |
कृष्णद्वैपायनं व्यासमृषिं वेदनिधिं प्रभुम्। परिपप्रच्छ राजेन्द्रः पितामहपितामहम्।। | 12-353-8a 12-353-8b |
जनमेजय उवाच। | 12-353-9x |
श्वेतद्वीपान्निवृत्तेन नारदेन सुरर्षिणा। ध्यायता भगवद्वाक्यं चेष्टितं किमतः परम्।। | 12-353-9a 12-353-9b |
बदर्याश्रममागम्य समागम्य च तावृषी। कियन्तं कालमवसत्कां कथां पृष्टवांश्च सः।। | 12-353-10a 12-353-10b |
इदं शतसहस्राद्धि भारताख्यानविस्तरात्। आमन्थ्य मतिमन्थेन ज्ञानोदधिमनुत्तमम्।। | 12-353-11a 12-353-11b |
नवनीतं यथा दध्नो मलयाच्चन्दनं यथा। अरण्यकं च वेदेभ्य ओषधीभ्योऽमृतं यथा। समुद्धृतमिदं ब्रह्मन्कथामृतमिदं तथा।। | 12-353-12a 12-353-12b 12-353-12c |
तपोनिधे त्वयोक्तं हि नारायणकथाश्रयम्। स ईशो भगवान्देवः सर्वभूतात्मभावनः।। | 12-353-13a 12-353-13b |
अहो नारायणं तेजो दुर्दर्शं द्विजसत्तम। यत्राविशन्ति कल्पान्ते सर्वे ब्रह्मादयः सुराः।। | 12-353-14a 12-353-14b |
ऋषयश्च सगन्धर्वा यच्च किंचिच्चराचरम्। न ततोऽस्ति परं मन्ये पावतं दिवि चेह च।। | 12-353-15a 12-353-15b |
सर्वाश्रमाभिगमनं सर्वतीर्थावगाहनम्। न तथा फलदं चापि नारायणकथा यथा।। | 12-353-16a 12-353-16b |
सर्वथा पाविताः स्मेह श्रुत्वेमामादितः कथाम्। हरेर्विश्वेश्वरस्येह सर्वपापप्रणाशनीम्।। | 12-353-17a 12-353-17b |
न चित्रं कृतवांस्तत्र यदार्यो मे धनंजयः। वासुदेवसहायो यः प्राप्तवाञ्जयमुत्तमम्।। | 12-353-18a 12-353-18b |
न चास्य किंचिदप्राप्यं मन्ये लोकेष्वपि त्रिषु। त्रैलोक्यनाथो विष्णुः स यथाऽसीत्साह्यकृत्सखा।। | 12-353-19a 12-353-19b |
धन्याश्च सर्व एवासन्ब्रह्मंस्ते मम पूर्वजाः। हिताय श्रेयसे चैव येषामासीज्जनार्दनः।। | 12-353-20a 12-353-20b |
तपसाऽप्यथ दुर्दर्शो भगवाँल्लोकपूजितः। यं दृष्टवन्तस्ते साक्षाच्छ्रीवत्साङ्कविभूषणम्।। | 12-353-21a 12-353-21b |
तेभ्यो धन्यतरश्चैव नारदः परमेष्ठिजः। `दृष्टवान्यो हरिं देवं नारायणमजं विभुम्।।' | 12-353-22a 12-353-22b |
न चाल्पतेजसमृषिं वेद्मि नारदमव्ययम्। श्वेतद्वीपं समासाद्य येन दृष्टः स्वयं हरिः।। | 12-353-23a 12-353-23b |
देवप्रसादानुगतं व्यक्तं तत्तस्य दर्शनम्। यद्दृष्टवांस्तदा देवमनिरूद्धतनौ स्थितम्।। | 12-353-24a 12-353-24b |
बदरीमाश्रमं यत्तु नारदः प्राद्रवत्पुनः। नरनारायणौ द्रष्टुं किं नु तत्कारणं मुने।। | 12-353-25a 12-353-25b |
श्वेतद्वीपान्निवृत्तश्च नारदः परमेष्ठिजः। बदरीमाश्रमं प्राप्य समागम्य च तावृषी। कियन्तं कालमवसत्प्रश्नान्कान्पृष्टवांश्च ह।। | 12-353-26a 12-353-26b 12-353-26c |
श्वेतद्वीपादुपावृत्ते तस्मिन्वा सुमहात्मनि। किमब्रूतां महात्मानौ नरनारायणावृषी। तदेतन्मे यथातत्त्वं सर्वमाख्यातुमर्हसि।। | 12-353-27a 12-353-27b 12-353-27c |
`सौतिरुवाच। | 12-353-28x |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा कृष्णद्वैपायनस्तदा। शशास शिष्यमासीनं वैशंपायनमन्तिके। तदस्मै सर्वमाचक्ष्व यन्मत्तः श्रुतवानसि।। | 12-353-28a 12-353-28b 12-353-28c |
गुरोर्वचनमाज्ञाय स तु विप्रर्षभस्तदा। आचचक्षे ततः सर्वमितिहासं पुरातनम्।।' | 12-353-29a 12-353-29b |
वैशंपायन उवाच। | 12-353-30x |
नमो भगवते तस्मै व्यासायामिततेजसे। यस्य प्रसादाद्वक्ष्यामि नारायणकथामिमाम्।। | 12-353-30a 12-353-30b |
प्राप्य श्वेतं महाद्वीपं दृष्ट्वा च हरिमव्ययम्। निवृत्तो नारदो राजस्तरसा मेरुमागमत्। हृदयेनोद्वहन्भारं यदुक्तं परमात्मना।। | 12-353-31a 12-353-31b 12-353-31c |
पश्चादस्याभवद्राजन्नात्मनः साध्वसं महत्। यद्गत्वा दूरमध्वानं क्षेमी पुनरिहागतः।। | 12-353-32a 12-353-32b |
मेरोः प्रचक्राम ततः पर्वतं गन्धमादनम्। निपपात च खात्तूर्णं विशालां बदरीमनु।। | 12-353-33a 12-353-33b |
ततः स ददृशे देवौ पुराणावृषिसत्तमौ। तपश्चरन्तौ सुमहदात्मनिष्ठौ महाव्रतौ।। | 12-353-34a 12-353-34b |
तेजसाऽभ्यधिकौ सूर्यात्सर्वलोकविरोचनात्। श्रीवत्सलक्षणौ पूज्यौ जटामण्डलधारिणौ।। | 12-353-35a 12-353-35b |
जालपादभुजौ तौ तु पादयोश्चक्रलक्षणौ। व्यूढोरस्कौ दीर्घभुजौ तथा मुष्कचतुष्किणौ।। | 12-353-36a 12-353-36b |
षष्टिदन्तावष्टदंष्ट्रौ मेघौघसदृशस्वनौ। स्वास्यौ पृथुललाटौ च सुभ्रूसुहनुनासिकौ। आतपत्रेण सदृशे शिरसी देवयोस्तयोः।। | 12-353-37a 12-353-37b 12-353-37c |
एवं लक्षणसंपन्नौ महापुरुषसंज्ञितौ। तौ दृष्ट्वा नारदो हृष्टस्ताभ्यां च प्रतिपूजितः।। | 12-353-38a 12-353-38b |
स्वागतेनाभिभाष्याथ पृष्टश्चानामयं तथा। बभूवान्तर्गतमतिर्निरीक्ष्य पुरुषोत्तमौ।। | 12-353-39a 12-353-39b |
सदोगतास्तत्र ये वै सर्वभूतनमस्कृताः। श्वेतद्वीपे मया दृष्टास्तादृशावृषिसत्तमौ।। | 12-353-40a 12-353-40b |
इति संचिन्त्य मनसा कृत्वा चाभिप्रदक्षिणाम्। स चोपविविशे तत्र पीठे कुशमये शुभे।। | 12-353-41a 12-353-41b |
ततस्तौ तपसां वासौ यशसां तेजसामपि। ऋषी शमदमोपेतौ कृत्वा पौर्वाह्णिकं विधिम्।। | 12-353-42a 12-353-42b |
यश्चान्नारदमव्यग्रौ पाद्यार्ध्याभ्यामथार्चतः। पीठयोश्चोपविष्टौ तौ कृतातिथ्याह्निकौ नृपौ।। | 12-353-43a 12-353-43b |
तेषु तत्रोपविष्टेषु स देशोऽभिव्यराजत। भ्राज्याहुतिमहाञ्वालैर्यज्ञवाटो यथाऽग्निभिः।। | 12-353-44a 12-353-44b |
अथ नारायणस्तत्र नारदं वाक्यमब्रवीत्। सुखोपविष्टं विश्रान्तं कृतातिथ्यं सुखस्थितम्।। | 12-353-45a 12-353-45b |
अपीदानीं स भगवान्परमात्मा सनातनः। श्वेतद्वीपे त्वया दृष्ट आवयोः प्रकृतिः परा।। | 12-353-46a 12-353-46b |
नारद उवाच। | 12-353-47x |
दृष्टो मे पुरुषः श्रीमान्विश्वरूपधरोऽव्ययः। सर्वे लोका हि तत्रस्थास्तथा देवाः सहर्षिभिः।। | 12-353-47a 12-353-47b |
अद्यापि चैनं पश्यामि युवां पश्यन्सनातनौ।। | 12-353-48a |
यैर्लक्षणैरुपेतः स हरिरव्यरक्तरूपधृत्। तैर्लक्षणैरुपेतौ हि व्यक्तरूपधरौ युवाम्।। | 12-353-49a 12-353-49b |
दृष्टौ युवां मया तत्र तस्य देवस्य पार्श्वतः। इहैव चागतोऽस्म्यद्य विसृष्टः परमात्मना।। | 12-353-50a 12-353-50b |
को हि नाम भवेत्तस्य तेजसा यशसा श्रिया। सदृशस्त्रिषु लोकेषु ऋते धर्मात्मजौ युवाम्।। | 12-353-51a 12-353-51b |
तेन मे कथितः कृत्स्नो धर्मः क्षेत्रज्ञसंज्ञितः। प्रादुर्भावाश्च कथिता भविष्या इह ये यथा।। | 12-353-52a 12-353-52b |
तत्र ये पुरुषाः श्वेताः पञ्चेन्द्रियविवर्जिताः। प्रतिबुद्धाश्च ते सर्वे भक्ताश्च पुरुषोत्तमम्।। | 12-353-53a 12-353-53b |
तेऽर्चयन्ति सदा देवं तैः सार्धं रमते च सः। प्रियभक्तो हि भगवान्परमात्मा द्विजप्रियः।। | 12-353-54a 12-353-54b |
रमते सोऽर्च्यमानो हि सदा भागवतप्रियः। विश्वभुक्सर्वगो देवो माधवो भक्तवत्सलः।। | 12-353-55a 12-353-55b |
स कर्ता कारणं चैव कार्यं चातिबलद्युतिः। हेतुश्चाज्ञाविधानं च तत्त्वं चैव महायशाः।। | 12-353-56a 12-353-56b |
तपसा योज्य सोत्मानं श्वेतद्वीपात्परं हि यत्। तेज इत्यभिविख्यातं स्वयं भासावभासितम्।। | 12-353-57a 12-353-57b |
शान्तिः सा त्रिषु लोकेषु विहिता भावितात्मना। एतया शुभया बुद्ध्या नैष्ठिकं व्रतमास्थितः।। | 12-353-58a 12-353-58b |
न तत्र सूर्यस्तपति न सोमोऽभिविराजते। न वायुर्वाति देवेशे तपश्चरति दुश्चरम्।। | 12-353-59a 12-353-59b |
वेदीमष्टनलोत्सेधां भूमावास्थाय विश्वकृत्। एकपादस्थितो देव ऊर्ध्वबाहुरुदङ्भुखः।। | 12-353-60a 12-353-60b |
साङ्गानावर्तयन्वेदांस्तपस्तेपे सुदुश्चरम्। यद्ब्रह्म ऋषयश्चैव स्वयं पशुपतिश्च यत्।। | 12-353-61a 12-353-61b |
शेषाश्च विबुधश्रेष्ठा दैत्यदानवराक्षसाः। नागाः सुपर्णा गन्धर्वाः सिद्धा राजर्पयश्च ते।। | 12-353-62a 12-353-62b |
हव्यं कव्यं च सततं विधियुक्तं प्रयुञ्जते। कृत्स्नं तु तस्य देवस्य चरणावुपतिष्ठतः।। | 12-353-63a 12-353-63b |
याः क्रियाः संप्रयुक्ताश्च एकान्तगतबुद्धिभिः। ताः सर्वाः शिरसा देवः प्रतिगृह्णाति वै स्वयं।। | 12-353-64a 12-353-64b |
न तस्यान्यः प्रियतरः प्रतिबुद्धैर्महात्मभिः। विद्यते त्रिषु लोकेषु ततोऽस्यैकान्तिकं गतः।। | 12-353-65a 12-353-65b |
इह चैवागतोऽस्म्यद्य विसृष्टः परमात्मना। एवं मे भगवान्देवः स्वयमाख्यातवान्हरिः।। | 12-353-66a 12-353-66b |
आसिष्ये तत्परो भूत्वा युवाभ्यां सह नित्यशः।। | 12-353-67a |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि नारायणीये त्रिपञ्चाशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 353।। |
12-353-18 केशवेनाभिसंगुप्तः प्राप्तवानाहये जयमिति ट. ध. पाठः।। 12-353-26 काः कथाः पृष्टवांश्च स इति ध. पाठः।। 12-353-31 हृदयेनोद्वहन्भावमिति ध. पाठः।। 12-353-36 जालपादा हंसास्तदङ्कितभुजौ हंसपादाङ्कितभुजौ। चक्रलक्षणौ चक्राङ्कितपादौ। जानुपातभुजान्ताविति ट. पाठः। रक्तपादभुजान्ताविति ध. पाठः।। 12-353-40 समागतौ हि तत्रैतौ सर्वभूतनमस्कृतौ। श्वेतद्वीपे मया दृष्टौ तादृशाविह सत्तमाविति थ. ध. पाठः।। 12-353-57 श्वेत इत्यभिविख्यातमिति ध. पाठः।। 12-353-58 लोकेषु सिद्धानभावितात्मनामिति च. ध. पाठः।। 12-353-60 नलवत्पर्वयुकत्त्वान्नलशब्देनाङ्गुलं ग्राह्मम्।। 12-353-64 एकान्तगतबुद्धिरव्यभिचरितबुद्धिभिः।। 12-353-65 ततोस्म्येकान्तितां गत इति थ. ध. पाठः।।
शांतिपर्व-352 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-354 |