महाभारतम्-12-शांतिपर्व-242
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति ज्ञानस्य श्रेयःसाधनतापरशुकसंबोध्यकव्यासवाक्यानुवादः।। 1।।
व्यास उवाच। | 12-242-1x |
अथ चेद्रोचयेदेतदुह्यते मनसा तथा। उन्मज्जंश्च निमज्जंश्च ज्ञानवान्प्लववान्भवेत्।। | 12-242-1a 12-242-1b |
प्रज्ञया निर्मितैर्धीरास्तारयन्त्यबुधान्प्लवैः। नाबुधास्तारयन्त्यन्यानात्मानं वा कथंचन।। | 12-242-2a 12-242-2b |
छिन्नदोषो मुनिर्योगयुक्तो युञ्जीत द्वादश। दशकर्मसुखानर्थानुपायापायनिष्क्रियः।। | 12-242-3a 12-242-3b |
चक्षुराचारसंग्राहैर्मनसा दर्शनेन च। यच्छेद्वाङ्भनसी बुद्ध्या य इच्छेज्ज्ञानमुत्तमम्।। | 12-242-4a 12-242-4b |
ज्ञानेन यच्छेदात्मानं य इच्छेच्छान्तिमात्मनः। एतेषां चेदनुद्रष्टा पुरुषोऽपि सुदारुणः।। | 12-242-5a 12-242-5b |
यदि वा सर्ववेदज्ञो यदि वाऽप्यनृचो द्विजः। यदि वा धार्मिको यज्वा यदि वा पापकृत्तमः।। | 12-242-6a 12-242-6b |
यदि वा पुरुषव्याघ्रो यदि वैक्लव्यधारणः। तरत्येवं महादुर्गं जरामरणसागरम्।। | 12-242-7a 12-242-7b |
एवं ह्येतेन योगेन युञ्जानो ह्येवमन्ततः। अपि जिज्ञासमानोऽपि शब्दब्रह्माऽतिवर्तते।। | 12-242-8a 12-242-8b |
धर्मोपस्थो ह्रीवरूथ उपायापायकूवरः। अपानाक्षः प्राणयुगः प्रज्ञायुर्जीववन्धनः।। | 12-242-9a 12-242-9b |
चेतनाबन्धुरश्चारुश्चाचारग्रहनेमिमान्। दर्शनस्पर्शनवहो घ्राणश्रवणवाहनः।। | 12-242-10a 12-242-10b |
प्रज्ञानाभिः सर्वतन्त्रप्रतोदो ज्ञानसारथिः। क्षेत्रज्ञाधिष्ठितो धीरः श्रद्धादमपुरः सरः।। | 12-242-11a 12-242-11b |
त्यागरश्म्यनुगः क्षेम्यः शौचगो ध्यानगोतरः। जीवयुक्तो रथो दिव्यो ब्रह्मलोके धिराजते।। | 12-242-12a 12-242-12b |
अथ संत्वरमाणस्य रथमेवं युयुक्षतः। अक्षरं गन्तुमनसो विधिं वक्ष्यामि शीघ्रगम्।। | 12-242-13a 12-242-13b |
सप्त यो धारणाः कृत्स्ना वाग्यतः प्रतिपद्यते। पृष्ठतः पार्श्वतश्चान्यास्तावत्यस्ताः प्रधारणाः।। | 12-242-14a 12-242-14b |
क्रमशः पार्थिवं यच्च वायव्यं खं तथा पयः। ज्योतिषो यत्तदैश्वर्यमहंकारस्य बुद्धितः। अव्यक्तस्य तथैश्वर्यं क्रमशः प्रतिपद्यते।। | 12-242-15a 12-242-15b 12-242-15c |
विक्रमाश्चापि यस्यैते तथा युङ्क्ते स योगतः। तथाऽस्य योगयुक्तस्य सिद्धिमात्मनि पश्यतः।। | 12-242-16a 12-242-16b |
निर्मुच्यमानः सूक्ष्मत्वाद्रूपाणीमानि पश्यतः। शैशिरस्तु यथा धूमः सूक्ष्मः संश्रयते नभः।। | 12-242-17a 12-242-17b |
तथा देहाद्विमुक्तस्य पूर्वरूपं भवत्युत। अथ धूमस्य विरमेद्द्वितीयं रूपदर्शनम्।। | 12-242-18a 12-242-18b |
जलरूपमिवाकाशे तत्रैवात्मनि पश्यति। अपां व्यतिक्रमे चास्य वह्निरूपं प्रकाशते।। | 12-242-19a 12-242-19b |
तस्मिन्नुपरते चास्य वायव्यं सूक्ष्ममव्ययम्। रूपं प्रकाशते तस्य पीतवस्त्रवदव्ययम्।। | 12-242-20a 12-242-20b |
तस्मिन्नुपरते रुपमाकाशस्य प्रकाशते। तस्मिन्नुपरते चास्य बुद्धिरूपं प्रकाशते। ऊर्णारूपसवर्णस्य तस्य रूपं प्रकाशते।। | 12-242-21a 12-242-21b 12-242-21c |
अथ श्वेतां गतिं गत्वा सोहङ्कारे प्रकाशते। सुशुक्लं चेतसः सौक्ष्म्यमप्युक्तं ब्राह्मणस्य वै।। | 12-242-22a 12-242-22b |
एतेष्वपि हि जातेषु फलजातानि मे शृणु। जातस्य पार्थिवैश्वर्यैः सृष्टिरिष्टा विधीयते।। | 12-242-23a 12-242-23b |
प्रजापतिरिवाक्षोभ्यः शरीरात्सृजते प्रजाः। अङ्गुल्यङ्गुष्ठमात्रेण हस्तपादेन वा तथा।। | 12-242-24a 12-242-24b |
पृथिवीं कम्पयत्येको गुणो वायोरिति श्रुतिः। आकाशभूतश्चाकाशे सवर्णत्वात्प्रकाशते। वर्णतो गृह्यते चाप्सु नापः पिबति चाशया।। | 12-242-25a 12-242-25b 12-242-25c |
न चास्य तेजसां रूपं दृश्यते शाम्यते तथा। अहंकारेऽस्य विजिते पञ्चैते स्युर्वशानुगाः।। | 12-242-26a 12-242-26b |
षण्णामात्मनि बुद्धौ च जितायां प्रभवत्यथ। निर्दोषा प्रतिभा ह्येनं कृत्स्ना समभिवर्तते।। | 12-242-27a 12-242-27b |
तथैव व्यक्तमात्मानमव्यक्तं प्रतिपद्यते। यतो निःसरते लोको भवति व्यक्तसंज्ञकः।। | 12-242-28a 12-242-28b |
तत्राव्यक्तमयीं विद्यां शृणु त्वं विस्तरेण मे। तथा व्यक्तमयं चैव संख्यापूर्वं निबोध मे।। | 12-242-29a 12-242-29b |
पञ्चविंसतितत्त्वानि तुल्यान्युभयतः समम्। योगे साङ्ख्येऽपि च तथा विशेषं तत्र मे शृणु।। | 12-242-30a 12-242-30b |
प्रोक्तं तद्व्यक्तमित्येव जायते वर्धते च यत्। जीर्यते म्रियते चैव चतुर्भिर्लक्षणैर्युतम्।। | 12-242-31a 12-242-31b |
विपरीतमतो यत्तु तदव्यक्तमुदाहृतम्। द्वावात्मानौ च वेदेषु सिद्धान्तेष्वप्युदाहृतौ।। | 12-242-32a 12-242-32b |
चतुर्लक्षणजं त्वाद्यं चतुर्वर्गं प्रचक्षते। व्यक्तमव्यक्तजं चैव तथा बुद्धिरथेतरत्।। सत्वं क्षेत्रज्ञ इत्येतद्द्वयमव्यक्तदर्शनम्।। | 12-242-33a 12-242-33b 12-242-33c |
द्वावात्मानौ च वेदेषु विषयेष्वनुरज्यतः। विषयात्प्रतिसंहारः साङ्ख्यानां विद्धि लक्षणम्।। | 12-242-34a 12-242-34b |
निर्ममश्चानहंकारो निर्द्वन्द्वश्छिन्नसंशयः। नैव क्रुध्यति न द्वेष्टि नानृता भाषते गिरः।। | 12-242-35a 12-242-35b |
आक्रुष्टस्ताडितश्चैव मैत्रीयं ध्याति नाशुभम्। वाग्दण्डकर्ममनसां त्रयाणां च निवर्तकः।। | 12-242-36a 12-242-36b |
समः सर्वेषु भूतेषु ब्रह्माणमभिवर्तते। नैवेच्छति न चानिच्छो यात्रामात्रव्यवस्थितः।। | 12-242-37a 12-242-37b |
अलोलुपोऽव्यथो दान्तो नाकृतिर्न निराकृतिः। नास्येन्द्रियमनेकाग्रं नाविक्षिप्तमनोरथः।। | 12-242-38a 12-242-38b |
सर्वभूतसदृङ्भैत्रः समलोष्टाश्मकाञ्चनः। तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।। | 12-242-39a 12-242-39b |
अस्पृहः सर्वकामेभ्यो ब्रह्मचर्यदृढव्रतः। अहिंस्रः सर्वभूतानामीदृक्साङ्ख्यो विमुच्यते।। | 12-242-40a 12-242-40b |
यथा योगाद्विमुच्यन्ते कारणैर्यैर्निबोध तत्। योगैश्वर्यमतिक्रान्तो योऽतिक्रामति मुच्यते।। | 12-242-41a 12-242-41b |
इत्येषा भावजा बुद्धिः कथिता ते न संशयः। एवं भवति निर्द्वन्द्वो ब्रह्माणं चाधिगच्छति।। | 12-242-42a 12-242-42b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि द्विचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 242।। |
12-242-1 उह्येत स्रोतसा यथेति झ. पाठः।। 12-242-3 देशकर्मानुरागार्थानुपायेति झ. पाठः।। 12-242-4 चक्षुराहारसंहारैरिति झ. पाठः। यच्छेद्वाचं मनो बुद्ध्येति थ. पाठः।। 12-242-12 त्यागसूक्ष्मानुग इति झ. ध. पाठः।। 12-242-17 निर्मथ्यमानः सूक्ष्मात्मा रूपाण्येतानि दर्शयेत् इति ट. थ. पाठः।। 12-242-25 वर्णतो गृह्यते चापि कामात्पिबति चाशयानिति झ. पाठः।। 12-242-36 वाङ्भनः कायदण्डानामिति ट. थ. पाठः।।
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