महाभारतम्-12-शांतिपर्व-034
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व्यासेन युधिष्ठिरंप्रति पापानां प्रायश्चित्तादिकथनम्।। 1।।
व्यास उवाच। | 12-34-1x |
तपसा कर्मणा चैव प्रदानेन च भारत। पुनाति पापं पुरुषः पूतश्चेन्न प्रवर्तते।। | 12-34-1a 12-34-1b |
एककालं तु भुञ्जानश्चरन्भैक्षं स्वकर्मकृत्। कपालपाणिः खट्वाङ्गी ब्रह्मचारी सदोत्थितः।। | 12-34-2a 12-34-2b |
अनसूयुरधः शायी कर्म लोके प्रकाशयन्। पूर्णैर्द्वादशभिर्वर्षैर्ब्रह्महा विप्रमुच्यते।। | 12-34-3a 12-34-3b |
लक्ष्यः शस्त्रभृतां वा स्याद्विदुषामिच्छयाऽऽत्मनः। प्रास्येदात्मानमग्नौ वा समिद्धे त्रिरवाक्शिराः।। | 12-34-4a 12-34-4b |
जपन्वाऽन्यतमं वेदं योजनानां शतं व्रजेत्। सर्वस्वं वा वेदविदे ब्राह्मणायोपपादयेत्।। | 12-34-5a 12-34-5b |
धनं वा जीवनायालं गृहं वा सपरिच्छदम्। मुच्यते ब्रह्महत्याया गोप्ता गोब्राह्मणस्य च।। | 12-34-6a 12-34-6b |
षङ्गिर्वर्षैः कृच्छ्रभोजी ब्रह्महा पूयते नरः। मासेमासे समश्नंस्तु त्रिभिर्वर्षैः प्रमुच्यते।। | 12-34-7a 12-34-7b |
संवत्सरेण मासाशी पूयते नात्र संशयः। तथैवोपवसन्राजन्स्वल्पेनापि प्रपूयते।। | 12-34-8a 12-34-8b |
क्रतुना चाश्वमेधेन पूयते नात्र संशयः। ये चाप्यवभृथस्नाताः केचिदेवंविधा नराः। ते सर्वे धूतपाप्मानो भवन्तीति परा श्रुतिः।। | 12-34-9a 12-34-9b 12-34-9c |
ब्राह्मणार्थे हतो युद्धे मुच्यते ब्रह्महत्यया।। | 12-34-10a |
गवां शतसहस्रं तु पात्रेभ्यः प्रतिपादयेत्। ब्रह्महा विप्रमुच्येत सर्वपापेभ्य एव च।। | 12-34-11a 12-34-11b |
कपिलानां सहस्राणि यो दद्यात्पञ्चविंशतिम्। दोग्ध्रीणां स च पापेभ्यः सर्वेभ्यो विप्रमुच्यते।। | 12-34-12a 12-34-12b |
गोसहस्रं सवत्सानां दोग्ध्रीणां प्राणसंशये। साधुभ्यो वै दरिद्रेभ्यो दत्त्वा मुच्येत किल्विषात्।। | 12-34-13a 12-34-13b |
शतं वै यस्तु काम्भोजान्ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छति। नियतेभ्यो महीपाल स च पापात्प्रमुच्यते।। | 12-34-14a 12-34-14b |
मनोरथं तु यो दद्यादेकस्मा अपि भारत। न कीर्तयेत दत्त्वा यः स च पापात्प्रमुच्यते।। | 12-34-15a 12-34-15b |
सुरापानं सकृत्कृत्वा योऽग्निवर्णां सुरां पिबेत्। स पावयत्यथात्मानमिह लोके परत्र च।। | 12-34-16a 12-34-16b |
मरुप्रपातं प्रपतञ्ज्वलनं वा समाविशन्। महाप्रस्थानमातिष्ठन्मुच्यते सर्वकिल्बिषैः।। | 12-34-17a 12-34-17b |
बृहस्पतिसवेनेष्ट्वा सुरापो ब्राह्मणः पुनः। समितिं ब्राह्मणो गच्छेदिति वै ब्रह्मणः श्रुतिः।। | 12-34-18a 12-34-18b |
भूमिप्रदानं कुर्याद्यः सुरां पीत्वा विमत्सरः। पुनर्न च पिबेद्राजन्संस्कृतः स च शुध्यति।। | 12-34-19a 12-34-19b |
गुरुतल्पी शिलां तप्तामायसीमभिसंविशेत्। अवकृत्यात्मनः शेफं प्रव्रजेदूर्ध्वदर्शनः।। | 12-34-20a 12-34-20b |
शरीरस्य विमोक्षेण मुच्यते कर्मणोऽशुभात्। कर्मभ्यो विप्रमुच्यन्ते यताः संवत्सरं स्त्रियः।। | 12-34-21a 12-34-21b |
महाव्रतं चरेद्यस्तु दद्यात्सर्वस्वमेव तु। गुर्वर्थे वा हतो युद्धे स मुच्येत्कर्मणोऽशुभात्।। | 12-34-22a 12-34-22b |
अनृतेनोपवर्ती चेत्प्रतिरोद्धा गुरोस्तथा। उपाहृत्य प्रियं तस्मै तस्मात्पापात्प्रमुच्यते।। | 12-34-23a 12-34-23b |
अवकीर्णनिमित्तं तु ब्रह्महत्याव्रतं चरेत्। गोचर्मवासाः षण्मासांस्तथा मुच्येत किल्बिषात्।। | 12-34-24a 12-34-24b |
परदारोपसेवी तु परस्यापहरन्वसु। संवत्सरं व्रती भूत्वा तथा मुच्येत किल्बिषात्।। | 12-34-25a 12-34-25b |
धनं तु यस्यापहरेत्तस्मै दद्यात्समं वसु। विविधेनाभ्युपायेन तदा मुच्येत किल्बिषात्।। | 12-34-26a 12-34-26b |
कृच्छ्राद्द्वादशरात्रेण संयतात्मा व्रते स्थितः। परिवेत्ता भवेत्पूतः परिवित्तिस्तथैव च।। | 12-34-27a 12-34-27b |
निवेश्यं तु पुनस्तेन भवेत्तारयता पितॄन्। न तु स्त्रिया भवेद्दोषो न तु सा तेन लिप्यते।। | 12-34-28a 12-34-28b |
भोजनं ह्यन्तराशुद्धं चातुर्मास्ये विधीयते। स्त्रियस्तेन प्रशुध्यन्ति इति धर्मविदो विदुः।। | 12-34-29a 12-34-29b |
स्त्रियस्त्वाशङ्किताः पापे नोपगम्या विजानता। रजसा ता विशुध्यन्ते भस्मना भाजनं यथा।। | 12-34-30a 12-34-30b |
पादजोच्छिष्टकांस्यं यद्गवा घ्रातमथापि वा। गण्डूषोच्छिष्टमपि वा विशुध्येद्दशभिस्तु तत्।। | 12-34-31a 12-34-31b |
चतुष्पात्सकलो धर्मो ब्राह्मणस्य विधीयते। पादोन इष्टो राजन्ये तथा धर्मो विधीयते।। | 12-34-32a 12-34-32b |
तथा वैश्ये च शूद्रे च पादः पादो विधीयते। विद्यादेवंविधनैषां गुरुलाघवनिश्चयम्।। | 12-34-33a 12-34-33b |
तिर्यग्योनिवधं कृत्वा द्रुमांश्छित्वोत्तरान्बहून्। त्रिरात्रं वायुभक्षः स्यात्कर्म च प्रथयन्नरः।। | 12-34-34a 12-34-34b |
अगम्यागमने राजन्प्रायश्चित्तं विधीयते। आर्द्रवस्त्रेण षण्मासान्विभाव्यं भस्मशायिना।। | 12-34-35a 12-34-35b |
एवमेव तु सर्वेषामकार्याणां विधिर्भवेत्। ब्रह्मणोक्तेन विधिना दृष्टान्तागमहेतुभिः।। | 12-34-36a 12-34-36b |
सावित्रीमप्यधीयानः शुचौ देशे मिताशनः। अहिंसो मन्दकं जल्पान्मुच्यते सर्वकिल्बिषात्।। | 12-34-37a 12-34-37b |
अहः सु सततं तिष्ठेदभ्याकाशं निशाः स्वपन्। त्रिरह्नि त्रिर्निशायां च सवासा जलमाविशेत्।। | 12-34-38a 12-34-38b |
स्त्रीशूद्रपतितांश्चापि नाभिभाषेद्ब्रतान्वितः। पापान्यज्ञानतः कृत्वा मुच्येदेवंव्रतो द्विजः।। | 12-34-39a 12-34-39b |
शुभाशुभफलं प्रेत्य लभते भूतसाक्षिकम्। अतिरिच्येत्तयोर्यस्तु तत्कर्ता लभते फलम्।। | 12-34-40a 12-34-40b |
तस्माद्दानेन तपसा कर्मणा च फलं शुभम्। वर्धयेदशुभं कृत्वा यथा स्यादतिरेकवान्।। | 12-34-41a 12-34-41b |
कुर्याच्छुभानि कर्माणि निमित्ते पापकर्मणाम्। दद्यान्नित्यं च वित्तानि तथा मुच्येत किल्बिषात्।। | 12-34-42a 12-34-42b |
अनुरूपं हि पापस्य प्रायश्चित्तमुदाहृतम्। महापातकवर्जं तु प्रायश्चित्तं विधीयते।। | 12-34-43a 12-34-43b |
भक्ष्याभक्ष्येषु चान्येषु वाच्यावाच्ये तथैव च। अज्ञानज्ञानयो राजन्विहितान्यनुजानतः।। | 12-34-44a 12-34-44b |
जानता तु कृतं पापं गुरु सर्वं भवत्युत। अज्ञानात्स्खलिते दोषे प्रायश्चित्तं विधीयते।। | 12-34-45a 12-34-45b |
शक्यते विधिना पापं यथोक्तेन व्यपोहितुम्। आस्तिके श्रद्दधाने च विधिरेष विधीयते।। | 12-34-46a 12-34-46b |
नास्तिकाश्रद्दधानेषु पुरुषेषु कदाचन। दम्भद्वेषप्रधानेषु विधिरेष न शिष्यते।। | 12-34-47a 12-34-47b |
शिष्टाचारश्च दिष्टश्च धर्मो धर्मभूतां वर। सेवितव्यो नरव्याघ्र प्रेत्येह च हितेप्सुना।। | 12-34-48a 12-34-48b |
स राजन्मोक्ष्यते पापात्तेन पूर्णेन हेतुना। त्राणार्थं वा वधे तेषामथवा नृपकर्मणा।। | 12-34-49a 12-34-49b |
अथवा ते घृणा काचित्प्रायश्चित्तं चरिष्यसि। मा चैवानार्यजुष्टेन मृत्युना निधनं गमः।। | 12-34-50a 12-34-50b |
वैशंपायन उवाच। | 12-34-51x |
एवमुक्तो भगवता धर्मराजो युधिष्ठिरः। चिन्तयित्वा मुहूर्तेन प्रत्युवाच तपोधनम्।। | 12-34-51a 12-34-51b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि चतुस्त्रिंशोऽध्यायः।। 34।। |
12-34-1 तपसा कच्छ्रचान्द्रायणादिना। कर्मणा यज्ञादिना पुनारिशोधयति।। 12-34-3 कर्म ब्रह्महत्याम्।। 12-34-5 अवाकूशिराः यं कंचिद्वेदं जपन् योजनानां शतं त्रिर्व्रजेत् शतत्रययोजनं पदचारेण तीर्थयात्रायां वेदं जपन्मुच्यत इत्यर्थः।। 12-34-7 कच्छ्रभोजी कृच्छ्ररीत्या भुञ्जानः।। 12-34-17 मरुप्रपातं निर्जलदेशे पर्वताग्रात्पतनम्। महाप्रस्थानं केदारे हिमवदाहोरणम्।। 12-34-18 निष्पापः सन् ब्राह्मणसभामारोढुं योग्यो भवतीत्यर्थः।। 12-34-19 उदपानं शिवं कुर्यात्सुरामिति ड. थ. पाठः।। 12-34-21 यताः त्यक्ताहारविहाराः।। 12-34-22 महाव्रतं मासमात्रं जलस्यापि त्यागः।। 12-34-24 खरचर्मवासाः षण्मासानिति ड.थ.पाठः।। 12-34-28 तेन कनिष्ठेन निवेश्यं विवाहान्तरं कर्तव्यम्।। 12-34-29 अन्तराभोजनं धारणापारणव्रतेन मासचतुष्ट्यकृतेन शुध्यन्ति महापापयोगे। भाजनं त्वृतुनाशुद्धं चातुर्मास्यं विधीयते इति थ. पाठः। भाजनं पूतिना शुद्धमिति ड. पाठः।। 12-34-31 शूद्रस्य उच्छिष्टं कांस्यं पात्रम्। दशभिः शोधनैः शुद्ध्यति। तानि च पञ्चगव्येन मृत्तोयैर्भस्मनाम्लेन वह्निनेति।। 12-34-33 विधीयते पादः पादोऽपकृष्ट इत्यर्थः। वैश्यस्य द्विपादः। शूद्रस्य पादमात्रः। धर्मः शौचादिः।। 12-34-36 दृष्टान्तभूतो य आगमस्तत्रोक्तैर्हेतुभिर्यावदेन इत्याद्यैः।। 12-34-38 तिष्ठेदित्युपवेशनादेर्व्यावृत्तिः। अभ्याकाशं निरावरणे स्थण्डिलादौ। अनुरूपं हि पापस्य अभ्याकाशमिति ट. पाठः।। 12-34-40 यत्र पुण्ये पापे वातिरिच्येत् योऽधिको भवति स इतरेणेतरदभिभूयातिरिक्तस्य फलं भुङ्क्त इत्यर्थः। अतिरिच्येत यो यत्र इति झ. पाठः।।
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