महाभारतम्-12-शांतिपर्व-311
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति साङ्ख्यप्रतिपादकवसिष्ठकरालजनकसंवादानुवादः।। 1।।
जनक उवाच। | 12-311-1x |
मानात्वैकत्वमित्युक्तं त्वयैतदृषिसत्तम। पश्यामि वाभिसंदिग्धमेतयोर्वै निदर्शनम्।। | 12-311-1a 12-311-1b |
तथाऽबुद्धप्रबुद्धाभ्यां बुध्यमानस्य चानघ। स्थूलबुद्ध्या न पश्यामि तत्त्वमेतन्न संशयः।। | 12-311-2a 12-311-2b |
अक्षरक्षरयोर्युक्तं त्वया यदपि कारणम्। तदप्यस्थिरबुद्धित्वात्प्रनष्टमिव मेऽनघ।। | 12-311-3a 12-311-3b |
तदेत्तच्छ्रोतुमिच्छामि नानात्वैकत्वदर्शनम्। प्रबुद्धमप्रबुद्धं च बुध्यमानं च तत्त्वतः।। | 12-311-4a 12-311-4b |
विद्याविद्ये च भगवन्नक्षरं क्षरमेव च। साङ्ख्यं योगं च कार्त्स्न्येन पृथक्चैवापृथक्च ह।। | 12-311-5a 12-311-5b |
वसिष्ठ उवाच। | 12-311-6x |
हन्त ते संप्रवक्ष्यामि यदेतदनुपृच्छसि। योगकृत्यं महाराज पृथगेव शृणुष्व मे।। | 12-311-6a 12-311-6b |
योगकृत्यं तु योगानां ध्यानमेव परं बलम्। तच्चापि द्विविधं ध्यानमाहुर्वेदविदो जनाः।। | 12-311-7a 12-311-7b |
एकाग्रता च मनसः प्राणायामस्तथैव च। प्राणायामस्तु सगुणो निर्गुणो मनसस्तथा।। | 12-311-8a 12-311-8b |
मूत्रोत्सर्गपुरीषे च भोजने च नराधिप। द्विकालं नाभियुज्जीत शेषं युञ्जीत तत्परः।। | 12-311-9a 12-311-9b |
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यो निवर्त्य मनसा मुनिः। दशद्वादशभिर्वापि चतुर्विशात्परं ततः।। | 12-311-10a 12-311-10b |
तं चोदनाभिर्मतिमानात्मानं चोदयेदथ। तिष्ठन्तमजरं यं तु यत्तदुक्तं मनीषिभिः।। | 12-311-11a 12-311-11b |
तैश्चात्मा सततं योज्य इत्येवमनुशुश्रुम्। द्रुतं ह्यहीनमनसो नान्यथेति विनिश्चयः।। | 12-311-12a 12-311-12b |
विमुक्तः सर्वसङ्गेभ्यो लध्वाहारो जितेन्द्रियः।। पूर्वरात्रेऽपररात्रे च धारयेत मनोऽऽत्मनि।। | 12-311-13a 12-311-13b |
स्थिरीकृत्येन्द्रियग्रामं मनसा मिथिलेश्वर। मनो बुद्ध्या स्थिरं कृत्वा पाषाण इव निश्चलः।। | 12-311-14a 12-311-14b |
स्थाणुवच्चाप्यकम्पः स्याद्दारुवच्चापि निश्चलः। बुधा विधिविधानज्ञास्तदा युक्तं प्रचक्षते।। | 12-311-15a 12-311-15b |
न शृणोति न चाघ्राति न रस्यति न पश्यति। न च स्पर्शं विजानाति न संकल्पयते मनः।। | 12-311-16a 12-311-16b |
न चाभिमन्यते किंचिन्न च बुध्यति काष्ठवत्। तदा प्रकृतिमापन्नं युक्तमाहुर्मनीषिणः।। | 12-311-17a 12-311-17b |
निर्वाते हि यथा दीप्यन्दीपस्तद्वत्प्रकाशते। निर्लिङ्गो विचलश्चोर्ध्वं न तिर्यग्गतिमाप्नुयात्।। | 12-311-18a 12-311-18b |
तदा तमनुपश्येत यस्मिन्दृष्टे तु कथ्यते। हृदयस्थोऽन्तरात्मेति ज्ञेयो ज्ञस्तात मद्विधैः।। | 12-311-19a 12-311-19b |
विधूम इव सप्तार्चिरादित्य इव रश्मिमान्। वैद्युतोऽग्निरिवाकाशे दृश्यतेऽऽत्मा तथाऽऽत्मनि।। | 12-311-20a 12-311-20b |
संपश्यन्ति महात्मानो धृतिमन्तो मनीषिणः। ब्राह्मणा ब्रह्मयोनिस्था ह्ययोनिममृतात्मकम्।। | 12-311-21a 12-311-21b |
तदेवाहुरणुभ्योऽणु तन्महद्भ्यो महत्तरम्। तत्तत्र सर्वभूतेषु ध्रुवं तिष्ठन्न दृश्यते।। | 12-311-22a 12-311-22b |
बुद्धिद्रव्येण दृश्येत मनोदीपेन लोककृत्। महतस्तमसस्तात पारे तिष्ठन्न तामसः।। | 12-311-23a 12-311-23b |
स च मानस इत्युक्तस्तत्वज्ञैर्वेदपारगैः। विमलो वितमस्कश्च निर्लिङ्गोऽलिङ्गसंज्ञकः।। | 12-311-24a 12-311-24b |
योगमेतत्तु योगानां मन्ये योगस्य लक्षणम्। एवं पश्यं प्रपश्यन्ति आत्मस्थमजरं परम्।। | 12-311-25a 12-311-25b |
योगदर्शनमेतावदुक्तं ते तत्वतो मया। साङ्ख्याज्ञानं प्रवक्ष्यामि परिसंख्यानदर्शनम्।। | 12-311-26a 12-311-26b |
अव्यक्तमाहुः प्रकृतिं परां प्रकृतिवादिनः। तस्मान्महत्समुत्पन्नं द्वितीयं राजसत्तम।। | 12-311-27a 12-311-27b |
अहंकारस्तु महतस्तृतीय इति नः श्रुतम्। पञ्चभूतान्यहंकारादाहुः साङ्ख्यनिदर्शिनः।। | 12-311-28a 12-311-28b |
एताः प्रकृतयश्चाष्टौ विकाराश्चापि षोडश। पञ्च चैव विशेषा वै तथा पञ्चेन्द्रियाणि च।। | 12-311-29a 12-311-29b |
एतावदेव तत्त्वानां साङ्ख्या आहुर्मनीषिणः। साङ्ख्ये विधिविधानज्ञा नित्यं साङ्ख्यपथे रताः।। | 12-311-30a 12-311-30b |
यस्माद्यदभिजायेत तत्तत्रैव प्रलीयते। लीयन्ते प्रतिलोमानि सृज्यन्ते चान्तरात्मना।। | 12-311-31a 12-311-31b |
अनुलोमेन जायन्ते लीयन्ते प्रतिलोमतः। गुणा गुणेषु सततं सागरस्योर्मयो यथा।। | 12-311-32a 12-311-32b |
सर्वप्रलय एतावान्प्रकृतेर्नृपसत्तम। एकत्वं प्रलये चास्य बहुत्वं च यदाऽसृजत्।। | 12-311-33a 12-311-33b |
एवमेव च राजेन्द्र विज्ञेयं ज्ञेयचिन्तकैः। अधिष्ठाता य इत्युक्तस्तस्याप्येतन्निदर्शनम्।। | 12-311-34a 12-311-34b |
एकत्वं च बहुत्वं च प्रकृतेरनुतत्त्ववान्। एकत्वं प्रलये चास्य बहुत्वं च प्रवर्तनात्।। | 12-311-35a 12-311-35b |
बहुधाऽऽत्मानमकरोत्प्रकृतिः प्रसावत्मिका। तच्च क्षेत्रं महानात्मा पञ्चविंशोऽधितिष्ठति।। | 12-311-36a 12-311-36b |
अधिष्ठातेति राजेन्द्र प्रोच्यते यतिसत्तमैः। अधिष्ठानादधिष्ठाता क्षेत्राणामिति नः श्रुतम्।। | 12-311-37a 12-311-37b |
क्षेत्रं जानाति चाव्यक्तं क्षेत्रज्ञ इति चोच्यते। अव्यक्तके पुरे शेते पुरुषश्चेति कथ्यते।। | 12-311-38a 12-311-38b |
अन्यदेव च क्षेत्रं स्यादन्यः क्षेत्रज्ञ उच्यते। क्षेत्रमव्यक्तमित्युक्तं ज्ञाता वै पञ्चविंशकः।। | 12-311-39a 12-311-39b |
अन्यदेव वचो ज्ञानं स्यादन्यज्ज्ञेयमुच्यते। ज्ञानमव्यक्तमित्युक्तं ज्ञेयो वै पञ्चविंशकः।। | 12-311-40a 12-311-40b |
अव्यक्तं क्षेत्रमित्युक्तं यथासत्वं तथेश्वरम्। अनीश्वरमतत्त्वं च तत्त्वं तत्पञ्चविंशकम्।। | 12-311-41a 12-311-41b |
साङ्ख्यदर्शनमेतावत्परिसङ्ख्यानदर्शनम्। साङ्ख्याः प्रकुर्वते चैव प्रकृतिं च प्रचक्षते।। | 12-311-42a 12-311-42b |
तत्त्वानि च चतुर्विशत्परिसंख्याय तत्त्वतः। साङ्ख्याः सह प्रकृत्या तु निस्तत्त्वः पञ्चविंशकः।। | 12-311-43a 12-311-43b |
पञ्चविंशो प्रबुद्धात्मा बुध्यमान इति स्मृतः। यदा तु बुध्यतेऽऽत्मानं तदा भवति केवलः।। | 12-311-44a 12-311-44b |
सम्यग्दर्शनमेतावद्भाषितं तव तत्त्वतः। एवमेतद्विजानन्तः साम्यतां प्रतियान्त्युत।। | 12-311-45a 12-311-45b |
सम्यङ्गिदर्शनं नाम प्रत्यक्षं प्रकृतेस्तथा। गुणतत्त्वाद्यथैतानि निर्गुणोऽन्यस्तथा भवेत्।। | 12-311-46a 12-311-46b |
न त्वेवं वर्तमानानामावृत्तिर्विद्यते पुनः। विद्यतेऽक्षरभावत्वे स परात्परमव्ययम्।। | 12-311-47a 12-311-47b |
पश्येरन्नेकमतयो न सम्यक् तेषु दर्शनम्। ते व्यक्तं प्रतिपद्यन्ते पुनः पुनररिंदम्।। | 12-311-48a 12-311-48b |
सर्वमेतद्विजानन्तो नासर्वस्य प्रबोधनात्। व्यक्तीभूता भविष्यन्ति व्यक्तस्य वशवर्तिनः।। | 12-311-49a 12-311-49b |
सर्वमव्यक्तमित्युक्तमसर्वः पञ्चविंशकः। य एनमभिजानन्ति न भयं तेषु विद्यते।। | 12-311-50a 12-311-50b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकादशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 311।। |
12-311-3 अक्षरक्षरयोरुक्तमिति ट. पाठः। अक्षरक्षरयोगेन त्वयेति थ. पाठः।। 12-311-7 तत्रापि विविधमिति ड. थ. पाठः।। 12-311-9 विकारं नाभियुज्जीतेति ड. थ. पाठः। त्रिकालं नाभियुज्जीतेति झ. पाठः।। 12-311-10 मनसात्मनीति ट. पाठः।। 12-311-12 द्रुतं ह्यदीनेति ध. पाठः।। 12-311-19 दृष्टेति कथ्यत इति ट. ड. थ. पाठः।। 12-311-21 यं पश्यन्ति महात्मान इति ट. ध. पाठः।। 12-311-41 तथा तत्वं तथेश्वरमिति ट. ड. थ. पाठः।। 12-311-47 विद्यते क्षरभावत्वं यो नैवं वेत्ति पार्थिव इति ट. ड. थ. पाठः।। 12-311-49 न सर्वस्य प्रबोध नादिति ध. पाठः।।
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