महाभारतम्-12-शांतिपर्व-181
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भरद्वाजंप्रति भृगुणा मेरुस्थब्रह्मणा जलादिभूम्यन्तसृष्टिप्रकारकथनम्।। 1।।
भरद्वाज उवाच। | 12-181-1x |
मेरुमध्ये स्थितो ब्रह्मा कथं स ससृजे प्रजाः। एतन्मे सर्वमाचक्ष्व याथातथ्येन पृच्छतः।। | 12-181-1a 12-181-1b |
भृगुरुवाच। | 12-181-2x |
प्रजाविसर्गं पूर्वं स मानसो मनसाऽसृजत्। संरक्षणार्थं भूतानां सृष्टं प्रथमतो जलम्।। | 12-181-2a 12-181-2b |
यत्प्राणः सर्वभूतानां वर्धन्ते येन च प्रजाः। परित्यक्ताश्च नश्यन्ति तेनेदं सर्वमावृतम्।। | 12-181-3a 12-181-3b |
पृथिवी पर्वता मेघा मूर्तिमन्तश्च ये परे। सर्वं तद्वारुणं ज्ञेयमापस्तस्तम्भिरे हि ताः।। | 12-181-4a 12-181-4b |
भरद्वाज उवाच। | 12-181-5x |
कथं सलिलमुत्पन्नं कथं चैवाग्निमारुतौ। कथं वा मेदिनी सृष्टेत्यत्र मे संशयो महान्।। | 12-181-5a 12-181-5b |
भृगुरुवाच। | 12-181-6x |
ब्रह्मकल्पे पुरा ब्रह्मन्ब्रह्मर्षीणां समागमे। लोकसंभवसन्देहः समुत्पन्नो महात्मनाम्।। | 12-181-6a 12-181-6b |
तेऽतिष्ठन्ध्यानमालम्ब्य मौनमास्थाय निश्चलाः। त्यक्ताहाराः पवनपा दिव्यं वर्षशतं द्विजाः।। | 12-181-7a 12-181-7b |
तेषां ब्रह्ममयी वाणी सर्वेषां श्रोत्रमागमत्। दिव्या सरस्वती तत्र संबभूव नभस्तलात्।। | 12-181-8a 12-181-8b |
पुराऽस्तमितनिःशब्दमाकाशमचलोपमम्। नष्टचन्द्रार्कपवनं प्रसुप्तमिव संबभौ।। | 12-181-9a 12-181-9b |
ततः सलिलमुत्पन्नं तमसीवापरं तमः। तस्माच्च सलिलोत्पीडात्समजायत मारुतः।। | 12-181-10a 12-181-10b |
यथा भाजनमच्छिद्रं निःशब्दमिह लक्ष्यते। तच्चाम्भसा पूर्यमाणं सशब्दं कुरुतेऽनिलः।। | 12-181-11a 12-181-11b |
तथा सलिलसंरुद्धे नभसोन्ते निरन्तरे। भित्त्वाऽर्णवतलं वायुः समुत्पतति घोषवान्।। | 12-181-12a 12-181-12b |
स एष चरते वायुरर्णवोत्पीडसंभवः। आकाशस्थानमासाद्य प्रशान्तिं नाधिगच्छति।। | 12-181-13a 12-181-13b |
तस्मिन्वाय्वम्बुसंघर्षे दीप्ततेजा महाबलः। प्रादुर्बभूवोर्ध्वशिखः कृत्वा निस्तिमिरं नभः।। | 12-181-14a 12-181-14b |
अग्निः पवनसंयुक्तः स्वात्समुत्क्षिपते जलम्। सोऽग्निमारुतसंयोगाद्धनत्वमुपपद्यते।। | 12-181-15a 12-181-15b |
तस्याकाशान्निपतितः स्नेहस्तिष्ठति योऽपरः। स संघातत्वमापन्नो भूमित्वमनुगच्छति।। | 12-181-16a 12-181-16b |
रसानां सर्वगन्धानां स्नेहानां प्राणिनां तथा। भूमिर्योनिरिह ज्ञेया यस्यां सर्वं प्रसूयते।। | 12-181-17a 12-181-17b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 181।। |
12-181-3 यत् जलम्। तेन जलेन।। 12-181-4 वारुणं वरुणदेवतासंबन्धादाप्यमित्यर्थः। मूर्तिमत् मनुष्यपश्वादिविग्रहवत्। आप्यत्वे हेतुः। आपस्तस्तम्भिरे यत आपस्तम्भं धनीभावं पृथिव्यादिरूपं प्राप्ताः।। 12-181-6 ब्रह्मकल्पे ब्रह्मप्रथमदिने। लोकानां संभव उत्पत्तिस्तत्र विषये संदेहः।। 12-181-8 तेषां धर्ममयीति ट. ड. पाठः।। 12-181-9 सरस्वतीमेवाह पुरेति। स्तिमितमाकाशमनन्तमिति झ. पाठः।।
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