महाभारतम्-12-शांतिपर्व-291
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रत्यध्यात्मकथनम्।। 1।।
* युधिष्ठिर उवाच। | 12-291-1x |
अध्यात्मं नाम यदिदं पुरुषस्येह विद्यते। यदध्यात्मं यतश्चैव तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-291-1a 12-291-1b |
भीष्म उवाच। | 12-291-2x |
सर्वज्ञानं परं बुद्ध्या यन्मां त्वमनुपृच्छसि। तद्व्याख्यास्यामि ते तात तस्य व्याख्यामिमां शृणु।। | 12-291-2a 12-291-2b |
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम्। महाभूतानि भूतानां सर्वेषां प्रभवाप्ययौ।। | 12-291-3a 12-291-3b |
स तेषां गुणसंघातः शरीरं भरतर्षभ। सततं हि प्रलीयन्ते गुणास्ते प्रभवन्ति च।। | 12-291-4a 12-291-4b |
ततः सृष्टानि भूतानि तानि यान्ति पुनः पुनः। महाभूतानि भूतेभ्य ऊर्मयः सागरे यथा।। | 12-291-5a 12-291-5b |
प्रसारयित्वेहाङ्गानि कूर्मः संहरते यथा। तद्वद्भूतानि भूतानामल्पीयांसि स्थवीयसाम्।। | 12-291-6a 12-291-6b |
आकाशात्खलु यो घोषः संघातस्तु महीगुणः। वायोः प्राणो रसस्त्वद्भ्यो रूपं तेजस उच्यते।। | 12-291-7a 12-291-7b |
इत्येतन्मयमेवैतत्सर्वं स्थावरजङ्गमम्। प्रलये च तमभ्येति तस्मादुद्दिश्यते पुनः।। | 12-291-8a 12-291-8b |
महाभूतानि पञ्चैव सर्वभूतेषु भूतकृत्। विषयान्कल्पयामास यस्मिन्यदनुपश्यति।। | 12-291-9a 12-291-9b |
शब्दश्रोत्रे तथा खानि त्रयमाकाशयोनिजम्। रसः स्नेहश्च जिह्वा च अपामेते गुणाः स्मृताः।। | 12-291-10a 12-291-10b |
रूपं चक्षुर्विपाकश्च त्रिविधं ज्योतिरूच्यते। घ्रेयं घ्राणं शरीरं च एते भूमिगुणाः स्मृताः।। | 12-291-11a 12-291-11b |
प्राणः स्पर्शश्च चेष्टा च वायोरेते गुणाः स्मृताः। इति सर्वगुणा राजन्व्याख्याताः पाञ्चभौतिकाः।। | 12-291-12a 12-291-12b |
सत्त्वं रजस्तमः कालः कर्म बुद्धिश्च भारत। मनः षष्ठानि चैतेषु ईश्वरः समकल्पयत्।। | 12-291-13a 12-291-13b |
यदूर्ध्वपादतलयोरवाड्यूर्ध्नश्च पश्यसि। एतस्मिन्नेव कृत्स्नेयं वर्तते बुद्धिरन्तरे।। | 12-291-14a 12-291-14b |
इन्द्रियाणि नरे पञ्च षष्ठं तु मन उच्यते। सप्तमीं बुद्धिमेवाहुः क्षेत्रज्ञः पुनरष्टमः।। | 12-291-15a 12-291-15b |
इन्द्रियाणि च कर्ता च विचेतव्यानि भागशः। तमः सत्वं रजस्तैव तेऽपि भावास्तदाश्रयाः।। | 12-291-16a 12-291-16b |
चक्षुरालोचनायैव संशयं कुरुते मनः। बुद्धिरध्यवसानाय साक्षी क्षेत्रज्ञ उच्यते।। | 12-291-17a 12-291-17b |
तमः सत्वं रजश्चेति कालः कर्म च भारत। गुणैर्नेनीयते बुद्धिर्बुद्धिरेवेन्द्रियाणि च। मनः षष्ठानि सर्वाणि बुद्ध्यभावे कुतो गुणाः।। | 12-291-18a 12-291-18b 12-291-18c |
येन पश्यति तच्चक्षुः शृण्वती श्रोत्रमुच्यते। जिघ्रती भवति घ्राणं रसती रसना रसान्।। | 12-291-19a 12-291-19b |
स्पर्शनं स्पर्शती स्पर्शान्बुद्धिर्विक्रियतेऽसकृत्। यदा प्रार्थयते किंचित्तदा भवति सा मनः।। | 12-291-20a 12-291-20b |
अधिष्ठानानि बुद्ध्या हि पृथगेतानि पञ्चधा। इन्द्रियाणीति तान्याहुस्तेषु दुष्टेषु दुष्यति।। | 12-291-21a 12-291-21b |
पुरुषे तिष्ठती बुद्धिस्त्रिषु भावेषु वर्तते। कदाचिल्लभते प्रीतिं कदाचिदपि शोचति।। | 12-291-22a 12-291-22b |
न सुखेन न दुःखेन कदाचिदपि वर्तते। सेयं भावात्मिका भावांस्त्रीनेतान्परिवर्तते।। | 12-291-23a 12-291-23b |
सरितां सागरो भर्ता यथा वेलामिवोर्मिमान्। इति भावगता बुद्धिर्भावे मनसि वर्तते।। | 12-291-24a 12-291-24b |
प्रवर्तमानं तु रजस्तद्भावेनानुर्तते। प्रहर्षः प्रीतिरानन्दः सुखं संशान्तचित्तता।। | 12-291-25a 12-291-25b |
कथंचिदुपपद्यन्ते पुरुषे सात्विका गुणाः। पिरदाहस्तथा शोकः संतापोऽपूर्तिरक्षमा।। | 12-291-26a 12-291-26b |
लिङ्गानि रजसस्तानि दृश्यन्ते हेत्वहेतुभिः। अविद्या रागमोहौ च प्रमादः स्तब्धता भयम्।। | 12-291-27a 12-291-27b |
असमृद्धिस्तथा दैन्यं प्रमोहः स्वप्नतन्द्रिता। कथंचिदुपवर्तन्ते विविधास्तामसा गुणाः।। | 12-291-28a 12-291-28b |
तत्र यत्प्रीतिसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत्। वर्तते सात्विको भाव इत्युपेक्षेत तत्तथा।। | 12-291-29a 12-291-29b |
अथ यद्दुःखसंयुक्तमप्रीतिकरमात्मनः। प्रवृत्तं रज इत्येव तदसंरभ्य चिन्तयेत्।। | 12-291-30a 12-291-30b |
अथ यन्मोहसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत्। अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत्।। | 12-291-31a 12-291-31b |
इति बुद्धिगतीः सर्वा व्याख्याता यावतीरिह। एतद्बुद्ध्वा भवेद्बुद्धः किमन्यद्बुद्धलक्षणम्।। | 12-291-32a 12-291-32b |
सत्वक्षेत्रज्ञयोरेतदन्तरं विद्धि सूक्ष्मयोः। सृजतेऽत्र गुणानेक एको न सृजते गुणान्।। | 12-291-33a 12-291-33b |
पृथग्भूतौ प्रकृत्या तु संप्रयुक्तौ च सर्वदा। यथा मत्स्योऽद्भिरन्यः स्यात्संप्रयुक्तो भवेत्तथा।। | 12-291-34a 12-291-34b |
न गुणा विदुरात्मानं स गुणान्वेद सर्वतः। परिद्रष्टा गुणानां तु संस्रष्टा मन्यते यथा।। | 12-291-35a 12-291-35b |
आश्रयो नास्ति सत्वस्य गुणसर्गेण चेतना। सत्वमस्य सृजन्त्यन्ये गुणान्वेद कदाचन।। | 12-291-36a 12-291-36b |
सृजते हि गुणान्सत्वं क्षेत्रज्ञः परिपश्यति। संप्रयोगस्तयोरेष सत्वक्षेत्रज्ञयोर्ध्रुवः।। | 12-291-37a 12-291-37b |
इन्द्रियैस्तु प्रदीपार्थं क्रियते बुद्धिरन्तरा। निश्चक्षुर्भिरजानद्भिरिन्द्रियाणि प्रदीपवत्।। | 12-291-38a 12-291-38b |
एवं स्वभावमेवैतत्तद्बुद्ध्वा विहरन्नरः। अशोचन्नप्रहृष्यंश्च स वै विगतमत्सरः।। | 12-291-39a 12-291-39b |
स्वभावसिद्धमेवैतद्यदिमान्सृजते गुणान्। ऊर्णनाभिर्यथा सूत्रं विज्ञेयास्तन्तुवद्गुणाः।। | 12-291-40a 12-291-40b |
प्रध्वस्ता न निवर्तन्ते प्रवृत्तिर्नोपलभ्यते। एवमेके व्यवस्यन्ति निवृत्तिरिति चापरे।। | 12-291-41a 12-291-41b |
इतीदं हृदयग्रन्थिं बुद्धिचिन्तामयं दृढम्। विमुच्य सुखमासीत विशोकश्छिन्नसंशयः।। | 12-291-42a 12-291-42b |
ताम्येयुः प्रच्युताः पृथ्वीं मोहपूर्णां नदीं नराः। यथा गाधमविद्वांसो बुद्धियोगमयं तथा।। | 12-291-43a 12-291-43b |
नैव ताम्यन्ति विद्वांसः प्लवन्तः पारमम्भसः। अध्यात्मविदुषो धीरा ज्ञानं तु परमं प्लवः।। | 12-291-44a 12-291-44b |
न भवति विदुषां महद्भयं यदविदुषां सुमहद्भयं भवेत्। न हि गतिरधिकाऽस्ति कस्यचि त्सकृदुपदर्शयतीह तुल्यताम्।। | 12-291-45a 12-291-45b 12-291-45c 12-291-45d |
यत्करोति बहुदोषमेकत स्तच्च दूषयति यत्पुरा कृतम्। नाप्रियं तदुभयं करोत्यसौ यच्च दूषयति यत्करोति च।। | 12-291-46a 12-291-46b 12-291-46c 12-291-46d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 291।। |
- 192 तमाध्यायतया पूर्वं विद्यमान एवायमध्यायः ख. ध. झ. पुस्तकेषु क्वचित्क्वचित्पाठभेदेन पुनरपि दृश्यते न दृश्यते च दाक्षिणात्यबहुकोशेषु।
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