महाभारतम्-12-शांतिपर्व-297
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भीष्मेण युधिष्ठिरं प्रति श्रेयःसाधनप्रतिपादकपराशरगीतानुवादः।। 1।।
पराशर उवाच। | 12-297-1x |
मनोरथरथं प्राप्य इन्द्रियार्थहयं नरः। रश्मिभिर्ज्ञानसंभूतैर्यो गच्छति स बुद्धिमान्।। | 12-297-1a 12-297-1b |
सेवाश्रितेन मनसा वृत्तिहीनस्य शस्यते। द्विजातिहस्तान्निर्वृत्ता न तु तुल्यात्परस्परात्।। | 12-297-2a 12-297-2b |
आयुर्नसुलभं लब्ध्वा नावकर्षेद्विशांपते। उत्कर्षार्थं प्रयतते नरः पुण्येन कर्मणा।। | 12-297-3a 12-297-3b |
वर्णेभ्यो हि परिभ्रष्टो न वै संमानमर्हति। न तु यः सत्क्रियां प्राप्य राजसं कर्म सेवते।। | 12-297-4a 12-297-4b |
वर्णोत्कर्षमवाप्नोति नरः पुण्येन कर्मणा। दुर्लभं तमलब्धा हि हन्यात्पापेन कर्मणा।। | 12-297-5a 12-297-5b |
अज्ञानाद्धि कृतं पापं तपसैवाभिनिर्णुदेत्। पापं हि कर्म फलति पापमेव स्वयंकृतम्। तस्मात्पापं न सेवेत कर्म दुःखफलोदयम्।। | 12-297-6a 12-297-6b 12-297-6c |
पापानुबन्धं यत्कर्म यद्यपि स्यान्महाफलम्। तन्न सेवेत मेधावी शुचिः कुशलिनं यथा।। | 12-297-7a 12-297-7b |
किंकष्टमनुपश्यामि फलं पापस्य कर्मणः। प्रत्यापन्नस्य हि ततो नात्मा तावद्विरोचते।। | 12-297-8a 12-297-8b |
प्रत्यापत्तिश्च यस्येह बालिशस्य न जायते। तस्यापि सुमहांस्तापः प्रस्थितस्योपजायते।। | 12-297-9a 12-297-9b |
विरक्तं शोध्यते वस्त्रं न तु कृष्णोपसंहितम्। प्रयत्नेन मनुष्येन्द्र पापमेवं निबोध मे।। | 12-297-10a 12-297-10b |
स्वयं कृत्वा तु यः पापं शुभमेवानुतिष्ठति। प्रायश्चित्तं नरः कर्तुमुभयं सोऽश्नुते पृथक्।। | 12-297-11a 12-297-11b |
अज्ञानात्तु कृतां हिंसामहिंसा व्यपकर्षति। ब्राह्मणाः शास्त्रनिर्देशादित्याहुर्ब्रह्मवादिनः।। | 12-297-12a 12-297-12b |
तथा कामकृतं नास्य विहिंसैवानुकर्षति। इत्याहुर्ब्रह्मशास्त्रज्ञा ब्राह्मणा ब्रह्मवादिनः।। | 12-297-13a 12-297-13b |
अहं तु तावत्पश्यामि कर्म यद्धर्तते कृतम्। गुणयुक्तं प्रकाशं वा पापेनानुपसंहितम्।। | 12-297-14a 12-297-14b |
यथा सूक्ष्माणि कर्माणि फलन्तीह यथातथम्। बुद्धियुक्तानि तानीह कृतानि मनसा सह।। | 12-297-15a 12-297-15b |
भवत्यल्पफलं कर्म सेवितं नित्यमुल्वणम्। अबुद्धिपूर्वं धर्मज्ञ कृतमुग्रेण कर्मणा।। | 12-297-16a 12-297-16b |
कृतानि यानि कर्माणि दैवतैर्मुनिभिस्तथा। न चरेत्तानि धर्मात्मा श्रुत्वा चापि न कुत्सयेत्।। | 12-297-17a 12-297-17b |
संचिन्त्य मनसा राजन्विदित्वा शक्तिमात्मनः। करोति यः शुभं कर्म स वै भद्राणि पश्यति।। | 12-297-18a 12-297-18b |
नवे कपाले सलिलं संन्यस्तं हीयते यथा। नवेतरे तथा भावं प्राप्नोति सुखभावितम्।। | 12-297-19a 12-297-19b |
सतोयेऽन्यत्तु यत्तोयं तस्मिन्नेव प्रसिच्यते। तद्धि वृद्धिमवाप्नोति सलिले सलिलं यथा।। | 12-297-20a 12-297-20b |
एवं कर्माणि यानीह बुद्धियुक्तानि पार्थिव। समानि चैव यानीह तानि पुण्यतमान्यपि।। | 12-297-21a 12-297-21b |
राज्ञा जेतव्याः शत्रवश्चोन्नताश्च सम्यक्कर्तव्यं पालनं च प्रजानाम्। अग्निश्चेयो बहुभिश्चापि यज्ञै रन्त्ये मध्ये वा वनमाश्रित्य स्थेयम्।। | 12-297-22a 12-297-22b 12-297-22c 12-297-22d |
दमान्वितः पुरुषो धर्मशीलो भूतानि चात्मानमिवानुपश्येत्। गरीयसः पूजयेदात्मशक्त्या सत्येन शीलेन सुखं नरेन्द्र।। | 12-297-23a 12-297-23b 12-297-23c 12-297-23d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि सप्तनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 297।। |
12-297-2 द्विजातिहीना निर्वृत्ता इति थ. पाठः।। 12-297-5 दुर्लभं जन्म लब्ध्या हीति थ. पाठः। दुष्कृतं कर्म लब्ध्या हीति ध. पाठः।। 12-297-7 कुशलिनं कारुकं चण्डालविशेषमित्यर्थः।। 12-297-8 कुत्सितं च तत्कष्टं च किंकष्टम्।। 12-297-9 प्रत्यापत्तिर्वैराग्यम्।। 12-297-11 सोऽश्नुते फलमिति ध. पाठः।। 12-297-23 दयान्वितः पुरुष इति थ. पाठः।।
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