महाभारतम्-12-शांतिपर्व-331
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति शुकोत्पत्तिप्रकारकथनारम्भः।। 1।।
तथा पुत्रार्थं व्यासतपश्चर्याकथनम्।। 2।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-331-1x |
कथं व्यासस्य धर्मात्मा शुको जज्ञे महातपाः। सिद्धिं च परमां प्राप्तस्तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-331-1a 12-331-1b |
कस्यां चोत्पादयामास शुकं व्यासस्तपोधनः। न ह्यस्य जननीं विद्मो जन्म चाग्र्यं महात्मनः।। | 12-331-2a 12-331-2b |
कथं च बालस्य सतः सूक्ष्मज्ञाने रता मतिः। यथा नान्यस्य लोकेऽस्मिन्द्वितीयस्येह कस्यचित्।। | 12-331-3a 12-331-3b |
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं विस्तरेण महामते। न हि मे तृप्तिरस्तीह शृण्वतोऽमृतमुत्तमम्।। | 12-331-4a 12-331-4b |
माहात्म्यमात्मयोगं च विज्ञानं च शुकस्य ह। यथावदानुपूर्व्येण तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-331-5a 12-331-5b |
भीष्म उवाच। | 12-331-6x |
न हायनैर्न पलितैर्न वित्तैर्न च बन्धुभिः। ऋषयश्चक्रिरे धर्मं योऽनूचानः स नो महान्।। | 12-331-6a 12-331-6b |
तपोमूलमिदं सर्वं यन्मां पृच्छसि पाण्डव। तदिन्द्रियाणि संयम्य तपो भवति नान्यथा।। | 12-331-7a 12-331-7b |
इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन दोषमृच्छत्यसंशयम्। संनियम्य तु तान्येव सिद्धिमाप्नोति मानवः।। | 12-331-8a 12-331-8b |
अश्वमेधसहस्रस्य वाजपेयशतस्य च। योगस्य कलया तात न तुल्यं विद्यते फलम्।। | 12-331-9a 12-331-9b |
अत्र ते वर्तयिष्यामि जन्मयोगफलं तथा। शुकस्याग्र्यां गतिं चैव दुर्विदामकृतात्मभिः।। | 12-331-10a 12-331-10b |
मेरुशृङ्गे किल पुरा कर्णिकारवनायुते। विजहार महादेवो भीमैर्भूतगणैर्वृतः।। | 12-331-11a 12-331-11b |
शैलराजसुता चैव देवी तत्राभवत्पुरा। तत्र दिव्यं तपस्तेषे कृष्णद्वैपायनः प्रभुः।। | 12-331-12a 12-331-12b |
योगेनात्मानमाविश्य योगधर्मपरायणः। धारयन्स तपस्तेपे पुत्रार्थं कुरुसत्तम।। | 12-331-13a 12-331-13b |
अग्नेर्भूमेरपां वायोरन्तरिक्षस्य वा विभो। वीर्येण संमितः पुत्रो मम भूयादिति स्म ह।। | 12-331-14a 12-331-14b |
संकल्पेनाथ मौनेन दुष्प्रापमकृतात्मभिः। वरयामास देवेशमास्थितस्तप उत्तमम्।। | 12-331-15a 12-331-15b |
अतिष्ठन्मारुताहारः शतं किल समाः प्रभुः आराधयन्महादेवं बहुरूपमुमापतिम्।। | 12-331-16a 12-331-16b |
तत्र ब्रह्मर्षयश्चैव सर्वे देवर्षयस्तथा। लोकपालाश्च लोकेशं साध्याश्च वसुभिः सह।। | 12-331-17a 12-331-17b |
आदित्याश्चैव रुद्राश्च दिवाकरनिशाकरौ। मारुतो मरुतश्चैव सागराः सरितस्तथा।। | 12-331-18a 12-331-18b |
अश्विनौ देवगन्धर्वास्तथा नारदपर्वतौ। विश्वावसुश्च गन्धर्वः सिद्धाश्चाप्सरसां गणाः।। | 12-331-19a 12-331-19b |
तत्र रुद्रो महादेवः कर्णिकारमयीं शुभाम्। धारयाणः स्रजं भाति ज्योत्स्नामिव निशाकरः।। | 12-331-20a 12-331-20b |
तस्मिन्दिव्ये वने रम्ये देवदेवर्षिसंकुले। आस्थितः परमं योगमृषिः पुत्रार्थमच्युतः।। | 12-331-21a 12-331-21b |
न चास्य हीयते प्राणो न ग्लानिरुपजायते। त्रयाणामपि लोकानां तदद्भुतमिवाभवत्।। | 12-331-22a 12-331-22b |
जटाश्च तेजसा तस्य वैश्वानरशिखोपमाः। प्रज्वलन्त्यः स्म दृश्यन्ते युक्तस्यामिततेजसः।। | 12-331-23a 12-331-23b |
मार्कण्डेयो हि भगवानेतदाख्यातवान्मम। स देवचरितानीह कथयामास मे तदा।। | 12-331-24a 12-331-24b |
एता अद्यापि कृष्णस्य तपसा तेन दीपिताः। अग्निवर्णा जटास्तात प्रकाशन्ते महात्मनः।। | 12-331-25a 12-331-25b |
एवंविधेन तपसा तस्य भक्त्या च भारत। महेश्वरः प्रसन्नात्मा चकार मनसा मतिम्।। | 12-331-26a 12-331-26b |
`ततस्तस्य महादेवो दर्शयामास साम्बिकः।' उवाच चैवं भगवांख्यम्बकः प्रहसन्निव। एवंविधस्ते तनयो द्वैपायन भविष्यति।। | 12-331-27a 12-331-27b 12-331-27c |
यथा ह्यग्निर्यथा वायुर्यथा भूमिर्यथा जलम्। यथाऽऽकारास्तथा शुद्धो भविता ते सुतो महान्।। | 12-331-28a 12-331-28b |
तद्भावभावी तद्बुद्धिस्तदाऽऽत्मा तदपाश्रयः। तेजसाऽऽवृत्य लोकांस्त्रीन्यशः प्राप्स्यति ते सुतः।। | 12-331-29a 12-331-29b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकत्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 331।। |
12-331-2 कथं चोत्पादयामासेति ध. पाठः।। 12-331-3 सूक्ष्मज्ञाने स्थितामतिरिति ध. पाठः।। 12-331-12 देवी भर्त्राभवत्पुरेति ध. पाठः।। 12-331-15 संकल्पेनाथ योगेनेति झ. पाठः।। 12-331-18 वसवो मरुतश्चैवेति झ. पाठः।। 12-331-22 हीयते वर्ण इति ध. पाठः।। 12-331-25 कृष्णस्य व्यासस्य।। 12-331-29 यशः प्राप्स्यति केवलमिति ट. ड. ध. पाठः।।
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