महाभारतम्-12-शांतिपर्व-019
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अर्जुनंप्रति युधिष्ठिरवचनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-19-1x |
वेदाहं तात शास्त्राणि अपराणि पराणि च। उभयं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च।। | 12-19-1a 12-19-1b |
आकुलानि च शास्त्राणि हेतुभिश्चिन्तितानि च। निश्चयश्चैव यो मन्त्रे वेदाहं तं यथाविधि।। | 12-19-2a 12-19-2b |
त्वं तु केवलशास्त्रज्ञो वीरव्रतसमन्वितः। शास्त्रार्थं तत्त्वतो गन्तुं न समर्थः कथंचन।। | 12-19-3a 12-19-3b |
शास्त्रार्थतत्त्वदर्शी यो धर्मनिश्चयकोविदः। तेनाप्येवं न वाच्योऽयं यदि धर्मं प्रपश्यसि।। | 12-19-4a 12-19-4b |
भ्रातृसौहृदमास्थाय यदुक्तं वचनं त्वया। न्याय्यं युक्तं च कौन्तेय प्रीतोऽहं तेन तेऽर्जुन।। | 12-19-5a 12-19-5b |
`महेश्वरसमं सत्वं ब्रह्मणा चैव यत्समम्। वासुदेवसमं चैव न भूतं न भविष्यति।। | 12-19-6a 12-19-6b |
तथा त्वं योधमुख्येषु सत्वं परममिष्यते।। | 12-19-7a |
बलमिन्द्रे च वायौ च बलं यच्च जनार्दने। तद्वलं भीमसेने च त्वयि चार्जुना विद्यते।। | 12-19-8a 12-19-8b |
त्वत्समश्चित्रयोधी च दूरपाती च पाण्डव। दिव्यास्त्रबलसंपन्नः को वाऽन्यस्त्वत्समो नरः।। | 12-19-9a 12-19-9b |
युद्धधर्मेषु सर्वेषु क्रियाणां नैपुणेषु च। न त्वया सदृशः कश्चिन्त्रिषु लोकेषु विद्यते।। | 12-19-10a 12-19-10b |
धार्मिकं धर्मयुक्तं च निःशेषं ज्ञायते मया। धर्मसूक्ष्मं तु यद्वाच्यं तत्र दुष्प्रतरं त्वया। धनञ्जय न मे बुद्धिमतिशङ्कितुमर्हसि।। | 12-19-11a 12-19-11b 12-19-11c |
युद्धशास्त्रविदेव त्वं न वृद्धाः सेवितास्त्वया। समासविस्तरविदां न तेषां वेत्सि निश्चयम्।। | 12-19-12a 12-19-12b |
तपस्त्यागो विधिरिति निश्चयस्तात धीमताम्। परस्परं ज्याय एषामिति नः श्रेयसी मतिः।। | 12-19-13a 12-19-13b |
यत्त्वेतन्मन्यसे पार्थ न ज्यायोऽस्ति धनादिति। तत्र ते वर्तयिष्यामि यथा नैतत्प्रधानतः।। | 12-19-14a 12-19-14b |
तपः स्वाध्यायशीला हि दृश्यन्ते धार्मिका जनाः। ऋषयस्तपसा युक्ता येषां लोकाः सनातनाः।। | 12-19-15a 12-19-15b |
अजातश्मश्रवो धीरास्तथाऽन्ये वनवासिनः। अरुणाः केतवश्चैव स्वाध्यायेन दिवं गताः।। | 12-19-16a 12-19-16b |
उत्तरेण तु पन्थानमार्या विषयनिग्रहात्। अबुद्धिजं तमस्त्यक्त्वा लोकांस्त्यागवतां गताः।। | 12-19-17a 12-19-17b |
दक्षिणेन तु पन्थानं यं भास्वन्तं प्रचक्षते। एते क्रियावतां लोका ये श्मशानानि भेजिरे।। | 12-19-18a 12-19-18b |
अनिर्देश्या गतिः सा तु यां प्रपश्यन्ति मोक्षिणः। तस्मात्त्यागः प्रधानेष्टः स तु दुःखं प्रवेदितुम्।। | 12-19-19a 12-19-19b |
अनुस्मृत्य तु शास्त्राणि कवयः समवस्थिताः। अपीह स्यादपीह स्यात्सारासारदिदृक्षया।। | 12-19-20a 12-19-20b |
वेदवादानतिक्रम्य शास्त्राण्यारण्यकानि च। विपाट्य कदलीस्तम्भं सारं ददृशिरे न ते।। | 12-19-21a 12-19-21b |
अथैकान्तव्युदासेन शरीरे पाञ्चभौतिके। इच्छाद्वेषसमायुक्तमात्मानं प्राहुरिङ्गितैः।। | 12-19-22a 12-19-22b |
अग्राह्यं चक्षुषा सत्वमनिर्देश्यं च तद्गिरा। कर्महेतुपुरस्कारं भूतेषु पस्विर्तते।। | 12-19-23a 12-19-23b |
कल्याणगोचरं कृत्वा मानं तृष्णां निगृह्य च। कर्मसंततिमुत्सृज्य स्यान्निरालम्बनः सुखी।। | 12-19-24a 12-19-24b |
अस्मिन्नेवं सूक्ष्मगम्ये मार्गे सद्भिर्निषेविते। कथमर्थमनर्थाढ्यमर्जुन त्वं प्रशंससि।। | 12-19-25a 12-19-25b |
पूर्वशास्त्रविदोऽप्येवं जनाः पश्यन्ति भारत। क्रियासु निरता नित्यं दाने यज्ञे च कर्मणि।। | 12-19-26a 12-19-26b |
भवन्ति सुदुरावर्ता हेतुमन्तोऽपि पण्डिताः। दृढपूर्वे स्मृता मूढा नैतदस्तीति वादिनः।। | 12-19-27a 12-19-27b |
अनृतस्यावमन्तारो वक्तारो जनसंसदि। चरन्ति वसुधां कृत्स्नां वावदूका बहुश्रुताः।। | 12-19-28a 12-19-28b |
पार्थ यन्न विजानीमः कस्ताञ्ज्ञातुमिहार्हति। एवं प्राज्ञाः श्रुताश्चापि महान्तः शास्त्रवित्तमाः।। | 12-19-29a 12-19-29b |
तपसा महदाप्नोति बुद्ध्या वै विन्दते महत्। त्यागेन सुखमाप्नोति सदा कौन्तेय धर्मवित्।। | 12-19-30a 12-19-30b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि एकोनविंशोऽध्यायः।। 19।। |
12-19-1 अपराणि धर्मशास्त्राणि। पराणि ब्रह्मशास्त्राणि।। 12-19-2 अमूलानि च शास्त्राणि हेतुभिश्चित्रितानि च। निश्चयश्चैष यन्मन्त्र इति ट. ड. पाठः।। 12-19-3 त्वं तु केवलमस्त्रज्ञ इति झ.पाठः।। 12-19-11 तत्र विषये दुष्प्रतरं दुरवगाहम्।। 12-19-16 अरुणाः केतवः ऋषिप्रभेदाः। अरण्ये बहवश्चैवेति झ.पाठः।। 12-19-21 आरण्यकानि वेदान्तान्।। 12-19-24 मनस्तृणां निगृह्य चेति झ. पाठः।। 12-19-26 पूर्वशास्त्रविदः कर्मकाण्डविदोऽपि एवमर्थमनर्थत्वेन पश्यन्ति किमुत ज्ञानिनः।। 12-19-27 दुरावर्ताः दुःखेनापि सिद्धान्तं ग्राहयितुमशक्याः। दृढः पूर्वः प्राग्भवीयः संस्कारो येषां ते दृढपूर्वे। बहुव्रीहावप्यार्षी सर्वनामता।। 12-19-29 हे पार्थ यत् यान् लौकिकानप्यर्थान्न वयं विजानीमस्तान् इतरः को ज्ञातुमर्हति। न कोपि यथा। एवं प्राज्ञा अपि अस्माकमन्येषां च दुर्ज्ञेया इत्यर्थः।। 12-19-30 महद्वैराग्यम्। महत्परंब्रह्म।।
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