महाभारतम्-12-शांतिपर्व-166
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति संधेयासंधेयपुरुषलक्षणकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-166-1x |
पितामह महाप्राज्ञ कुरूणां प्रीतिवर्धन। प्रश्नं कंचित्प्रवक्ष्यामि तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।। | 12-166-1a 12-166-1b |
कीदृशा मानवाः सेव्याः कै प्रीति परमा भवेत्। आयत्यां च तदात्वे च के क्षमास्तान्वदस्व मे।। | 12-166-2a 12-166-2b |
न हि तत्र धनं स्फीतं न च संबन्धिबान्धवाः। तिष्ठन्ति यत्र सुहृदस्तिष्ठन्तीति मतिर्मम।। | 12-166-3a 12-166-3b |
दुर्लभो हि सुहृच्छ्रोता दुर्लभश्च हितः सुहृत्। एतद्धर्मभृतां श्रेष्ठ सर्वं व्याख्यातुमर्हसि।। | 12-166-4a 12-166-4b |
भीष्म उवाच। | 12-166-5x |
सन्धेयान्पुरुषान्राजन्नसन्धेयांश्च तत्त्वतः। वदतो मे निबोध त्वं निखिलेन युधिष्ठिर।। | 12-166-5a 12-166-5b |
लुब्धः क्रूरस्त्यक्तधर्मा निकृतिः शठ एव च। क्षुद्रः पापसमाचारः सर्वशङ्की तथाऽलसः।। | 12-166-6a 12-166-6b |
दीर्घसूत्रोऽनृजुः क्रुष्टो गुरुदारप्रधर्पकः। व्यसने यः परित्यागी दुरात्मा निरपत्रपः।। | 12-166-7a 12-166-7b |
सर्वतः पापदर्शी च नास्तिको वेदनिन्दकः। संप्रकीर्णेन्दियो लोके यः कालनिरतश्चरेत्।। | 12-166-8a 12-166-8b |
असभ्यो लोकविद्विष्टः समये चानवस्थितः। पिशुनोऽथाकृतप्रज्ञो मत्सरी पापनिश्चयः।। | 12-166-9a 12-166-9b |
दुःशीलोऽथाकृतात्मा च नृशंसः कितवस्तथा। मित्रैरपकृतिर्नित्यमटतेऽर्थं धनेप्सया।। | 12-166-10a 12-166-10b |
ददतश्च यथाशक्ति यो न तुष्यति मन्दधीः। अधैर्यमपि यो युङ्क्ते सदा मित्रं नराधमः।। | 12-166-11a 12-166-11b |
अस्थानक्रोधनो यश्च अकस्माच्च विरज्यते। सुहृदश्चैव कल्याणानाशु त्यजति किल्बिपी।। | 12-166-12a 12-166-12b |
अल्पेऽप्यपकृते मूढे न संस्मरनि यत्कृतम्। कार्यसेवी च मित्रेषु मित्रद्वेषी नराधिप। | 12-166-13a 12-166-13b |
शत्रुर्मित्रमुखो यश्च जिह्नप्रेक्षी विलोचनः। न तुष्यति च कल्याणे यम्त्यजेत्तादृशं नरम्।। | 12-166-14a 12-166-14b |
पानपो द्वेषणः क्रोधी निर्घृणः परुपस्तथा। परोपतापी मित्रध्रुक् तथा प्राणिवधे रतः।। | 12-166-15a 12-166-15b |
कृतघ्नश्चाधमो लोके न सन्धेयः कथंचन। मित्रद्वेषी ह्यसंधेयः सन्धेयानपि मे शृणु।। | 12-166-16a 12-166-16b |
कुलीना वाक्यसंपन्ना ज्ञानविज्ञानकोविदाः। रूपवन्तो गुणोपेतास्तथाऽलुब्धा जितश्रमाः।। | 12-166-17a 12-166-17b |
सन्मित्राश्च कृतज्ञाश्च सर्वज्ञा लोभवर्जिताः। माधुर्यगुणसंपन्नाः सत्यसन्धा जितेन्द्रियाः।। | 12-166-18a 12-166-18b |
व्यायामशीलाः सततं भृत्यपुत्राः कुलोद्वहाः। दोषैः प्रमुक्ताः प्रथितास्ते ग्राह्याः पार्थिवैर्नराः।। | 12-166-19a 12-166-19b |
यथाशक्ति समाचाराः संप्रतुष्यन्ति हि प्रभो। नास्थाने क्रोधवन्तश्च न चाकस्माद्विरागिणः।। | 12-166-20a 12-166-20b |
विरक्ताश्च न दुष्यन्ति मनसाऽप्यर्थकोविदाः। आत्मानं पीडयित्वाऽपि सुहृत्कार्यपरायणाः। विरज्यन्ति न मित्रेभ्यो वासो रक्तमिवाविकम्।। | 12-166-21a 12-166-21b 12-166-21c |
दोषांश्च लोभमोहादीनर्थेषु युवतीपु च। न दर्शयन्ति सुहृदो विश्वस्ता बन्धुवत्सलाः।। | 12-166-22a 12-166-22b |
लोष्टकाञ्चनतुल्यार्थाः सुहृत्सु दृढबुद्धयः। ये चरन्त्यनभीमाना निसृष्टार्थविभूषणाः। संगृह्णन्तः परिजनं स्वाम्यर्थपरमाः सदा।। | 12-166-23a 12-166-23b 12-166-23c |
ईदृशैः पुरुषश्रेष्ठैर्यः सन्धिं कुरुते नृपः। तस्य विस्तीर्यते राज्यं ज्योत्स्ना ग्रहपतेरिव।। | 12-166-24a 12-166-24b |
सत्ववन्तो जितक्रोधा बलवन्तो रणे सदा। जन्मशीलगुणोपेताः सन्धेयाः पुरुषोत्तमाः। | 12-166-25a 12-166-25b |
ये च दोपसमायुक्ता नराः प्रोक्ता मयाऽन। तेषामप्यधमा राजन्कृतघ्ना मित्रघातकाः। त्यक्तव्यास्तु दुराचाराः सर्वेषामिति निश्चयः। | 12-166-26a 12-166-26b 12-166-26c |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि षट्षष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 166।। |
12-166-3 मित्रस्यार्थादिभ्योऽन्तरङ्गत्वमाह नहीति।। 12-166-5 सन्धेयान नित्रीकर्तुं योग्यान्।। 12-166-7 क्रुष्टो लोकनिन्दितः।। 12-166-10 नित्यमिच्छतेऽर्थं परस्य य इति झ. पाठः।। 12-166-12 कार्यार्थमेव सेवते न तु धर्मार्धमिति कार्ययेती।। 12-166-14 विमोचनः विपरीतदृष्टिः।। 12-166-16 छिद्रान्वेपी ह्यसन्धेयं इति झ. पाठः।। 12-166-21 वासो रक्तमिवाधिकं मेपकम्वलः।। 12-166-26 कृतं उपकारं घ्नन्ति वाचाऽपलापेन वाते कृतघ्नाः त एव उपकर्तुर्नाशकरामिबहुहः।
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