महाभारतम्-12-शांतिपर्व-246
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति योगस्वरूपादिनिरूपकशुकसंबोध्यकव्यासवचनानुवादः।। 1।।
व्यास उवाच। | 12-246-1x |
पृच्छतस्तव सत्पुत्र यथावदिह तत्त्वतः। साङ्ख्यन्यायेन संयुक्तं यदेतत्कीर्तितं मया।। | 12-246-1a 12-246-1b |
योगकृत्यं तु ते कृत्स्नं वर्तयिष्यामि तच्छृणु। एकत्वं बुद्धिमनसोरिन्द्रियाणां च सर्वशः।। | 12-246-2a 12-246-2b |
आत्मनोऽव्यथिनस्तात् ज्ञानमेतदनुत्तमम्। तदेतदुपशान्तेन दान्तेनाध्यात्मशीलिना।। | 12-246-3a 12-246-3b |
आत्मारामेण बुद्धेन बोद्धव्यं शुचिकर्मणा। योगदोषान्समुच्छिन्द्यात्पञ्च यान्कवयो विदुः।। | 12-246-4a 12-246-4b |
कामं क्रोधं त्त लोभं च भयं स्वप्नं च पञ्चमम्। क्रोधं शमेन जयति कामं संकल्पवर्जनात्।। | 12-246-5a 12-246-5b |
सत्त्वसंसेवनाद्धीरो निद्रामुच्छेत्तुमर्हति। धृत्या शिश्नोदरं रक्षेत्पाणिपादं च चक्षुषा।। | 12-246-6a 12-246-6b |
चक्षुःश्रोत्रे च मनसा मनो वाचं च कर्मणा। अप्रमादाद्भयं जह्याल्लोभं प्राज्ञोपसेवनात्।। | 12-246-7a 12-246-7b |
एवमेतान्योगदोषाञ्चयेन्नित्यमतन्द्रितः। अग्नींश्च ब्राह्मणांश्चार्चेद्देवताः प्रणमेत च।। | 12-246-8a 12-246-8b |
वर्जयेदुशतीं वाचं हिंसायुक्तां मनोनुदाम्। ब्रह्म तेजोमयं शुक्रं यस्य सर्वमिदं ततम्।। | 12-246-9a 12-246-9b |
एतस्य सूत्रभूतस्य द्वयं स्थावरजङ्गमम्। ध्यानमध्ययनं दानं सत्यं ह्रीरार्जवं क्षमा।। | 12-246-10a 12-246-10b |
शोचमाहारसंशुद्धिरिन्द्रियाणां च निग्रहः। एतैर्विवर्धते तेजः पाप्मानं चापकर्षति।। | 12-246-11a 12-246-11b |
सिद्ध्यन्ति चास्य सर्वार्था विज्ञानं च प्रवर्धते। समः सर्वेषु भूतेषु लब्धालब्धेन वर्तयेत्।। | 12-246-12a 12-246-12b |
धूतपाप्मा तु तेजस्वी लघ्वाहारो जितेन्द्रियः। कामक्रोधौ वशे कृत्वा निनीषेद्ब्रह्मणः पदम्।। | 12-246-13a 12-246-13b |
मनसश्चेन्द्रियाणां च कृत्वैकाग्र्यं समाहितः। पूर्वरात्रेऽपरात्रे च धारयेन्मन आत्मनि।। | 12-246-14a 12-246-14b |
जन्तोः पञ्चेन्द्रियस्यास्य यदेकं छिद्रमिन्द्रियम्। ततोऽस्य स्रवते प्रज्ञा दृतेः पादादिवोदकम्।। | 12-246-15a 12-246-15b |
मनस्तु पूर्वमादद्यात्कुमीनमिव मत्स्यहा। ततः श्रोत्रं ततश्चक्षुर्जिह्वा घ्राणं च योगवित्।। | 12-246-16a 12-246-16b |
तत एतानि संयम्य मनसि स्थापयेद्यतिः। तथैवापो ह्यसंकल्पान्मनो ह्यात्मनि धारयेत्।। | 12-246-17a 12-246-17b |
पञ्चेन्द्रियाणि संधाय मनसि स्थापयेद्यतिः। यदैतान्यवतिष्ठन्ति मनःषष्ठानि चात्मनि।। | 12-246-18a 12-246-18b |
प्रसीदन्ति च संस्थाय तदा ब्रह्म प्रकाशते। विधूम इव सप्तार्चिरादित्य इव दीप्तिमान्।। | 12-246-19a 12-246-19b |
वैद्युतोऽग्निरिवाकाशे दृश्यतेऽऽत्मा तथाऽऽत्मनि। सर्वस्तत्र स सर्वत्र व्यापकत्वाच्च दृश्यते।। | 12-246-20a 12-246-20b |
तं पश्यन्ति महात्मानो ब्राह्मणा ये मनीषिणः। धृतिमन्तो महाप्राज्ञाः सर्वभूतहिते रताः।। | 12-246-21a 12-246-21b |
एवं परिमितं कालमाचरन्संशितव्रतः। आसीनो हि रहस्येको गच्छेदक्षरसाम्यताम्।। | 12-246-22a 12-246-22b |
विमोहो भ्रम आवर्तो घ्राणं श्रवणदर्शने। अद्भुतानि रसस्पर्शे शीतोष्णे मारुताकृतिः।। | 12-246-23a 12-246-23b |
प्रतिभामुपसर्गांश्चाप्युपसंगृह्य योगतः। तांस्तत्त्वविदनादृत्य आत्मन्येव निवर्तयेत्।। | 12-246-24a 12-246-24b |
कुर्यात्परिचयं योगे त्रैकाल्ये नियतो मुनिः। गिरिशृङ्गे तथा चैत्ये वृक्षाग्रेषु च योजयेत्।। | 12-246-25a 12-246-25b |
संनियम्येन्द्रियग्रामं कोष्ठे भाण्डमना इव। एकाग्रं चिन्तयेन्नित्यं योगान्नोद्वेजयेन्मनः।। | 12-246-26a 12-246-26b |
येनोपायेन शक्येत संनियन्तुं चलं मनः। तत्तद्युक्तो निषेवेत न चैव विचलेत्ततः।। | 12-246-27a 12-246-27b |
शून्या गिरि---श्वैव देवतायतनानि च। शून्यागारा---काग्रो निवासार्थमुपक्रमेत्।। | 12-246-28a 12-246-28b |
नाभिष्व---वाचा कर्मणा मनसाऽपि वा। उपे-----रो लब्धालब्धे समो भवेत्।। | 12-246-29a 12-246-29b |
यश्चैन-----न्देत यश्चैनमभिवादयेत्। समस्त-----भयोर्नाभिध्यायेच्छुभाशुभम्।। | 12-246-30a 12-246-30b |
न प्रहृ---भेषु नालाभेषु च चिन्तयेत्। समः स-------षु सधर्मा मातरिश्वनः।। | 12-246-31a 12-246-31b |
एवं सर्वात्मनः साधोः सर्वत्र समदर्शिनः। षण्मासान्नित्ययुक्तस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते।। | 12-246-32a 12-246-32b |
वेदनार्ताः प्रजा दृष्ट्वा समलोष्टाश्मकाञ्चनः। एतस्मिन्निरतो मार्गे विरमेन्न च मोहितः।। | 12-246-33a 12-246-33b |
अपि वर्णावकृष्टस्तु नारी वा धर्मकाङ्क्षिणी। तावप्येतेन मार्गेण गच्छेतां परमां गतिम्।। | 12-246-34a 12-246-34b |
अजं पुराणमजरं सनातनं यदिन्द्रियैरुपलभेत निश्चलैः। अणोरणीयो महतो महत्तरं तदात्मना पश्यति युक्तमात्मवान्।। | 12-246-35a 12-246-35b 12-246-35c 12-246-35d |
इदं महर्षेर्वचनं महात्मनो यथावदुक्तं मनसाऽनुदृश्य च। अवेक्ष्य चेमां परमेष्ठिसाम्यतां प्रयान्ति यां भूतगतिं मनीषिणः।। | 12-246-36a 12-246-36b 12-246-36c 12-246-36d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि षट्चत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 246।। |
12-246-3 आत्मनो व्ययिन इति ध. पाठः।। 12-246-9 सर्वमिदं रस इति झ. पाठः।। 12-246-10 एकस्य सर्वं भूतस्येति ड. पाठः।। 12-246-12 विज्ञानं च प्रकाशत इति ड. थ. पाठः।। 12-246-15 दृतेश्वर्मकोशस्य।। 12-246-16 कुमीनं जालदंशक्षमं मीनम्। कुलीरमिव मत्स्यहेति ड. थ. पाठः।। 12-246-18 तं च ज्ञानेनेति ड. थ. पाठः। पञ्चज्ञानेन संधाय मनः संस्थापयेद्यतिरिति ध. पाठः।। 12-246-23 प्रमादो भ्रम इति ड.थ. पाठः।। 12-246-24 मनसैव निवर्तयेदिति ड. थ. पाठः।। 12-246-26 कोष्ठं भाण्डं यथैय चेति ध. पाठः।। 12-246-30 यश्चैनमभिनन्देत यश्चैनमपवादयेत् इति झ. पाठः।। 12-246-32 सर्वात्मना साधोरिति ड. पाठः। स्वस्थात्मन इति झ. पाठः।।
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