महाभारतम्-12-शांतिपर्व-155
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नारदसूचितेन वायुना शाल्मलिमेत्य परेद्युस्तद्भञ्जनप्रतिज्ञानम्।। 1।। वायुबलज्ञेन शाल्मलिना तदागमनात्प्रागेव स्वेनैव स्वीयशाखावशातनपूर्वकमवस्थानम्।। 2।। परेद्युरागतेन वायुना तंप्रति तत्कृतशाखावशातनस्यापि स्वबलप्रयोज्यत्वोक्तिः।। 3।।
भीष्म उवाच। | 12-155-1x |
एवमुक्त्वा तु राजेन्द्र शाल्मलिं ब्रह्मवित्तमः। नारदः पवने सर्वं शाल्मलेर्वाक्यमब्रवीत्।। | 12-155-1a 12-155-1b |
नारद उवाच। | 12-155-2x |
हिमवत्पृष्ठजः कश्चिच्छाल्मलिः परिवारवान्। बृहन्मूलो बृहच्छायः स त्वां वायोऽवमन्यते।। | 12-155-2a 12-155-2b |
बहुव्याक्षेपयुक्तानि त्वामाह वचनानि सः। न युक्तानि मया वायो तानि वक्तुं तवाग्रतः।। | 12-155-3a 12-155-3b |
जानामि त्वामहं वायो सर्वप्राणभृतां वरम्। वरिष्ठं च गरिष्ठं च सर्वलोकेश्वरं प्रभुम्।। | 12-155-4a 12-155-4b |
भीष्म उवाच। | 12-155-5x |
एतत्तु वचनं श्रुत्वा नारदस्य समीरणः। शाल्मलिं तमुपागम्य क्रुद्धो वचनमब्रवीत्।। | 12-155-5a 12-155-5b |
वायुरुवाच। | 12-155-6x |
शाल्मले नारदो गच्छंस्त्वयोक्तो मद्विगर्हणम्। अहं वायुः प्रभावं ते दर्शयाम्यात्मनो बलम्।। | 12-155-6a 12-155-6b |
नाहं त्वां नाभिजानामि विदितश्चासि मे द्रुम। पितामहः प्रजासर्गे त्वयि विश्रान्तवान्प्रभुः।। | 12-155-7a 12-155-7b |
तस्य विश्रमणादेव प्रसादौ मत्कृतस्तव। अभूत्तस्य प्रसादात्त्वां न भज्यामि द्रुमाधम।। | 12-155-8a 12-155-8b |
यन्मां त्वमवजानीषे यथाऽन्यं प्राकृतं तथा। दर्शयाम्येष चात्मानं यथा मां नावमन्यसे।। | 12-155-9a 12-155-9b |
भीष्म उवाच। | 12-155-10x |
एवमुक्तस्ततः प्राह शाल्मलिः प्रहसन्निव। पवन त्वं वने क्रुद्धो दर्शयात्मानमात्मना।। | 12-155-10a 12-155-10b |
मयि वै मुच्यतां क्रोधः किं मे क्रुद्धः करिष्यसि। न ते बिभेमि पवन यद्यपि त्वं स्वयं प्रभुः। बलाधिकोऽहं त्वत्तश्च न भीः कार्या मया तव।। | 12-155-11a 12-155-11b 12-155-11c |
ये तु बुद्ध्या हि बलिनस्ते भवन्ति बलीयसः। प्राणमात्रबला ये वै नैव ते बलिनो मताः।। | 12-155-12a 12-155-12b |
इत्येवमुक्तः पवनः श्व इत्येवाब्रवीद्वचः। दर्शयिष्यामि ते तेजस्ततो रात्रिरुपागमत्।। | 12-155-13a 12-155-13b |
अथ निश्चित्य मनसा शाल्मलिर्वैरधारणम्। पश्यमानस्तदात्मानमसमं मातरिश्वना।। | 12-155-14a 12-155-14b |
नारदे यन्मया प्रोक्तं वचनं प्रति तन्मृषा। असमर्थो ह्यहं वायोर्बलेन बलवान्हि सः।। | 12-155-15a 12-155-15b |
मारुतो बल्यान्नित्यं यथा वै नारदोऽब्रवीत्। अहं तु दुर्बलोऽन्येभ्यो वृक्षेभ्यो नात्र संशयः।। | 12-155-16a 12-155-16b |
किं तु बुद्ध्या समो नास्ति मम कश्चिद्वनस्पतिः। तदहं बुद्धिमास्थाय भयं त्यक्ष्ये समीरणात्।। | 12-155-17a 12-155-17b |
यदि तां बुद्धिमास्थाय तिष्ठेयुः पर्णिनो वने। अरिष्टाः स्युः सदा क्रुद्धात्पवनान्नात्र संशयः।। | 12-155-18a 12-155-18b |
ते तु बाला न जानन्ति यथा नैतान्समीरणः। समीरयेत संक्रुद्धो यथा जानाम्यहं तथा।। | 12-155-19a 12-155-19b |
भीष्म उवाच। | 12-155-20x |
ततो निश्चित्य मनसा शाल्मलिः क्षुभितस्तदा। शाखाः स्कन्धान्प्रशाखाश्च स्वयमेव व्यशातयत्।। | 12-155-20a 12-155-20b |
स परित्यज्य शाखाश्च पत्राणि कुसुमानि च। प्रभाते वायुमायान्तं प्रेक्षते स्म वनस्पतिः।। | 12-155-21a 12-155-21b |
ततः क्रुद्धः श्वसन्वायुः पातयन्वै महाद्रुमान्। आजगामाथ तं देशमास्ते यत्र स शाल्मलिः।। | 12-155-22a 12-155-22b |
तं हीनपर्णं पतिताग्रशाखं निशीर्णपुष्पं प्रसमीक्ष्य वायुः। उवाच वाक्यं स्ययमान एवं मुदायुतः शाल्मलिं रुग्णशाखम्।। | 12-155-23a 12-155-23b 12-155-23c 12-155-23d |
वायुरुवाच। | 12-155-24x |
अहमप्येवमेव त्वां कुर्यां वै शाल्मले रुषा। आत्मना यत्कृतं कृच्छ्रं शाखानामपकर्षणम्।। | 12-155-24a 12-155-24b |
हीनपुष्पाग्रशाखस्त्वं शीर्णाङ्कुरपलाशकः। आत्मदुर्मन्त्रितेनेह मद्वीर्यवशगः कृतः।। | 12-155-25a 12-155-25b |
भीष्म उवाच। | 12-155-26x |
एतच्छ्रुत्वा वचो वायोः शाल्मलिर्व्रीडितस्तदा। अतप्यत वचः स्मृत्वा नारदो यत्तदाऽब्रवीत्।। | 12-155-26a 12-155-26b |
एवं हि राजशार्दूल दुर्बलः सन्वलीयसा। वैरमासञ्जते बालस्तप्यते शाल्मलिर्यथा।। | 12-155-27a 12-155-27b |
तस्माद्वैरं न कुर्वीत दुर्बलो बलवत्तरैः। शोचेद्धि वैरं कुर्वाणो यथा वै शाल्मलिस्तथा।। | 12-155-28a 12-155-28b |
न हि वैरं महात्मानो विवृण्वन्त्यपकारिषु। शनैः शनैर्महाराज दर्शयन्ति स्म ते बलम्।। | 12-155-29a 12-155-29b |
वैरं न कुर्वीत नरो दुर्बुद्धिर्बुद्धिजीविना। बुद्धिर्वुद्धिमतो याति तूलष्विव हुताशनः।। | 12-155-30a 12-155-30b |
न हि बुद्ध्या समं किंचिद्विद्यते पुरुषे नृप। तथा बलेन राजेन्द्र न समोऽस्तीह कश्चन।। | 12-155-31a 12-155-31b |
तस्मात्क्षमेत बालाय जडान्धवधिराय च। बलाधिकाय राजेन्द्र तद्दृष्टं त्वयि शत्रुहन्।। | 12-155-32a 12-155-32b |
अक्षौहिण्यो दशैका च सप्त चैव महाद्युते। बलेन न समा राजन्नर्जुनस्य महात्मनः।। | 12-155-33a 12-155-33b |
निहताश्चैव भग्नाश्च पाण्डवेन यशस्विना। चरता बलमास्थाय पाकशासनिना मृधे।। | 12-155-34a 12-155-34b |
उक्ताश्च ते राजधर्मा आपद्धर्माश्च भारत। विस्तरेण महाराज किं भूयः प्रव्रवीमि ते।। | 12-155-35a 12-155-35b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि पञ्चषच्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 155।। |
12-155-8 रक्ष्यसे तेन दुर्बुद्धे नात्मवीर्याद्द्रुमाधमेति झ. पाठः।। 12-155-27 वैरमारभते इति झ. पाठः।। 12-155-30 तृणेष्विव हुताशनः इति झ. पाठः।।
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