महाभारतम्-12-शांतिपर्व-035
← शांतिपर्व-034 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-035 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-036 → |
व्यासेन युधिष्ठिरंप्रति भक्ष्याभक्ष्यपात्रापात्रविवेचनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-35-1x |
किं भक्ष्यं चाप्यभक्ष्यं च किंच देयं प्रशस्यते। किंच पात्रमपात्रं वा तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-35-1a 12-35-1b |
व्यास उवाच। | 12-35-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। सिद्धानां चैव संवादं मनोश्चैव प्रजापतेः।। | 12-35-2a 12-35-2b |
ऋषयस्तु व्रतपराः समागम्य पुरा विभुम्। धर्मं पप्रच्छुरासीनमादिकाले प्रजापतिम्।। | 12-35-3a 12-35-3b |
कथमन्त्रं कथं दानं गम्यागम्याः कथं स्त्रियः। कार्याकार्यं च यत्सर्वं शंस वै त्वं प्रजापते।। | 12-35-4a 12-35-4b |
तैरेवमुक्तो भगवान्मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत्। शुश्रूषध्वं यथावृत्तं धर्मं व्याससमासतः।। | 12-35-5a 12-35-5b |
अनादेशे जपो होम उपवासस्तथैव च। आत्मज्ञानं पुण्यनद्यो यत्र प्रायश्च तत्पराः।। | 12-35-6a 12-35-6b |
अनादिष्टं तथैतानि पुण्यानि धरणीभृतः। सुवर्णप्राशनमपि रत्नादिस्नानमेव च।। | 12-35-7a 12-35-7b |
देवस्थानाभिगमनमाज्यप्राशनमेव च। एतानि मेध्यं पुरुषं कुर्वन्त्याशु न संशयः।। | 12-35-8a 12-35-8b |
न गर्वेण भवेत्प्राज्ञः कदाचिदपि मानवः। दीर्घमायुरथेच्छन्हि त्रिरात्रं चोष्णपो भवेत्।। | 12-35-9a 12-35-9b |
अदत्तस्यानुपादानं दानमध्ययनं तपः। अहिंसा सत्यमक्रोधं क्षमा धर्मस्य लक्षणम्।। | 12-35-10a 12-35-10b |
स एव धर्मः सोऽधर्मो देशकाले प्रतिष्ठितः। आदानमनृतं हिंसा धर्मो ह्यात्यन्तिकः स्मृतः।। | 12-35-11a 12-35-11b |
द्विविधौ चाप्युभावेतौ धर्माधर्मौ विजानताम्। अप्रवृत्तिः प्रवृत्तिश्च द्वैविध्यं लोकवेदयोः।। | 12-35-12a 12-35-12b |
अप्रवृत्तेरमर्त्यत्वं मर्त्यत्वं कर्मणः फलम्। अशुभस्याशुभं विद्याच्छुभस्य शुभमेव च। एतयोश्चोभयोः स्यातां शुभाशुभतया तथा।। | 12-35-13a 12-35-13b 12-35-13c |
दैवं च दैवसंयुक्तं प्राणश्च प्रलयस्तथा। अप्रेक्षापूर्वकरणादशुभानां शुभं फलम्।। | 12-35-14a 12-35-14b |
ऊर्ध्वं भवति संदेहादिहादिष्टार्थमेव च। अप्रेक्षापूर्वकरणात्प्रायश्चित्तं विधीयते।। | 12-35-15a 12-35-15b |
क्रोधमोहकृते चैव दृष्टान्तागमहेतुभिः। शरीराणामुपक्लेशो मनसश्च प्रियाप्रिये। तदौषधैश्च मन्त्रैश्च प्रायश्चित्तैश्च शाम्यति।। | 12-35-16a 12-35-16b 12-35-16c |
उपवासेनैकरात्रं दण्डोत्सर्गे नराधिपः। विशुद्ध्येदात्मशुद्ध्यर्थं त्रिरात्रं तु पुरोहितः।। | 12-35-17a 12-35-17b |
क्षयं शोकं प्रकुर्वाणो न म्रियेत यदा नरः। शस्त्रादिभिरुपाविष्टस्त्रिरात्रं तत्र निर्दिशेत्।। | 12-35-18a 12-35-18b |
जातिश्रेण्यधिवासानां कुलधर्मांश्च शाश्वतान्। वर्जयन्ति च ये धर्मं तेषां धर्मो न विद्यते।। | 12-35-19a 12-35-19b |
दश वा वेदशास्त्रज्ञास्त्रयो वा धर्मपाठकाः। यद्ब्रूयुः कार्य उत्पन्ने स धर्मो धर्मसंशये।। | 12-35-20a 12-35-20b |
अनुष्णा मृत्तिका चैव तथा क्षुद्रपिपीलिकाः। श्लेष्मातकस्तथा विप्रैरभक्ष्यं विषमेव च।। | 12-35-21a 12-35-21b |
अभक्ष्या ब्राह्मणैर्मत्स्याः शकलैर्ये विवर्जिताः। चतुष्पात्कच्छपादन्यो मण्डूका जलजाश्च ये।। | 12-35-22a 12-35-22b |
भासा हंसाः सुपर्णाश्च चक्रवाकाः प्लवा बकाः। काको मद्रुश्च गृध्रश्च श्येनोलूकस्तथैव च।। | 12-35-23a 12-35-23b |
क्रव्यादा दंष्ट्रिणः सर्वे चतुष्पात्पक्षिणश्च ये। येषां चोभयतो दन्ताश्चतुर्दंष्ट्राश्च सर्वशः।। | 12-35-24a 12-35-24b |
एडकाश्च मृगोष्ट्राणां सूकराणां गवामपि। मानुषीणां खरीणां च न पिबेद्ब्राह्मणः पयः।। | 12-35-25a 12-35-25b |
प्रेतान्नं सूतकान्नं च यच्च किंचिदनिर्दशम्। अभोज्यं चाप्यपेयं च धेनोर्दुग्धमनिर्दशम्।। | 12-35-26a 12-35-26b |
राजान्नं तेज आदत्ते शूद्रान्नं ब्रह्मवर्चसम्। आयुः सुवर्णकारान्नमवीरायाश्च योषितः।। | 12-35-27a 12-35-27b |
विष्ठा वार्धुषिकस्यान्नं गणिकान्नमथेन्द्रियम्। मृष्यन्ति ये चोपपतिं स्त्रीजितान्नं च सर्वशः।। | 12-35-28a 12-35-28b |
दीक्षितस्य कदर्यस्य क्रतुविक्रयिकस्य च। तक्ष्णश्चर्मावकर्तुश्च पुंश्चल्या रजकस्य च।। | 12-35-29a 12-35-29b |
चिकित्सकस्य यच्चान्नमभोज्यं रक्षिणस्तथा। गणग्रामाभिशस्तानां रङ्गस्त्रीजीविनां तथा।। | 12-35-30a 12-35-30b |
परिवित्तीनामपुंसां च बन्दिद्यूतविदां तथा। वामहस्ताहृतं चान्नं शुष्कं पर्युषितं च यत्।। | 12-35-31a 12-35-31b |
सुरानुगतमुच्छिष्टमभोज्यं शेषितं च यत्। पिष्टमांसेक्षुशाकानामाविकाजापयस्तथा। सक्तु धाना करम्भाश्च नोपभोग्याश्चिरस्थिताः।। | 12-35-32a 12-35-32b 12-35-32c |
पायसं कृसरं मांसमपूपाश्च वृथा कृताः। अपेयाश्चाप्यभक्ष्याश्च ब्राह्मणैर्गृहमेधिभिः।। | 12-35-33a 12-35-33b |
देवानृषीन्मनुष्यांश्च पितॄन्गृह्याश्च देवताः। पूजयित्वा ततः पश्चाद्गृहस्थो भोक्तुमर्हति।। | 12-35-34a 12-35-34b |
यथा प्रव्रजितो भिक्षुस्तथैव स्वे गृहे वसेत्। एवंवृत्तः प्रियैर्दारैः संबसन्धर्ममाप्नुयात्।। | 12-35-35a 12-35-35b |
न दद्याद्यशसे दानं न भयान्नोपकारिणे। न नृत्यगीतशीलेषु हासकेषु च धार्मिकः।। | 12-35-36a 12-35-36b |
न मत्ते चैव नोन्मत्ते न स्तेने न च कुत्सके। न वाग्घीने विवर्णे वा नाङ्गहीने न वामने।। | 12-35-37a 12-35-37b |
न दुर्जने दौष्कुले वा व्रतैर्यो वा न संस्कृतः। न श्रोत्रियमृते दानं ब्राह्मणे ब्रह्मवर्जिते।। | 12-35-38a 12-35-38b |
असम्यच्कैव यद्दत्तमसम्यक् च प्रतिग्रहः। उभयं स्यादनर्थाय दातुरादातुरेव च।। | 12-35-39a 12-35-39b |
यथा खदिरमालम्ब्य शिलां वाप्यर्णवं तरन्। मञ्जेत मञ्जतस्तद्वद्दाता यश्च प्रतिग्रही।। | 12-35-40a 12-35-40b |
काष्ठैरार्द्रैर्यथा वह्निरुपस्तीर्णो न दीप्यते। तपःस्वाध्यायचारित्रैरेवं हीनः प्रतिग्रही।। | 12-35-41a 12-35-41b |
कपाले यद्वदापः स्युः श्वदृतौ च यथा पयः। आश्रयस्थानदोषेण वृत्तहीने तथा श्रुतम्।। | 12-35-42a 12-35-42b |
निर्मन्त्रो निर्वृतो यः स्यादशास्त्रज्ञोऽनसूयकः। अनुक्रोशात्प्रदातव्यं हीनेष्वव्रतिकेषु च।। | 12-35-43a 12-35-43b |
न वै देयमनुक्रोशाद्दीनायापगुणाय तु। आप्ताचरित इत्येव धर्म इत्येव वा पुनः।। | 12-35-44a 12-35-44b |
निष्कारणं स्मृतं दत्तं ब्राह्मणे ब्रह्मवर्जिते। न फलेत्पात्रदोषेण न चात्रास्ति विचारणा।। | 12-35-45a 12-35-45b |
यथा दारुमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृगः। ब्राह्मणश्चानधीयानस्त्रयस्ते नामधारकाः।। | 12-35-46a 12-35-46b |
यथा षण्ढोऽफलः स्त्रीषु यथा गौर्गवि चाफला। शकुनिर्वाप्यपक्षः स्यान्निर्मन्त्रो ब्राह्मणस्तथा।। | 12-35-47a 12-35-47b |
ग्रामस्थानं यथा शून्यं यथा कूपश्च निर्जलः। यथा हुतमनग्नौ च तथैव स्यान्निराकृतौ।। | 12-35-48a 12-35-48b |
देवतानां पितॄणां च हव्यकव्यविनाशकः। सर्वथाऽर्थहरो मूर्खो न लोकान्प्राप्तुमर्हति।। | 12-35-49a 12-35-49b |
एतत्ते कथितं सर्वं यथावृत्तं युधिष्ठिर। समासेन महद्ध्येतच्छ्रोतव्यं नरतर्षभ।। | 12-35-50a 12-35-50b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि पञ्चत्रिंशोऽध्यायः।। 35।। |
12-35-3 प्रजापतिं मनुम्।। 12-35-4 कथं पात्रं दानमध्ययनं तप इति झ. पाठः। तत्र कथं केन प्रकारेण। अन्नमदनीयं किंद्रव्यक कर्तव्यमित्यर्थः।। 12-35-5 व्यारो विस्तरः।। 12-35-6 अनादेशे विशेषतोऽनुक्ते दोषे। यत्र देशे तत्पराः जपादिपराः प्रायः बहुशः सन्ति सोऽपि गङ्गादिवत्पावन इत्यर्थः।। 12-35-7 तथा जपादिवत्। पुण्यान्येतानि वक्ष्यमाणानि। धरणीभृतः पर्वता ब्रह्मगिरिप्रभृतयः। आदिपदात्सुवर्णस्नानादि। अनादिष्टं प्रायश्चित्तं सामान्यमित्यर्थः।। 12-35-9 गर्वेण युक्तो न भवेत् पूजां नावगणयेत्। अवगणने तु त्रिरात्रमुष्णपो भवेदिति तप्तकृच्छ्रं धर्मशास्त्रोक्तं कुर्यादित्यर्थः।। 12-35-10 तप उपवासादि।। 12-35-11 आदानं स्तेयम्। प्राणात्ययादावधर्मस्यापि स्तेयादेर्धर्मत्वमित्यर्थः।। 12-35-12 वैदिक्यौ प्रवृत्त्यप्रवृत्ती मर्त्यात्वामृतत्वप्रदे। लौकिक्यौ तु ते शुभे चेच्छुभफले अशुभे चेदशुभफले इत्याह द्वाभ्यां द्विविधाविति।। 12-35-13 एतयोर्लौकिक्योः। फले अपि कारणानुरूपे इत्यर्थः।। 12-35-14 दैवयुक्तं शास्त्रीयं कर्म। प्राणो जीवनम्। एतेषां चतुर्णामप्रेक्षापूर्वं यत्किंचिक्रियते तर्ह्यशुभानो नीचानामपि पुंसां तस्य फलं शुभं भवति।। 12-35-15 सत्यपि संदेहे यल्लोकविगानपरिहारार्थं कृतं नित्यादि यच्च केवलं दृष्टार्थं कृतं श्येनादि तत्रोभयत्रापि।। 12-35-16 क्रोधादिना यन्मनसः प्रियमप्रियं कृतं तत्र दृष्टान्तागमहेतुभिः पूर्वोक्तैर्यावदेन इत्याद्यैः प्रमाणैर्देहस्य शोषणमुपवासादिकं प्रायश्चित्तं कर्तव्यम्। औषधैर्हविष्याशनैः। मन्त्रैश्च पवित्रजपैः। चादन्यदपि। तीर्थाटनश्रमादिभिस्तत्पापं शाम्यतीति सार्धम्।। 12-35-18 क्षयं पुत्रादिमरणनिमित्तमात्मवधार्थं प्रवृत्तो न म्रियेत चेत् त्रिरात्रमुपवासं चरेत्।। 12-35-19 जातिर्ब्राह्मणत्वादिः। श्रेणी गृहस्थादीनां पङ्क्तिः। अधिवासो जन्भभूमिः। जात्यादिधर्मांश्च ये वर्जयन्ति तेषां धर्मः प्रायश्चित्तादि स्वरूपो न विद्यते।। 12-35-20 पाठकाः शोधकाः। कार्ये प्रायश्चित्तनिमित्ते दोषे।। 12-35-25 एडका मेषी।। 12-35-26 अभोज्यं पायसाद्यन्तर्गतम्।। 12-35-27 अवीरायाः पतिपुत्रहीनायाः।। 12-35-28 इन्द्रियं शुक्रम्। गणिकादित्रयाणामन्नम्।। 12-35-29 दीक्षितस्य अग्नीषोमीयवपाहोमात्प्राङ् न भोक्तव्यम्। कदर्यो धनव्ययभयाद्भोगत्यागहीनः।। 12-35-30 रक्षिणो ग्रामपालकस्य सीमादिरक्षिणो वा।। 12-35-31 वाद्यमानाहृतं चान्नमिति ट.ड.थ. पाठः।। 12-35-32 शेषितं कुटुम्बायाऽदत्त्वात्मार्थं रक्षितम्। धाना भृष्टयवाः। करम्भा दधिसक्तवः।। 12-35-33 कृसरं तिलमिश्र ओदनः। वृथाकृताः देवताद्युद्देशं विना कृताः।। 12-35-36 हासकेषु परिहासपरेषु भाण्डेषु।। 12-35-37 वाग्धीने मूके मूर्खे वा।। 12-35-42 श्वदृतौ शुनकचर्ममये कोशे।। 12-35-43 अनुक्रोशाद्दयया।। 12-35-44 आप्तचरित इष्टकारीति बुद्ध्या धर्मबुद्ध्या वा निर्मन्त्रे न देयमित्याह नवा इति।। 12-35-45 निष्कारणं निष्फलम्।। 12-35-48 निराकृतौ मूर्खे।।
शांतिपर्व-034 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-036 |