महाभारतम्-12-शांतिपर्व-072
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युधिष्ठिरंप्रति भीष्मेण ब्राह्मणस्य श्रैष्ठयोपपादनपूर्वकं चातुर्वर्ण्यधर्मकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-72-1x |
`कीदृशो ब्राह्मणो राजा कार्याकार्यविचारणे। क्षमः कर्तुं समर्थो वा तन्मे ब्रूहि पितामह।।' | 12-72-1a 12-72-1b |
भीष्म उवाच। | 12-72-2x |
य एव तु सतो रक्षेदसतश्च निवर्तयेत्। स एव राज्ञा कर्तव्यो राजन्राजपुरोहितः।। | 12-72-2a 12-72-2b |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। पुरूरवस ऐलस्य संवादं मातरिश्वना।। | 12-72-3a 12-72-3b |
पुरूरवा उवाच। | 12-72-4x |
कुतः स्विद्ब्राह्मणो जातो वर्णाश्चापि कुतस्त्रयः। कस्माच्च भवति श्रेयांस्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।। | 12-72-4a 12-72-4b |
मातरिश्वोवाच। | 12-72-5x |
ब्राह्मणो मुखतः सृष्टो ब्रह्मणो राजसत्तम। बाहुभ्यां क्षत्रियः सृष्ट ऊरुभ्यां वैश्य एव च।। | 12-72-5a 12-72-5b |
वर्णानां परिचर्यार्यं त्रयाणां भरतर्षभ। वर्णश्चतुर्थः पश्चात्तु पभ्द्यां शूद्रो विनिर्मितः।। | 12-72-6a 12-72-6b |
ब्राह्मणो जायमानो हि पृथिव्यामनुजायते। ईश्वरः सर्वभूतानां धर्मकोशस्य गुप्तये।। | 12-72-7a 12-72-7b |
`सर्वस्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किंचिदिह दृश्यते। धर्मयुक्तं प्रशस्तं च जगत्यस्मिन्नृपात्मज।।' | 12-72-8a 12-72-8b |
ततः पृथिव्या यन्तारं क्षत्रियं दण्डधारणे। द्वितीयं वर्णमकरोत्प्रजानामनुगुप्तये।। | 12-72-9a 12-72-9b |
वैश्यस्तु धनधान्येन त्रीन्वर्णान्बिभृयादिमान्। शूद्रो ह्येतान्परिचरेदिति ब्रह्मानुशासनम्।। | 12-72-10a 12-72-10b |
ऐल उवाच। | 12-72-11x |
द्विजस्य क्षत्रबन्धोर्वा कस्येयं पृथिवी भवेत्। धर्मतः सह वित्तेन सम्यग्वायो प्रचक्ष्व मे।। | 12-72-11a 12-72-11b |
वायुरुवाच। | 12-72-12x |
विप्रस्य सर्वमेवैतद्यत्किंचिज्जगतीगतम्। `धनं धान्यं हिरण्यं च स्त्रियो रत्नानि वाहनम्।। | 12-72-12a 12-72-12b |
मङ्गलं च प्रशस्तं च यच्चान्यदपि विद्यते। ' ज्येष्ठेनाभिजनेनेह तद्धर्मकुशला विदुः।। | 12-72-13a 12-72-13b |
स्वमेव ब्राह्मणो भुङ्क्ते स्वं वस्ते स्वं ददाति च। गुरुर्हि सर्ववर्णानां ज्येष्ठः श्रेष्ठश्च वै द्विजः।। | 12-72-14a 12-72-14b |
पत्यभावे यथैव स्त्री देवरं कुरुते पतिम्। `आनन्तर्यात्तथा क्षत्रं पृथिवी कुरुते पतिम्।' एष ते प्रथमः कल्प आपद्यन्यो भवेदतः।। | 12-72-15a 12-72-15b 12-72-15c |
यदि स्वर्गे परं स्थानं धर्मतः परिमार्गसि। यत्किंचिज्जयसे भूमिं ब्राह्मणाय निवेदय।। | 12-72-16a 12-72-16b |
श्रुतवृत्तोपपन्नाय धर्मज्ञाय तपस्विने। स्वधर्मपरितृप्ताय यो न वित्तपरो भवेत्।। | 12-72-17a 12-72-17b |
यो राजानं नयेद्बुद्ध्या सर्वतः परिपूर्णया। ब्राह्मणो हि कुले जातः कृतप्रज्ञो विनीतवान्।। | 12-72-18a 12-72-18b |
श्रेयो नयति राजानं ब्रुवंश्चित्रां सरस्वतीम्। राजा चरति यं धर्मं ब्राह्मणेन निदर्शितम्।। | 12-72-19a 12-72-19b |
शुश्रूषुरनहंवादी क्षत्रधर्मव्रते स्थितः। तावता सत्कृतः प्राज्ञश्चिरं यशसि तिष्ठति।। | 12-72-20a 12-72-20b |
तस्य धर्मस्य सर्वस्य भागी राजपुरोहितः। एवमेव प्रजाः सर्वा राजानमभिसंश्रिताः।। | 12-72-21a 12-72-21b |
`ब्राह्मणं च सविद्वांसं राजशास्त्रविपश्चितम्।' सम्यग्वृत्ताः स्वधर्मस्था न कुतश्चिद्भयान्विताः।। | 12-72-22a 12-72-22b |
राष्ट्रे चरन्ति यं धर्मं राज्ञा साध्वभिरक्षिताः। चतुर्थं तस्य धर्मस्य राजा भागं तु विन्दति।। | 12-72-23a 12-72-23b |
देवा मनुष्याः पितरो गन्धर्वोरगराक्षसाः। यज्ञमेवोपजीवन्ति नास्ति यष्टा ह्यराजके।। | 12-72-24a 12-72-24b |
इतो दत्तेन जीवन्ति देवताः पितरस्तथा। राजन्येवास्य धर्मस्य योगक्षेमः प्रतिष्ठितः।। | 12-72-25a 12-72-25b |
छायायामप्सु वायौ च सुखमुष्णेऽधिगच्छति। अग्नौ वाससि सूर्ये च सुखं शीतेऽधिगच्छति। शब्दे स्पर्शे रसे रूपे गन्धे च रमते मनः।। | 12-72-26a 12-72-26b 12-72-26c |
तेषु भोगेषु सर्वेषु न भीतो लभते सुखम्। अभयस्य हि यो दाता तस्यैव सुमहत्फलम्।। | 12-72-27a 12-72-27b |
न हि प्राणसमं दानं त्रिषु लोकेषु विद्यते। इन्द्रो राजा यमो राजा धर्मो राजा तथैव च। राजा बिभर्ति भूतानि राज्ञा सर्वमिदं धृतम्।। | 12-72-28a 12-72-28b 12-72-28c |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि द्विसप्ततितमोऽध्यायः।। 72।। |
12-72-2 निवर्तयेद्राज्याद्दूरीकारयेत्।।
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