महाभारतम्-12-शांतिपर्व-180
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युधिष्ठिरेण जगत्सृष्टिप्रकारं पृष्टेन भीष्मेण भरद्वाजाय भृगूदितसृष्टिप्रकारकथनारम्भः।। 1।। भृगुणा भरद्वाजं प्रतिमहत्तत्त्वादिपद्मपर्यन्तसृष्टिप्रकारकथनम्।। 2।। तथा पझकर्णिकाभूतमेरुस्थेन ब्रह्मणा लोकसृष्टिकथनम्।। 3।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-180-1x |
कुतः सृष्टमिदं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम्। प्रलये च किमभ्येति तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-180-1a 12-180-1b |
ससागरः सगगनः सशैलः सबलाहकः। सभूमिः साग्निपवनो लोकोऽयं केन निर्मितः।। | 12-180-2a 12-180-2b |
कथं सृष्टानि भूतानि कथं वर्णविभक्तयः। शोचाशौचं कथं तेषां धर्माधर्मावथो कथम्।। | 12-180-3a 12-180-3b |
कीदृशो जीवतां जीवः क्व वा गच्छन्ति ये मृताः। अस्माल्लोकादमुं लोकं सर्वं शंसतु नो भवान्।। | 12-180-4a 12-180-4b |
भीष्म उवाच। | 12-180-5x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। भृगुणाऽभिहितं श्रेष्ठं भरद्वाजाय पृच्छते।। | 12-180-5a 12-180-5b |
कैलासशिखरे दृष्ट्वा दीप्यमानमिवौजसा। भृगुं महर्षिमासीनं भरद्वाजोऽन्वपृच्छत।। | 12-180-6a 12-180-6b |
ससागरः सगगनः शशैलः सवलाहकः। सभूमिः साग्निपवनो लोकोऽयं केन निर्मितः।। | 12-180-7a 12-180-7b |
कथं सृष्टानि भूतानि कथं वर्णविभक्तयः। शौचाशौचं कथं तेषां धर्माधर्मावथो कथम्। | 12-180-8a 12-180-8b |
कीदृशो जीवतां जीवः क्व वा गच्छन्ति ये मृताः। परलोकमिमं चापि सर्वं शंसितृमर्हसि।। | 12-180-9a 12-180-9b |
एवं स भगवान्पृष्टो भरद्वाजेन संशयम्। ब्रह्मर्पिर्ब्रह्मसंकाशः सर्वं तस्मै ततोऽब्रवीत्।। | 12-180-10a 12-180-10b |
भृगुरुवाच। | 12-180-11x |
`नारायणो जगन्मूर्तिरन्तरात्मा सनातनः। कूटस्थोऽक्षर अव्यक्तो निर्लेपो व्यापकः प्रभुः।। | 12-180-11a 12-180-11b |
प्रकृतेः परतो नित्यमिन्द्रियैरप्यगोतरः। स सिसृक्षुः सहस्रांशादसृजत्पुरुषं प्रभुः।।' | 12-180-12a 12-180-12b |
मानसो नाम यः पूर्वो विश्रुतो वै महर्षिभिः। अनादिनिधनो देवस्तथाऽभेद्योऽदजरामरः।। | 12-180-13a 12-180-13b |
अव्यक्त इति विख्यातः शाश्वतोऽथाक्षयोऽव्ययः। यतः सृष्टानि भूतानि तिष्ठन्ति च म्रियन्ति च।। | 12-180-14a 12-180-14b |
सोऽसृजत्प्रथमं देवो महान्तं नाम नामतः। महान्ससर्जाहंकारं स चापि भगवानथ। आकाशमिति विख्यातं सर्वभूतधरः प्रभुः।। | 12-180-15a 12-180-15b 12-180-15c |
आकाशादभवद्वारि सलिलादग्निमारुतौ। अग्निमारुतसंयोगात्ततः समभवन्मही।। | 12-180-16a 12-180-16b |
ततस्ते गेमयं दिव्यं पद्मं सृष्टं स्वयंभुवा। तस्मात्पद्मात्समभवद्ब्रह्मा वेदमयो निधिः।। | 12-180-17a 12-180-17b |
अहंकार इति ख्यातः सर्वभूतात्मभूतकृत्। ब्रह्मा वै स महातेजा य एते पञ्चधातवः।। | 12-180-18a 12-180-18b |
शैलास्तस्यास्थिसंज्ञास्तु मेदो मांसं च मेदिनी। समुद्रास्तस्य रुधिरमाकाशमुदरं तथा।। | 12-180-19a 12-180-19b |
पवनश्चैव निःश्वासस्तेजोऽग्निर्निम्नगाः सिराः। दिवाकरश्च सोमश्च नयने तस्य विश्रुते।। | 12-180-20a 12-180-20b |
नभश्चोर्ध्वं शिरस्तस्य क्षितिः पादौ भुजौ दिशः। दुर्विज्ञेयो ह्यनन्तात्मा सिद्धैरपि न संशयः।। | 12-180-21a 12-180-21b |
स एष भगवान्विष्णुरनन्त इति विश्रुतः। सर्वभूतात्मभूतस्थो दुर्विज्ञेयोऽकृतात्माभः।। | 12-180-22a 12-180-22b |
अहंकारस्य यः स्रष्टा सर्वभूतोद्भवाय वै। यतः समभवद्विश्वं पृष्टोऽहं यदिह त्वया।। | 12-180-23a 12-180-23b |
भरद्वाज उवाच। | 12-180-24x |
गगनस्य दिशां चैव भूतलस्यानिलस्य च। कान्यत्र परिमाणानि संशयं छिन्धि मेऽर्थितः।। | 12-180-24a 12-180-24b |
भृगुरुवाच। | 12-180-25x |
अनन्तमेतदाकाशं सिद्धचारणसेवितम्। रम्यं नानाश्रयाकीर्णं यस्यान्तो नाधिगम्यते।। | 12-180-25a 12-180-25b |
ऊर्ध्वं गतेरधस्तात्तु चन्द्रादित्यौ न दृश्यतः। तत्र देवाः स्वयं दीप्ताः सूर्यभासोऽग्निवर्चसः।। | 12-180-26a 12-180-26b |
ते चाप्यन्तं न पश्यन्ति नभसः प्रथितौजसः। दुर्गमत्वादनन्तत्वादिति वै विद्धि मानद।। | 12-180-27a 12-180-27b |
उपर्युपरि तैर्देवैः प्रज्वलद्भिः स्वयंप्रभैः। निरुद्धमेतदाकाशमप्रमेयं सुरैरपि।। | 12-180-28a 12-180-28b |
पृथिव्यन्ते समुद्रास्तु समुद्रान्ते तमः स्मृतम्। तप्नसोऽन्ते जलं प्राहुर्जलस्यान्तेऽग्निरेव च।। | 12-180-29a 12-180-29b |
रसातलान्ते सलिलं जलान्ते पन्नगाधिपाः। तदन्ते पुनराकाशमाकाशान्ते पुनर्जलम्।। | 12-180-30a 12-180-30b |
एवमन्तं हि नभसः प्रमाणं सलिलस्य च। अग्निमारुतयोश्चैव दुर्ज्ञेयं दैवतैरपि।। | 12-180-31a 12-180-31b |
अग्निमारुततोयानां वर्णाः क्षितितलस्य च। आकाशसदृशा ह्येते भिद्यन्तेऽतत्वदर्शनात्।। | 12-180-32a 12-180-32b |
पठन्ति चैव मुनयः शास्त्रेषु विविधेषु च। त्रैलोक्यसागरे चैव प्रमाणं विहितं यथा।। | 12-180-33a 12-180-33b |
अदृश्यत्वादगम्यत्वात्कः प्रमाणमुदाहरेत्। सिद्धानां देवतानां च यदा परिमिता गतिः। तदा गौणमनन्तस्य नामानन्तेति विश्रुतम्।। | 12-180-34a 12-180-34b 12-180-34c |
नामधेयानुरूपस्य मानसस्य महात्मनः। यदा तु र्दिव्यं यद्रूपं ह्रसते वर्धते पुनः। कोऽन्यस्तद्वेदितुं शक्तो योपि स्यात्तद्विधोऽपरः।। | 12-180-35a 12-180-35b 12-180-35c |
ततः पुष्करतः सृष्टः सर्वज्ञो मूर्तिमान्प्रभुः। ब्रह्मा धर्ममयः पूर्वः प्रजापतिरनुत्तमः।। | 12-180-36a 12-180-36b |
भरद्वाज उवाच। | 12-180-37x |
पुष्कराद्यदि संभूतो ज्येष्ठं भवति पुष्करम्। ब्रह्माणं पूर्वजं चाह भवान्संदेह एव मे।। | 12-180-37a 12-180-37b |
भृगुरुवाच। | 12-180-38x |
मानसस्येह या मूर्तिर्ब्रह्मत्वं समुपागता। तस्यासनविधानार्थं पृथिवी पद्ममुच्यते।। | 12-180-38a 12-180-38b |
कर्णिकां तस्य पद्मस्य मेरुर्गगमुच्छ्रितः। तस्य मध्ये स्थितो लोकान्सृजते जगतः प्रभुः। मानसांश्च तथा देवान्भूतानि विविधानि च।। | 12-180-39a 12-180-39b 12-180-39c |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि अशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 180।। |
12-180-3 कथमिति सृष्टिप्रकारप्रश्नः। विभक्तयो विभागाः।।
12-180-4 जीवतां प्राणिनाम्।।
12-180-20 अग्नीषोमौ तु चन्द्रार्कौ नयने इति झ. पाठः। तत्र अग्नीषोमावेव चन्द्रार्कावित्यन्वयः।।
12-180-23 भूतोद्भवाय भूतोत्पत्तये। स्रष्टाहंकारस्येति संबन्धः। यतो विश्वं समभवद्यव त्वयाहं पृष्टस्तत्तुभ्यमुक्तमिति शेषः।।
12-180-24 छिन्धि तत्वत इति झ. पाठः।।
12-180-25 आश्रयाश्चतुर्दशभुवनानि।।
12-180-26 गतेः सूर्यरश्मिगतेरपि ऊर्ध्वमधस्ताच्च चन्द्रादित्यौ न दृश्येते।।
12-180-27 तेऽपि सूर्यादिगतेरूर्ध्वाधस्था अपि।।
12-180-32 वर्णाः स्वरूपाणि आकाशसदृशाः आकाशवदनन्ताः। अतत्वदर्शनात् पृथिव्यादीनां तत्वानवगमात्। भिद्यन्ते परिच्छिन्नवदाभान्ति।।
12-180-33 कथतर्हि पञ्चाशत्कोटियोजनविस्तारायामादिरूपं परिमाणं पठन्तीत्यत आह पठन्तीति।।
12-180-34 अदृश्याय त्वगम्याय इति झ. पाठः।।
12-180-36 ब्रह्मा चतुर्मुखः।।
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