महाभारतम्-12-शांतिपर्व-015
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युधिष्ठिरंप्रत्यर्जुनवाक्यम्।। 1।।
वैशंपायन उवाच। | 12-15-1x |
याज्ञसेन्या वचः श्रुत्वा पुनरेवार्जुनोऽब्रवीत्। अनुमान्य महाबाहुं ज्येष्ठं भ्रातरमीश्वरम्।। | 12-15-1a 12-15-1b |
अर्जुन उवाच। | 12-15-2x |
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति। दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः।। | 12-15-2a 12-15-2b |
दण्डः संरक्षते धर्मं तथैवार्यं जनाधिप। कामं संरक्षते दण्डस्त्रिवर्गो दण्ड उच्यते।। | 12-15-3a 12-15-3b |
दण्डेन रक्ष्यते धान्यं धनं दण्डेन रक्ष्यते। एतद्विद्वानुपादाय स्वभावं पश्य लौकिकम्।। | 12-15-4a 12-15-4b |
राजदण्डभयादेके नराः पापं न कुर्वते। यमदण्डभयादेके परलोकभयादपि।। | 12-15-5a 12-15-5b |
परस्परभयादेके पापाः पापं न कुर्वते। एवं सांसिद्धिके लोके सर्वं दण्डे प्रतिष्ठितम्।। | 12-15-6a 12-15-6b |
दण्डस्यैव भयादेके न खादन्ति परस्परम्। अन्धेतमसि मज्जेयुर्यदि दण्डो न पालयेत्।। | 12-15-7a 12-15-7b |
यस्माददान्तान्दमयत्यशिष्टान्दण्डयत्यपि। दमनाद्दण्डनाच्चैव तस्माद्दण्डं विदुर्बुधाः।। | 12-15-8a 12-15-8b |
वाचि दण्डो ब्राह्मणानां क्षत्रियाणां भुजार्पणम्। धनदण्डाः स्मृता वैश्या निर्दण्डः शूद्र उच्यते।। | 12-15-9a 12-15-9b |
असंमोहाय मर्त्यानामर्थसंरक्षणाय च। मर्यादा स्थापिता लोके दण्डसंज्ञा विशांपते।। | 12-15-10a 12-15-10b |
यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्चरति सूद्यतः। प्रजास्तत्र न मुह्यन्ति नेता चेत्साधु पश्यति।। | 12-15-11a 12-15-11b |
ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थस्च भिक्षुकः। दण्डस्यैव भयादेते मनुष्या वर्त्मनि स्थिताः।। | 12-15-12a 12-15-12b |
नाभीतो यजते राजन्नाभीतो दातुमिच्छति। नाभीतः पुरुषः कश्चित्समये स्थातुमिच्छति।। | 12-15-13a 12-15-13b |
नाच्छित्त्वा परमर्माणि नाकृत्वा कर्म दुष्करम्। नाहत्वा मत्स्यघातीव प्राप्नोति महतीं श्रियम्।। | 12-15-14a 12-15-14b |
नाघ्नतः कीर्तिरस्तीह न वित्तं न पुनः प्रजाः। इन्द्रो वृत्रवधेनैव महेन्द्रः समपद्यत। `माहेन्द्रं च गृहं लेभे लोकानां चेश्वरोऽभवत्।।' | 12-15-15a 12-15-15b 12-15-15c |
य एव देवा हन्तारस्ताँल्लोकोऽर्चयते भृशम्। हन्तारुद्रस्तथास्कन्दः शक्रोऽग्निर्वरुणो यमः।। | 12-15-16a 12-15-16b |
हन्ता कालस्तथा वायुर्मृत्युर्वैश्रवणो रविः। वसवो मरुतः साध्या विश्वेदेवाश्च भारत।। | 12-15-17a 12-15-17b |
एतान्देवान्नमस्यन्ति प्रतापप्रणता जनाः। न ब्रह्माणं न धातारं न पूषाणं कथंचन।। | 12-15-18a 12-15-18b |
मध्यस्थान्सर्वभूतेषु दान्ताञ्शमपरायणान्। यजन्ते मानवाः केचित्प्रशान्तान्सर्वकर्मसु।। | 12-15-19a 12-15-19b |
न हि पश्यामि जीवन्तं लोके कंचिदर्हिसया। सत्वैः सत्वा हि जीवन्ति दुर्बलैर्बलवत्तराः।। | 12-15-20a 12-15-20b |
नकुलो मूषिकानत्ति बिडालो नकुलं तथा। बिडालमत्ति श्वा राजञ्श्वानं व्यालमृगस्तथा।। | 12-15-21a 12-15-21b |
तानत्ति पुरुषः सर्वान्पश्य धर्मो यथा गतः। प्राणस्यान्नमिदं सर्वं जङ्गमं स्थावरं च यत्।। | 12-15-22a 12-15-22b |
विधानं दैवविहितं तत्र विद्वान्न मुह्यति। यथा सृष्टोऽसि राजेन्द्र तथा भवितुमर्हसि।। | 12-15-23a 12-15-23b |
विनीतक्रोधहर्षा हि मन्दा वनमुपाश्रिताः। विना वधं न कुर्वन्ति तापसाः प्राणयापनम्।। | 12-15-24a 12-15-24b |
उदके बहवः प्राणाः पृथिव्यां च फलेषु च। न च कश्चिन्न तान्हन्ति किमन्यत्प्राणयापनम्।। | 12-15-25a 12-15-25b |
सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्कगम्यानि कानिचित्। पक्ष्मणोऽपि निपातेन येषां स्यात्स्कन्धपर्ययः।। | 12-15-26a 12-15-26b |
ग्रामान्निष्क्रम्य मुनयो विगतक्रोधमत्सराः। वने कुटुम्बधर्माणो दृश्यन्ते परिमोहिताः।। | 12-15-27a 12-15-27b |
भूमिं भित्त्वौषधीश्छित्त्वा वृक्षादीनण्डजान्पशून्। मनुष्यास्तन्वये यज्ञांस्ते स्वर्गं प्राप्नुवन्ति च।। | 12-15-28a 12-15-28b |
दण्डनीत्यां प्रणीतायां सर्वे सिध्यन्त्युपक्रमाः। कौन्तेय सर्वभूतानां तत्र मे नास्ति संशयः।। | 12-15-29a 12-15-29b |
दण्डश्चेन्न भवेल्लोके विनश्येयुरिमाः प्रजाः। जले मत्स्यानिवाभक्ष्यन्दुर्बलान्बलवत्तराः।। | 12-15-30a 12-15-30b |
सत्यं बतेदं ब्रह्मणा पूर्वमुक्तं दण्डः प्रजा रक्षति साधुनीतः। पश्याग्नयः पूतिमांसस्य भीताः सन्तर्जिता दण्डभयाज्ज्वलन्ति।। | 12-15-31a 12-15-31b |
अन्धंतम इवेदं स्यान्न प्रज्ञायेत किंचन। दण्डश्चेन्न भवेल्लोके विभजन्साध्वसाधुनी।। | 12-15-32a 12-15-32b |
येऽपि संभिन्नमर्यादा नास्तिका वेदनिन्दकाः। तेऽपि भोगाय कल्पन्ते दण्डेनाशु निपीडिताः।। | 12-15-33a 12-15-33b |
सर्वो दण्डजितो लोको दुर्लभो हि शुचिर्जनः। दण्डस्य हि भयाद्भीतो भोगायैव प्रकल्पते।। | 12-15-34a 12-15-34b |
चातुर्वर्ण्यप्रमोदाय सुनीतिकरणाय च। दण्डो विधात्रा विहितो धर्मार्थौं भुवि रक्षितुम्।। | 12-15-35a 12-15-35b |
यदि दण्डान्न विभ्येयुर्वयांसि श्वापदानि च। अद्युः पशून्मनुष्यांश्च यज्ञार्थानि हवींषि च।। | 12-15-36a 12-15-36b |
न ब्रह्मचार्यधीयीत न काल्यं दुहते च गौः। न कन्योद्वहनं गच्छेद्यदि दण्डो न पालयेत्।। | 12-15-37a 12-15-37b |
विष्वग्लोपः प्रवर्तेत भिद्येरन्सर्वसेतवः। ममत्वं न प्रजानीयुर्यदि दण्डो न पालयेत्।। | 12-15-38a 12-15-38b |
न संवत्सरसत्राणि तिष्ठेयुरकुतोभयाः। विधिवद्दक्षिणावन्ति यदि दण्डो न पालयेत्।। | 12-15-39a 12-15-39b |
चरेयुर्नाश्रमे धर्मं यथोक्तं विधिमाश्रिताः। न विद्यां प्राप्नुयात्कश्चिद्यदि दण्डो न पालयेत्।। | 12-15-40a 12-15-40b |
न चोष्ट्रा न बलीवर्दा नाश्वाश्वतरगर्दभाः। न विद्यां प्राप्नुर्यानानि यदि दण्डो न पालयेत्।। | 12-15-41a 12-15-41b |
न प्रेष्या वचनं कुर्युर्न बालो जातु कर्हिचित्। तिष्ठेत्पितुर्मते धर्मे यदि दण्डो न पालयेत्।। | 12-15-42a 12-15-42b |
दण्डे स्थिताः प्रजाः सर्वा भयं दण्डे विदुर्बुधाः। दण्डे स्वर्गो मनुष्याणां लोकोऽयं च प्रतिष्ठितः।। | 12-15-43a 12-15-43b |
न तत्र कूटं पापं वा वञ्चना वाऽपि दृश्यते। यत्र दण्डः सुविहितश्चरत्यरिविनाशनः।। | 12-15-44a 12-15-44b |
हविः श्वा प्रलिहेद्दृष्ट्वा दण्डश्चेन्नोद्यतो भवेत्। हरेत्काकः पुरोडाशं यदि दण्डो न पालयेत्।। | 12-15-45a 12-15-45b |
यदीदं धर्मतो राज्यं विहितं यद्यधर्मतः। कार्यस्तत्र न शोको वै भुङ्क्ष्व भोगान्यजस्व च।। | 12-15-46a 12-15-46b |
सुखेन धर्मं श्रीमन्तश्चरन्ति शुचिवाससः। संवसन्तः प्रियैर्दारैर्भुञ्जानाश्चान्नमुत्तमम्।। | 12-15-47a 12-15-47b |
अर्थे सर्वे समारम्भाः समायत्ता न संशयः। स च दण्डे समायत्तः पश्य दण्डस्य गौस्वम्।। | 12-15-48a 12-15-48b |
लोकयात्रार्थमेवेह धर्मप्रवचनं कृतम्। अहिंसाऽसाधुहिंसेति श्रेयान्धर्मपरिग्रहः।। | 12-15-49a 12-15-49b |
नात्यन्तं गुणवत्किंचिन्न चाप्यत्यन्तनिर्गुणम्। उभयं सर्वकार्येषु दृश्यते साध्वसाधु च।। | 12-15-50a 12-15-50b |
पशूनां वृषणं छित्त्वा ततो भिन्दन्ति नस्सु तान्। वहन्ति बहवो भारान्बध्नन्ति दमयन्ति च।। | 12-15-51a 12-15-51b |
एवं पर्याकुले लोके वितथैर्जर्झरीकृते। तैस्तैर्न्यायैर्महाराज पुराणं धर्ममाचर।। | 12-15-52a 12-15-52b |
यज देहि प्रजा रक्ष धर्मं समनुपालय। अमित्राञ्जहि कौन्तेय मित्राणि परिपालय।। | 12-15-53a 12-15-53b |
मा च ते निघ्नतः शत्रून्मन्युर्भवतु पार्थिव। न तत्र किल्विषं किंचिद्धन्तुर्भवति भारत।। | 12-15-54a 12-15-54b |
आततायी हि यो हन्यादाततायिनमागतम्। न तेन भ्रूणहा स स्यान्मन्युस्तं मन्युमार्च्छति।। | 12-15-55a 12-15-55b |
अवध्यः सर्वभूतानामन्तरात्मा न संशयः। अवध्ये चात्मनि कथं वध्यो भवति कस्यचित्।। | 12-15-56a 12-15-56b |
यथा हि पुरुषः शालां पुनः संप्रविशेन्नवाम्। एव जीवः शरीराणि तानितानि प्रपद्यते।। | 12-15-57a 12-15-57b |
देहान्पुराणानुत्सृज्य नवान्संप्रतिपद्यते। एवं मृत्युमुखं प्राहुर्जना ये तत्त्वदर्शिनः।। | 12-15-58a 12-15-58b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि पञ्चदशोऽध्यायः।। 15।। |
12-15-6 संसिद्धिके पशुवत् दण्डार्हस्वभावे।। 12-15-8 दमयति ताडनादिना। दण्डयति वित्तमपहरति।। 12-15-9 भुज्यत इति भुजं भक्तं तन्मात्रार्पणं वेतनप्रदानमित्यर्थः।। 12-15-11 श्यामः दृढाभिघातेन दण्ड्यस्यान्ध्यजनकत्वात्। लोहिताक्षो दण्डयितुः क्रोधातिशयात्। सूद्यतः सुतरामुद्यतः। साधु यथापराधम्।। 12-15-20 सत्वैः सत्वानीति ट. ड. थ. पाठः।। 12-15-21 व्यालमृगश्चित्रव्याघ्रः।। 12-15-22 पश्य कालो यथा गत इति झ. पाठः। पश्य धर्मं यथागतमिति ड. त. पाठः।। 12-15-23 यथासृष्टः शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यमित्याद्युक्तस्वभावः क्षत्रियः सृष्टोऽसि धात्रा।। 12-15-24 विनीतावपनीतौ क्रोधहर्षौ यैस्ते। मन्दाः क्षत्रियाः। वधं कन्दमूलादिवधम्।। 12-15-26 स्कन्धपर्ययो देहस्य नाशः।। 12-15-29 दण्डयुक्ता नीतिर्दण्डनीतिस्तस्यां प्रणीतायां प्रवर्तितायाम्।। 12-15-30 अभक्ष्यन् भक्षयेयुः।। 12-15-31 पश्याग्नयश्च प्रतिशाम्येति झ.पाठः। संतर्जिताः फूत्कारेण।। 12-15-33 भोगाय पालनाय। मर्यादाया इति शेषः।। 12-15-36 हन्युः पशूनिति ट. ड. पाठः।। 12-15-37 न कल्याणीं दुहेत गामिति झ. पाठः। तत्र कल्याणीमपत्यवतीं न दुहेत लोक इत्यर्थः। उद्वहनं न गच्छेत् किंतु व्यभिचरेदेव।। 12-15-38 विश्वलोप इति ट. थ. पाठः। सेतवो मर्यादाः। ममत्वं परिच्छिन्नं न जानीयुः। सर्वः सर्वत्र ममत्वं कुर्यादित्यर्थरः।। 12-15-39 तिष्ठेयुरनुतिष्ठेयुः ।। 12-15-42 न तिष्ठेद्युवतीधर्म इति झ. पाठः।। 12-15-46 यदि दण्डवतो राज्यं विहितं यद्यधर्मतः। कार्यं तत्र न कार्यं च इति ड. थ. पाठः।। 12-15-47 संवर्षन्तः फलैदीनैरिति झ. पाठः।। 12-15-51 नस्मु नासिकासु। भिन्दन्ति मस्तकमिति पाठे मस्तकं भिन्दन्ति शृङ्गवृद्धिर्माभूदितीत्यर्थः।। 12-15-52 जर्झरीकृते दण्डेन। तदभावे भारवहनादिकार्यं न स्यादतः पुराणमेव धर्ममाचर। नत्वत्र प्रवाहायातं हिंसादिदोषमवेक्षस्वेति भावः।। 12-15-54 मन्युर्दैन्यम्।। 12-15-55 आततायी शस्त्रपाणिः। मन्युः क्रोधः। मन्युं क्रोधमार्च्छति। आ सर्वत ऋच्छति प्राप्नोति। मन्युः कर्ता नाहं कर्तेति श्रुतेस्तत्र न भ्रूणहा भवतीत्यर्थः।।
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