महाभारतम्-12-शांतिपर्व-194
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति जपफलप्रकारादिकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच।
चातुरात्रस्यनुक्तं ते राजधर्मास्तथैव च।
नानाश्रयाश्च भगवन्नितिहासाः पृथग्विधाः।। 12-194-1
श्रुतास्त्वत्तः कथाश्चैव धर्मयुक्ता महामते।
संदेहोऽस्ति तु कश्चिन्मे तद्भवान्वक्तुमर्हति।। 12-194-2
जापकानां फलावाप्तिं श्रोतुमिच्छामि भारत।
किं फलं जपतामुक्तं क्व वा तिष्ठन्ति जापकाः।। 12-194-3
जपस्य च विधिं कृत्स्नं वक्तुमर्हसि सेऽनघ।
जापका इति किंचैतत्साङ्ख्ययोगक्रियाविधिः।। 12-194-4
किं यज्ञविधिरेवैष किमेतज्जप्यमुच्यते।
एतन्मे सर्वमाचक्ष्व सर्वज्ञो ह्यसि मे मतः।। 12-194-5
भीष्म उवाच।
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
यमस्य यत्पुरा वृत्तं कालस्य ब्राह्मणस्य च।। 12-194-6
इक्ष्वाकोश्चैव मृत्योश्च विवादे धर्मकारणात्।
संन्यास एव वेदान्ते वर्तते जपनं प्रति।
वेदवादाङ्गनिर्वृत्ताः शान्ता ब्रह्मण्यवस्थिताः।। 12-194-7
साङ्ख्ययोगौ तु यावुक्तौ मुनिभिः समदर्शिभिः।
मार्गौ तावप्युभावेतौ संश्रितौ न च संश्रितौ।। 12-194-8
यथा संश्रूयते राजन्कारणं चात्र वक्ष्यते।
क्रमेण चैव विहितो जपयज्ञविधिर्नृप।। 12-194-9
सालम्बनमिति ज्ञेयं जपयज्ञात्मकं शुभम्।'
मनः समाधिरेवात्र तथेन्द्रियजयः स्मृतः।। 12-194-10
सत्यमग्निपरीचारो विविक्तानां च सेवनम्।
ध्यानं तपो दमः क्षान्तिरनसूया मिताशनम्।। 12-194-11
विषयप्रतिसंहारो मितजल्पस्तथा शमः।
एष प्रवर्तको धर्मो निवर्तकमथो शृणु।। 12-194-12
यथा निवर्तते धर्मो जपतो ब्रह्मचारिणः।
न जपो न च वै ध्यानं नेच्छा न द्वेषहर्षणौ।
युज्यते नृपशार्दूल सुसंवेद्यं हि तत्किल।। 12-194-13
जपमावर्तयन्नित्यं जपन्वै ब्रह्मचारिकम्।
तदर्थबुद्ध्या संयाति मनसा जापकः परम्।। 12-194-14
यथा संश्रूयते जापो येन वै जापको भवेत्।
संहिताप्रणवेनैव सावित्री च परा मता।। 12-194-15
यदन्यदुचितं शुद्धं वेदस्मृत्युपपादितम्।
एतत्सर्वमशेषेण यथोक्तं परिवर्तयेत्।। 12-194-16
द्विविदं मार्गमासाद्य व्यक्ताव्यक्तमनामयम्।
कुशोच्चयनिषष्णः सन्कुशहस्तः कुशैः शिख।
कुशैः परिवृतस्तस्मिन्मध्ये छन्नः कुशैस्तथा।। 12-194-17
विषयेभ्यो नमस्कुर्याद्विषयान्न च भावयेत्।
साम्यमुत्पाद्य मनसा मनस्येव मनो दधत्।। 12-194-18
तद्धिया ध्यायति ब्रह्म जपन्वै संहितां हिताम्।
संन्यस्यत्यथवा तां वै समाधौ पर्यवस्थितः।। 12-194-19
ध्यानमुत्पादयत्यत्र संहिताबलसंश्रयात्।
अथाभिमतमन्त्रेण प्रणवाद्यं जपेत्कृती।। 12-194-20
यस्मिन्नेवाभिपतितं मनस्तत्र निवेशयेत्।
समाधौ स हि मन्त्रे तु संहितां वा यथाविधि।'
शुद्धात्मा तपसा दान्तो निवृत्तद्वेषकामवान्।। 12-194-21
अरागमोहो निर्द्वन्द्वो न शोचति न सज्जते।
न कर्ता करणीयानां नाकार्याणामिति स्थितिः।। 12-194-22
न चाहंकारयोगेन मनः प्रस्थाफ्येत्क्वचित्।
न चार्थग्रहणे युक्तो नावमानी न चाक्रियः।। 12-194-23
ध्यानक्रियापरो युक्तो ध्यानवान्ध्याननिश्चयः।
ध्याने समाधिमुत्पाद्य तदपि त्यजति क्रमात्।। 12-194-24
स वै तस्यामवस्थायां सर्वत्यागकृतः सुखी।
निरिच्छस्त्यजति प्राणान्ब्राह्मीं संश्रयते तनुम्।। 12-194-25
`निरालम्बो भवेत्स्मृत्वा मरणाय समाधिमान्।
सर्वाल्लोँकान्समाक्रम्य क्रमात्प्राप्नोति वै परम्।।' 12-194-26
अथवा नेच्छते तत्र ब्रह्मकायनिषेवणम्।
उत्क्रामति च मार्गस्थो नैव क्वचन जायते।। 12-194-27
आत्मबुद्धिं समास्थाय शान्तीभूतो निरामयः।
अमृतं विरजाः शुद्धमात्मानं प्रतिपद्यते।। 12-194-28
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि चतुर्नवत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 194।।
12-194-2 ब्रह्मयुक्ता महामते इति ड. थ. पाठः।।
12-194-7 शान्तिर्ब्रह्मण्यवस्थिता इति ट. ड. थ. पाठः।।
12-194-13 यथा निवर्तते कर्मेति झ. ध. पाठः।।
12-194-17 कुशहस्तः कुशस्थलीति ट. ड. थ. पाठः।।
12-194-18 विषयेभ्यो मनो रुन्ध्यादिति ट. पाठः।।
12-194-19 ब्रह्म च ध्यायते योगी जपन्वै वेदसंहितामिति ड. थ. पाठः।।
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