महाभारतम्-12-शांतिपर्व-126
← शांतिपर्व-125 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-126 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-127 → |
तापसैः स्वाश्रममुपागतस्य सुमित्रस्य पूजनम्।। 1।। ततः सुमित्रेण तापसान्प्रति आशान्तरिक्षयोर्ज्यायस्तरं किमिति प्रश्नः।। 2।।
भीष्म उवाच। | 12-126-1x |
प्रविश्य च महारण्यं तापसानामथाश्रमम्। आससाद ततो राजा श्रान्तश्चोपाविशत्तदा।। | 12-126-1a 12-126-1b |
तं कार्मुकधरं दृष्ट्वा श्रमार्तं क्षुधितं तदा। समेत्य ऋषयस्तस्मै पूजां चक्रुर्यथाविधि।। | 12-126-2a 12-126-2b |
स पूजामृषिभिर्दत्तां प्रतिगृह्य नराधिपः। अपृच्छत्तापसान्सर्वांस्तपोवृद्धिमनुत्तमाम्।। | 12-126-3a 12-126-3b |
ते तस्य राज्ञो वचनं प्रतिगृह्य तपोधनाः। ऋषयो राजशार्दूलमपृच्छंस्तत्प्रयोजनम्।। | 12-126-4a 12-126-4b |
केन भद्रमुखार्थेन तपोवनमुपागतः। पदातिर्बद्धनिस्त्रिंशो धन्वी बाणी नरेश्वर।। | 12-126-5a 12-126-5b |
एतदिच्छामहे श्रोतुं कुतः प्राप्तोऽसि मानद। कस्मिन्कुले तु जातस्त्वं किंनामा चासि ब्रूहि नः।। | 12-126-6a 12-126-6b |
ततः स राजा सर्वेभ्यो द्विजेभ्यः पुरुषर्षभ। आचख्यौ तद्यथावृत्तं परिचर्यां च भारत।। | 12-126-7a 12-126-7b |
हैहयानां कुले जातः सुमित्रोऽमित्रकर्शनः। चरामि मृगयूथानि निघ्रन्बाणैः सहस्रशः।। | 12-126-8a 12-126-8b |
बलेन महता ब्रह्मन्सामात्यः सावरोधकः। मृगस्तु विद्धो बाणेन मया सरति शल्यवान्।। | 12-126-9a 12-126-9b |
तं द्रवन्तमनुप्राप्तो वनमेतद्यदृच्छया। भवत्सकाशं नष्टश्रीर्हताशः श्रमकर्शितः।। | 12-126-10a 12-126-10b |
किंनु दुःखमतोऽन्यद्वै यदहं श्रमकर्शितः। भवतामाश्रमं प्राप्तो हताशो भ्रष्टलक्षणः।। | 12-126-11a 12-126-11b |
न राजलक्षणत्यागः पुनरस्य तपोधनाः। दुःखं करोति मे तीव्रं यथाऽऽशा विहता मम।। | 12-126-12a 12-126-12b |
हिमवान्वा महाशैलः समुद्रो वा महोदधिः। महत्त्वान्नान्वपद्येतां रोदस्योरन्तरं यथा।। | 12-126-13a 12-126-13b |
आशायास्तपसि श्रेष्ठास्तथा नान्तमहं गतः। भवतां विदितं सर्वं सर्वज्ञा हि तपोधनाः।। | 12-126-14a 12-126-14b |
भवन्तः सुमहाभागास्तस्मात्पृच्छामि संशयम्। आशावान्पुरुषो यः स्यादन्तरिक्षमथापि वा।। | 12-126-15a 12-126-15b |
किंनु ज्यायस्तरं लोके महत्त्वे प्रतिभाति वः। एतदिच्छामि तत्त्वेन श्रोतुं किमिह दुर्लभम्।। | 12-126-16a 12-126-16b |
यदि गुह्यं न वो नित्यं तदा प्रब्रूत मा चिरम्। न हि गुह्यतमं श्रोतुमिच्छामि द्विजपुङ्गवाः।। | 12-126-17a 12-126-17b |
भवत्तपोविघातो वा येन स्याद्विरमे ततः। यदि वाऽस्ति कथायोगो योऽयं प्रश्नो मयेरितः।। | 12-126-18a 12-126-18b |
एतत्कारणसामर्थ्यं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः। भवन्तोऽपि तपोनित्या ब्रूयुरेतत्समाहिताः।। | 12-126-19a 12-126-19b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि षङ्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 126।। |
12-126-5 हे भद्रमुख।। 12-126-12 आशा मृगाशा।। 12-126-13 हिमवानुच्चत्वेन महोदधिर्विततत्वेन च गगनान्तं नान्वपद्येताम्। तस्य ततोऽप्युच्चत्वाद्विततत्वाच्च।। 12-126-15 आशावान् आशाया महत्त्वेन तद्वतोऽपि महत्त्वमन्तरिक्षवत्।। 12-126-17 यद्यगुह्यं तपोनित्यं मम ब्रूतेह माचिरमिति थ.द.पाठः।।
शांतिपर्व-125 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-127 |