महाभारतम्-12-शांतिपर्व-148
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व्याधेन विमानस्थयोर्दर्शनम्।। 1।। ततो व्याधेन दावाग्नौ शरीरत्यागेन स्वर्धगमनम्।। 2।।
भीष्म उवाच। | 12-148-1x |
वमानस्थौ तु तौ राजंल्लुब्धकः ग्वे ददर्श ह। दृष्ट्वा तौ दंपती राजन्व्यचिन्तयत तां गतिम्।। | 12-148-1a 12-148-1b |
कीदृशेनेह तपसा गच्छेयं परमां गतिम्। इति बुद्ध्या विनिश्चित्य गमनायोपचक्रमे।। | 12-148-2a 12-148-2b |
महाप्रस्थानमाश्रित्य लुब्धकः पक्षिजीवकः। निश्चष्टो मरुदाहारो निर्ममः स्वर्गकाङ्क्षया।। | 12-148-3a 12-148-3b |
ततोऽपश्यत्सुविस्तीर्णं हृद्यं पद्माभिभूषितम्। नानापक्षिगणाकीर्णं सरः शीतजलं शिवम्।। | 12-148-4a 12-148-4b |
पिपांसार्तोऽपि तदृष्ट्वा तृप्तः स्यान्नात्र संशयः।। | 12-148-5a |
उपवासकृशोऽत्यर्थं स तु पार्थिव लुब्धकः। उपसृत्य तु तद्धृष्टः श्वापदाध्युपितं वनम्।। | 12-148-6a 12-148-6b |
महान्तं निश्चयं कृत्वा लुब्धकः प्रविवेश ह। प्रविशन्नेव स वनं निगृहीतः स कण्टकैः।। | 12-148-7a 12-148-7b |
स कण्टकैर्विभिन्नाङ्गो लोहितार्द्रीकृतच्छविः। वभ्राम तस्मिन्विजने नानामृगसमाकुले।। | 12-148-8a 12-148-8b |
ततो द्रुमाणां महतां पवनेन वने तदा। उदतिष्ठत संघर्षान्सुमहान्हव्यवाहनः।। | 12-148-9a 12-148-9b |
तद्वनं वृक्षसंकीर्णं लताविटपसंकुलम्। ददाह पावकः क्रुद्धो युगान्ताग्निसमप्रभः।। | 12-148-10a 12-148-10b |
स ज्वलैः पवनोद्भूतैर्विस्फुलिङ्गैः समन्ततः। ददाह तद्वनं घोरं मृगपक्षिसमाकुलम्।। | 12-148-11a 12-148-11b |
ततः स देहमोक्षार्थं संप्रहृष्टेन चेतसा। अभ्यधावत वर्धन्तं पावकं लुब्धकस्तदा।। | 12-148-12a 12-148-12b |
ततस्तेनाग्निना दग्धो लुब्धको नष्टकल्मषः। जगाम परमां सिद्धिं ततो भरतसत्तम।। | 12-148-13a 12-148-13b |
ततः स्वर्गस्थमात्मानमपश्यद्विगतज्वरः। यक्षगन्धर्वसिद्धानां मध्ये भ्राजन्तमिन्द्रवत्।। | 12-148-14a 12-148-14b |
एवं खलु कपोतश्च कपोती च पतिव्रता। लुब्धकेन सह स्वर्गं गताः पुण्येन कर्मणा।। | 12-148-15a 12-148-15b |
याऽन्या चैवंविधा नारी भर्तारमनुवर्तते। विराजते हि सा क्षिप्रं कपोतीव दिवि स्थिता।। | 12-148-16a 12-148-16b |
एवमेतत्पुरावृत्तं लुब्धकस्य महात्मनः। कपोतस्य च धर्मिष्ठा गतिः पुण्येन कर्मणा।। | 12-148-17a 12-148-17b |
यश्चेदं शृणुयान्नित्यं यश्चेदं परिकीर्तयेत्। नाशुभं विद्यते तस्य मनसाऽपि प्रमादतः।। | 12-148-18a 12-148-18b |
युधिष्ठिर महानेष धर्मो धर्मभृतां वर। गोघ्नेष्वपि भवेदस्मिन्निष्कृतिः पापकर्मणः।। | 12-148-19a 12-148-19b |
न निष्कृतिर्भवेत्तस्य यो हन्याच्छरणागतम्। इतिहासमिमं श्रुत्वा पुण्यं पापप्रणाशनम्। न दुर्गतिप्रवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति।। | 12-148-20a 12-148-20b 12-148-20c |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि अष्टचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 148।। |
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