महाभारतम्-12-शांतिपर्व-089
← शांतिपर्व-088 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-089 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-090 → |
युधिष्ठिरंप्रति राजनीतिकथनम्।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-89-1x |
वनस्पतीभक्ष्यफलान्न च्छिन्द्युर्विषये तव। ब्राह्मणानां मूलफलं धर्ममाहुर्मनीषिणः।। | 12-89-1a 12-89-1b |
ब्राह्मणेभ्योऽतिरिक्तं च भुञ्जीरन्नितरे जनाः। न ब्राह्मणोपरोधेन हरेदन्यः कथंचन।। | 12-89-2a 12-89-2b |
विप्रश्चेत्त्यागमातिष्ठेदाख्याया वृत्तिकर्शितः। परिकल्यास्य वृत्तिः स्यात्सदारस्य नराधिप।। | 12-89-3a 12-89-3b |
स चेन्नोपनिवर्तेत वाच्यो ब्राह्मणसंसदि। कस्मिन्निदानीं मर्यादामयं लोकः करिष्यति।। | 12-89-4a 12-89-4b |
असंशयं निवर्तेत न चेत्त्यक्ष्यत्यतः परम्। पूर्वं परोक्षं वक्तव्यमेतत्कौन्तेय शाश्वतम्।। | 12-89-5a 12-89-5b |
आहुरेतज्जना ब्रह्मन्न चैतच्छ्रद्दधाम्यहम्। निमन्त्र्यश्च भवेद्भोगैरवृत्त्या च तदा चरेत्।। | 12-89-6a 12-89-6b |
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं लोकानामिह जीवनम्। ऊर्ध्वं चैव त्रयी विद्या सा भूतान्भावयत्युत।। | 12-89-7a 12-89-7b |
तस्यां प्रपतमानायां ये स्युस्तत्परिपन्थिनः। दस्यवस्तद्वधायेह ब्रह्मा क्षत्रमथासृजत्।। | 12-89-8a 12-89-8b |
शत्रूञ्जय प्रजा रक्ष यजस्व क्रतुभिर्नृप। युध्यस्व समरे वीरो भूत्वा कौरवनन्दन।। | 12-89-9a 12-89-9b |
संरक्ष्यान्रक्षते राजा स राजा राजसत्तमः। ये केचित्तान्न रक्षन्ति तैरर्थो नास्ति कश्चन।। | 12-89-10a 12-89-10b |
सदैव राज्ञा योद्धव्यं सर्वलोकाद्युधिष्ठिर। तस्याद्धेतोर्हि भुञ्जीत मनुष्यानेव मानवः।। | 12-89-11a 12-89-11b |
आन्तरेभ्यः परान्रक्षन्परेभ्यः पुनरान्तरान्। परान्परेभ्यः स्वान्खेभ्यः सर्वान्पालय नित्यदा।। | 12-89-12a 12-89-12b |
आत्मानं सर्वतो रक्षन्राजन्रक्षस्व मेदिनीम्। आत्ममूलमिदं सर्वमाहुर्वै विदुषो जनाः।। | 12-89-13a 12-89-13b |
किं छिद्रं कोनु सङ्गो मे किंवाऽस्त्यविनिपातितम्। कुतो मामाश्रयेद्दोष इति नित्यं विचिन्तयेत्।। | 12-89-14a 12-89-14b |
अतीतदिवसे वृत्तं प्रशंसन्ति न वा पुनः। गुप्तैश्चारैरनुमतैः पृथिवीमनुसारयेत्।। | 12-89-15a 12-89-15b |
जानीत यदि मे वृत्तं प्रशंसन्ति न वा पुनः। कच्चिद्रोचेज्जनपदे कच्चिद्राष्ट्रे च मे वशः।। | 12-89-16a 12-89-16b |
धर्मज्ञानां धृतिमतां संग्रामेष्वपलायिनाम्। राष्ट्रे तु येऽनुजीवन्ति ये तु राज्ञोऽनुजीविनः।। | 12-89-17a 12-89-17b |
अमात्यानां च सर्वेषां मध्यस्थानां च सर्वशः। ये च त्वाऽभिप्रशंसेयुर्निन्देयुरथवा पुनः।। | 12-89-18a 12-89-18b |
सर्वान्सुपरिणीतांस्तान्कारयेथा युधिष्ठिर। एकान्तेन हि सर्वेषां न शक्यं तात रोचितुम्। मित्रामित्रमथो मध्यं सर्वभूतेषु भारत।। | 12-89-19a 12-89-19b 12-89-19c |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-89-20x |
तुल्यबाहुबलानां च तुल्यानां च गुणैरपि। कथं स्यादधिकः कश्चित्स च भुञ्जीत मानवान्।। | 12-89-20a 12-89-20b |
भीष्म उवाच। | 12-89-21x |
यच्चरा ह्यचरानद्युरदंष्ट्रान्दंष्ट्रिणस्तथा। आशीविषा इव क्रुद्धा भुजङ्गान्भुजगा इव।। | 12-89-21a 12-89-21b |
एतेभ्यश्चाप्रमत्तः स्यात्सदा शत्रोर्युधिष्ठिर। भारुण्डसदृशा ह्येते निपतन्ति प्रमादतः।। | 12-89-22a 12-89-22b |
कच्चित्ते वणिजो राष्ट्रे नोद्विजन्ति करार्दिताः। क्रीणन्तो बहुनाऽल्पेन कान्तारकृतविश्रमाः।। | 12-89-23a 12-89-23b |
कच्चित्कृषिकरा राष्ट्रं न जहत्यतिपीडिताः। ये बहन्ति धुरं राज्ञां ते भरन्तीतरानपि।। | 12-89-24a 12-89-24b |
`आलस्येन हृतः पादः पादः पाषण्डमाश्रितः। राजानं सेवते पादः पादः कृषिमुपाश्रितः।। | 12-89-25a 12-89-25b |
एकपादं त्रयः पादा भक्षयन्ति दिनेदिने। तस्मात्सर्वप्रयत्नेन पादं रक्ष युधिष्ठिर।। ' | 12-89-26a 12-89-26b |
इतो दत्तेन जीवन्ति देवाः पितृगणास्तथा। मानुषोरगरक्षांसि वयांसि पशवस्तथा।। | 12-89-27a 12-89-27b |
एषा ते राष्ट्रवृत्तिश्च राज्ञां गुप्तिश्च भारत। प्रोक्तोद्दिश्यैतमेवार्थं भूयो वक्ष्यामि पा--व।। | 12-89-28a 12-89-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि एकोननवतितमोऽध्यायः।। 89।। |
12-89-1 मूलफलं ब्राह्मणानां स्वमिति धर्ममाहुरतो न च्छिन्द्युः।। 12-89-3 त्यागं राष्ट्रस्य।। 12-89-6 भोगार्थी चेद्राष्ट्रं त्यजति तदा भोगैरपि निमन्त्र्यः। अवृत्त्या चेतदावृत्त्यापि निमन्त्र्य इत्याह आहुरिति।। 12-89-7 ऊर्ध्वं स्वर्गम्।। 12-89-11 लोकात् लोकहितार्थं योद्धव्यम्। भयुध्यांखारानिति चार्थः।। 12-89-13 विदुषो विद्वांसः।। 12-89-14 राज्ञो व्यसगीत्येति शेषः।। 12-89-19 सुपरिणीतान् सत्कृतान् 12-89-21 अलवानेप दुर्बलं भुज्जीत तुल्यात्तु आत्मानं रक्षेच्छलेन च तं भुज्जीतेत्युत्तरमाह यदि आदिना।। 12-89-22 भारुण्डः गृध्रः।।
शांतिपर्व-088 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-090 |