महाभारतम्-12-शांतिपर्व-272
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति चिरकारिकोपाख्यानकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-272-1x |
कथं कार्यं परीक्षेत शीघ्रं वाऽथ चिरेण वा। सर्वथा कार्यदुर्गेऽस्मिन्भवान्नः परमो गुरुः।। | 12-272-1a 12-272-1b |
भीष्म उवाच। | 12-272-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। चिरकारेस्तु यत्पूर्वं वृत्तमाङ्गिरसां कुले।। | 12-272-2a 12-272-2b |
`गौतमस्य सुता ह्यासन्वीयांश्चिरकारिकः।' चिरकारिक भद्रं ते भद्रं ते चिरकारिक। चिरकारी हि मेधावी नापराध्यति कर्मसु।। | 12-272-3a 12-272-3b 12-272-3c |
चिरकारी महाप्राज्ञो गौतमस्याभवत्सुतः। चिरेण सर्वकार्याणि विमृश्यार्थान्प्रपद्यते।। | 12-272-4a 12-272-4b |
चिरं स चिन्तयत्यर्थांश्चिरं जाग्रच्चिरं स्वपन्। चिरं कार्याभिषत्तिं च चिरकारी तथोच्यते।। | 12-272-5a 12-272-5b |
अलसग्रहणं प्राप्तो दुर्मेधावीति चोच्यते। बुद्धिलाघवयुक्तेन जनेनादीर्घदर्शिना।। | 12-272-6a 12-272-6b |
व्यभिचारे तु कस्मिंश्चिद्व्यतिक्रम्यापरान्सुतान्। पित्रोक्तः कुपितेनाथ जहीमां जननीमिति।। | 12-272-7a 12-272-7b |
इत्युक्त्वा स तदा विप्रो गौतमो जपतां वरः। अविमृश्य महाभागो वनमेव जगाम सः।। | 12-272-8a 12-272-8b |
स तथेति चिरेणोक्त्वा स्वभावाच्चिरकारिकः। विमृश्य चिरकारित्वाच्चिन्तयामास वै चिरम्।। | 12-272-9a 12-272-9b |
पितुराज्ञां कथं कुर्यां न हन्यां मातरं कथम्। कथं धर्मच्छले नास्मिन्निमज्जेयमसाधुवत्।। | 12-272-10a 12-272-10b |
पितुराज्ञा परो धर्मः स्वधर्मो मातृरक्षणम्। अस्वतन्त्रं च पुत्रत्वं किंतु मां नानुपीडयेत्।। | 12-272-11a 12-272-11b |
स्त्रियं हत्वा मातरं च को हि जातु सुखी भवेत्। पितरं चाप्यवज्ञाय कः प्रतिष्ठामवाप्नुयात्।। | 12-272-12a 12-272-12b |
अनवज्ञा पितुर्युक्ता स्वधर्मो मातृरक्षणम्। युक्तक्षमावुभावेतौ नातिवर्तेतमां कथम्।। | 12-272-13a 12-272-13b |
पिता ह्यात्मानमाधत्ते जायायां जायतामिति। शीलचारित्रगोत्रस्य धारणार्थं कुलस्य च।। | 12-272-14a 12-272-14b |
सोऽहं मात्रा स्वयं पित्रा पुत्रत्वे प्रकृतः पुनः। विज्ञानं मे कथं न स्याद्द्वौ बुद्ध्ये चात्मसंभवम्।। | 12-272-15a 12-272-15b |
जातकर्मणि यत्प्राह पिता यच्चोपकर्मणि। पर्याप्तः स दृढीकारः पितुर्गौरवनिश्चये।। | 12-272-16a 12-272-16b |
गुरुरग्र्यः परो धर्मः पोषणाध्यापनान्वितः। पिता यदाह धर्मः स वेदेष्वपि सुनिश्चितः।। | 12-272-17a 12-272-17b |
प्रीतिमात्रं पितुः पुत्रः सर्वं पुत्रस्य वै पिता। शरीरादीनि देयानि पिता त्वेकः प्रयच्छति।। | 12-272-18a 12-272-18b |
तस्मात्पितुर्वचः कार्यं न विचार्यं कदाचन। पातकान्यपि पूयन्ते पितुःर शासनकारिणः।। | 12-272-19a 12-272-19b |
भाग्यभोगे प्रसवने सर्वलोकनिदर्शने। धात्र्याश्चैव समायोगे सीमन्तोन्नयने तथा।। | 12-272-20a 12-272-20b |
पिता धर्मः पिता स्वर्गः पिता हि परमं तपः। पितरि प्रीतिमापन्ने सर्वाः प्रीणन्ति देवताः।। | 12-272-21a 12-272-21b |
आशिषस्ता भजन्त्यनं पुरुषं प्राह यत्पिता। निष्कृतिः सर्वपापानां पिता यच्चाभिनन्दति।। | 12-272-22a 12-272-22b |
मुच्यते बन्धनात्पुरुषं फलं वृक्षान्प्रमुच्यते। क्लिश्यन्नपि सुतस्नेहैः पिता पुत्रं न मुञ्चति।। | 12-272-23a 12-272-23b |
एतद्विचिन्तितं तावत्पुत्रस्य पितृगौरवम्। पिता नाल्पतरं स्थानं चिन्तयिष्यामि मातरम्।। | 12-272-24a 12-272-24b |
यो ह्ययं मयि संघातो मर्त्यत्वे पाञ्चभौतिकः। अस्य मे जननी हेतुः पावकस्य यथाऽरणिः।। | 12-272-25a 12-272-25b |
माता देहारणिः पुंसां सर्वस्यार्तस्य निर्वृतिः। मातृलाभे सनाथत्वमनाथत्वं विपर्यये।। | 12-272-26a 12-272-26b |
न च शोचति नाप्येनं स्थाविर्यमपकर्षति। श्रिया हीनोऽपि यो गेहमम्बेति प्रतिपद्यते।। | 12-272-27a 12-272-27b |
पुत्रपौत्रोपपन्नोपि जननीं यः समाश्रितः। अपि वर्षशतस्यान्ते स द्विहायनवच्चरेत्।। | 12-272-28a 12-272-28b |
समर्थं वाऽसमर्थं वा कृशं वाप्यकृशं तथा। रक्षत्येव सुतं माता नान्यः पोष्टा विधानतः।। | 12-272-29a 12-272-29b |
तदा स वृद्धो भवति तदा भवति दुःखितः। तदा शून्यं जगत्तस्य यदा मात्रा वियुज्यते।। | 12-272-30a 12-272-30b |
नास्ति मातृसमा च्छाया नास्ति मातृसमा गतिः। नास्ति मातृसमं त्राणं नास्ति मातृसमा प्रिया।। | 12-272-31a 12-272-31b |
कुक्षौ संधारणाद्धात्री जननाज्जननी स्मृता। अङ्गानां वर्धनादम्बा वीरसूत्वेन वीरसूः।। | 12-272-32a 12-272-32b |
शिशोः शुश्रूषणाच्छुश्रूर्माता देहमनन्तरम्। चेतनावान्स को हन्याद्यस्य नासुषिरं शिरः।। | 12-272-33a 12-272-33b |
दंपत्योः प्राणसंश्लेषे योऽभिसन्धिः कृतः किल। तं माता च पिता चेति भूतार्थो मातरि स्थितः।। | 12-272-34a 12-272-34b |
माता जानाति यद्गोत्रं माता जानाति यस्य सः। मातुर्भरणमात्रेण प्रीतिः स्नेहः पितुः प्रजाः।। | 12-272-35a 12-272-35b |
पाणिबन्धं स्वयं कृत्वा सहधर्ममुपेत्य च। यदा यास्यन्ति पुरुषाः स्त्रियो नार्हन्ति याप्यतां।। | 12-272-36a 12-272-36b |
भरणाद्धि स्त्रियो भर्ता पालनाद्धि पतिस्तथा। गुणस्यास्य निवृत्तौ तु न भर्ता न पुनः पतिः।। | 12-272-37a 12-272-37b |
एवं स्त्री नापराघ्नोति नर एवापराध्यति। व्युच्चरंश्च महादोषं नर एवापराध्यति।। | 12-272-38a 12-272-38b |
स्त्रिया हि परमो भर्ता दैवतं परमं स्मृतम्। तस्मात्मना तु सदृशमात्मानं परमं ददौ।। | 12-272-39a 12-272-39b |
नापराधोऽस्ति नारीणां नर एवापराध्यति। सर्वकार्यापराध्यत्वान्नापराध्यन्ति चाङ्गनाः।। | 12-272-40a 12-272-40b |
यश्चनोक्तोऽथ निर्देशः स्त्रिया मैथुनवृद्धये। तस्य स्मारयतो व्यक्तमधर्मो नास्ति संशयः।। | 12-272-41a 12-272-41b |
एवं नारीं मातरं च गौरवे चाधिके स्थिताम्। अवध्यां तु विजानीयुः पशवोऽप्यविचक्षणाः।। | 12-272-42a 12-272-42b |
देवतानां समावायमेकस्थं पितरं विदुः। मर्त्यानां देवतानां च स्नेहादभ्येति मातरम्।। | 12-272-43a 12-272-43b |
एवं विमृशतस्तस्य विरकारितया बहु। दीर्घः कालो व्यतिक्रान्तस्ततोस्याभ्यागमत्पिता।। | 12-272-44a 12-272-44b |
मेधातिथिर्महाप्राज्ञो गौतमस्तपसि स्थितः। विमृश्य तेन कालेन पत्न्याः संस्थाव्यतिक्रमम्।। | 12-272-45a 12-272-45b |
सोऽब्रवीद्भृशसंतप्तो दुःखेनाश्रूणि वर्तयन्। श्रुतधैर्यप्रसादेन पश्चात्तापमुपागतः।। | 12-272-46a 12-272-46b |
आश्रमं मम संप्राप्तस्त्रिलोकेशः पुरंदरः। अतिथिव्रतमास्थाय ब्राह्मण्यं रूपमास्थितः।। | 12-272-47a 12-272-47b |
स मया सान्त्वितो वाग्भिः स्वागतेनाभिषूजितः। अर्ध्यं पाद्यं यथान्यायं मया च प्रतिपादितः।। | 12-272-48a 12-272-48b |
परवानस्मि चेत्युक्तः प्रणयिष्यति तेन च। अत्र चाकुशले जाते स्त्रिया नास्ति व्यतिक्रमः।। | 12-272-49a 12-272-49b |
एवं न स्त्री न चैवाहं नाध्वगस्त्रिदशेश्वरः। अपराध्यति धर्मस्य प्रमादस्त्वपराध्यति।। | 12-272-50a 12-272-50b |
ईर्ष्याजं व्यसनं प्राहुस्तेन चैवोर्ध्वरेतसः। ईर्ष्यया त्वहमाक्षिप्तो मग्नो दुष्कृतसागरे।। | 12-272-51a 12-272-51b |
हत्वा साध्वीं च नारीं च व्यसनित्वाच्च वासिताम्। भर्तव्यत्वेन भार्यां च को नु मां तारयिष्यति।। | 12-272-52a 12-272-52b |
अन्तरेण मयाऽऽज्ञप्तश्चिरकारीत्युदारधीः। यद्यद्य चिरकारी स्यात्स मां त्रायेत पातकात्।। | 12-272-53a 12-272-53b |
चिरकारिक भद्रं ते भद्रं ते चिरकारिक। यद्यद्य चिरकारी त्वं ततोऽसि चिरकारिकः।। | 12-272-54a 12-272-54b |
त्राहि मां मातरं चैव तपो यच्चार्जितं त्वया। आत्मानं पातकेभ्यश्च भवाद्य चिरकारिकः।। | 12-272-55a 12-272-55b |
सहजं चिरकारित्वमतिप्रज्ञतया तव। सफलं तत्तथा तेऽस्तु भवाद्य चिरकारिकः।। | 12-272-56a 12-272-56b |
चिरमांशसितो मात्रा चिरं गर्भेण धारितः। सफलं चिकारित्वं कुरु त्वं चिरकारिक।। | 12-272-57a 12-272-57b |
चिरायते च संतापाच्चिरं स्वपिति धारितः। आवयोश्चिरसंतापादवेक्ष्य चिरकारिक।। | 12-272-58a 12-272-58b |
भीष्म उवाच। | 12-272-59x |
एवं स दुःखितो राजन्महर्षिर्गौतमस्तदा। चिरकारिं ददर्शाथ पुत्रं स्थितमथान्तिके।। | 12-272-59a 12-272-59b |
चिरकारी तु पितरं दृष्ट्वा परमदुःखितः। शस्त्रं त्यक्त्वा ततो मूर्ध्ना प्रसादायोपचक्रमे।। | 12-272-60a 12-272-60b |
गौतमस्तं ततो दृष्ट्वा शिरसा पतितं भुवि। पत्नीं चैव निराकारां परामभ्यागमन्मुदम्।। | 12-272-61a 12-272-61b |
न हि सा तेन संभेदं पत्नी नीता महात्मना। विजने चाश्रमस्थेन पुत्रश्चापि समाहितः।। | 12-272-62a 12-272-62b |
हन्या इति समादेशः शस्त्रपाणौ सुते स्थिते। विनीते प्रसवत्यर्थे विवासे चात्मकर्मसु।। | 12-272-63a 12-272-63b |
बुद्धिश्चासीत्सुतं दृष्ट्वा पितुश्चरणयोर्नतम्। शस्त्रग्रहणचापल्यं संवृणोति भयादिति।। | 12-272-64a 12-272-64b |
ततः पित्रा चिरं स्तुत्वा चिरं चाघ्राय मूर्धनि। चिरं दोर्भ्यां परिष्वज्य चिरं जीवेत्युदाहृतः।। | 12-272-65a 12-272-65b |
एवं स गौतमः पुत्रं प्रीतिहर्षगुणैर्युतः। अभिनन्द्य महाप्रज्ञ इदं वचनमब्रवीत्।। | 12-272-66a 12-272-66b |
चिरकारिक भद्रं ते चिरकारी चिरं भव। चिराय यदि ते सौम्य चिरमस्मि न दुःखितः।। | 12-272-67a 12-272-67b |
गाथाश्चाप्यब्रवीद्विद्वान्गौतमो मुनिसत्तमः। चिरकारिषु धीरेषु गुणोद्देशसमाश्रयाः।। | 12-272-68a 12-272-68b |
चिरेण मित्रं बध्नीयाच्चिरेण च कृतं त्यजेत्। चिरेण हि कृतं मित्रं चिरं धारणमर्हति।। | 12-272-69a 12-272-69b |
रागे दर्पे च माने च द्रोहे पापे च कर्मणि। अप्रिये चैव कर्तव्ये चिरकारी प्रशस्यते।। | 12-272-70a 12-272-70b |
बन्धूनां सुहृदां चैव भृत्यानां स्त्रीजनस्य च। अव्यक्तेष्वपराधेषु चिरकारी प्रशस्यते।। | 12-272-71a 12-272-71b |
एवं स गौतमस्तत्र प्रीतः पुत्रस्य भारत। कर्मणा तेन कौरव्य चिरकारितया तथा।। | 12-272-72a 12-272-72b |
एवं सर्वेषु कार्येषु विमृश्य पुरुषस्ततः। चिरेण निश्चयं कृत्वा चिरं न परितप्यते।। | 12-272-73a 12-272-73b |
चिरं धारयते रोषं चिरं कर्म नियच्छति। पश्चात्तापकरं कर्म न किंचिदुपपद्यते।। | 12-272-74a 12-272-74b |
चिरं वृद्धानुपासीत चिरमन्यांश्च पूजयेत्। चिरं धर्मं निषेवेत कुर्याच्चान्वेषणं चिरम्।। | 12-272-75a 12-272-75b |
चिरमन्वास्य विदुषश्चिरं शिष्टान्निषेव्य च। चिरं विनीय चात्मानं चिरं चात्यनवज्ञताम्।। | 12-272-76a 12-272-76b |
ब्रुवतश्च परस्यापि वाक्यं धर्मोपसंहितम्। चिरं पृष्टोऽपि च ब्रूयाच्चिरं न परितप्यते।। | 12-272-77a 12-272-77b |
उपास्य बहुलास्तस्मिन्नाश्रमो सुमहातपाः। समाः स्वर्गं गतो विप्रः पुत्रेण सहितस्तदा।। | 12-272-78a 12-272-78b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि द्विसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 272।। |
12-272-1 कार्यदुर्गे गुर्वादिवचनादवश्यकर्तव्ये हिंसामयत्वेन दुष्करे च सतीत्यर्थः।। 12-272-4 सर्वकार्याणि विमर्शात्प्रत्यपद्व्यतेति थ. ध. पाठः।। 12-272-6 गृह्यते उपादीयते लोकेऽनेनेति ग्रह्रणं नामधेयम्। अलस इति ग्रहणमलसग्रहणं प्राप्तः।। 12-272-7 पित्रा गौतमेन। इमां जननीमहल्यां जहि संहर।। 12-272-10 धर्मच्छले धर्मसंकटे।। 12-272-13 युक्तमुचितम्। क्षमं सुखानुष्टेयम्। नातिवर्तेतमामतिशयेन नातिवर्ते। तिडन्तात्तमप आम् नातिवर्ते त्वहं कथम् इति ध. पाठः।। 12-272-14 पिता ह्यात्मानमादत्ते माता भस्त्रा ह्यनिन्दितेति ट. पाठः। गोत्रस्य नाम्नः।। 12-272-15 बुद्ध्ये जानामि। संभवमुत्पत्तिहेतुम्।। 12-272-26 निर्वृतिः सुखं तत्कर्त्री।। 12-272-27 हे अम्ब इत्युक्त्वा।। 12-272-28 द्विहायनवद्द्विवर्षवान् भवेत्। अपि वर्षशतस्यान्ते हायनत्वेन वर्तते इतिध. पाठः।। 12-272-32 वीरसूर्वीरपुत्रसूः।। 12-272-33 असुषिरं कर्णनासादिसुषिरहीनं यः शृणोति पश्यति जिघ्रति भक्षयति च स मातरं न हन्यादित्यर्थः।। 12-272-34 प्राण उपस्थेन्द्रियं तत्संश्लेषे मैथुने इत्यर्थः। अभिसंधिः पुत्रो मे गौरो जायेतेत्यादिरूपोऽभिलाषः। माता पिता वा उभौ वा कुरुतस्तत्र भूतार्थो याथार्थ्यं मातर्येव तत्कर्तृत्वं स्थितं निष्ठितं पितरि तु सोऽभिलाषः पाक्षिको भवतीत्यर्थः। दंपत्योः पाणिसंश्लेषे इति ध. पाठः।। 12-272-35 भरणमात्रेण गर्भधारणमात्रेण संबन्धेन माता पुत्रे प्रीतिमाह्लादं स्नेहमासक्तिं च करोति। वस्तुतस्तु पितुरेव प्रजाः। पितुराज्ञाऽनुल्लड्घनीयेति भावः।। 12-272-36 याप्यतां त्याज्यताम्।। 12-272-37 तथाच भर्तृत्वादिगुणशून्यस्योन्मत्तस्येव वचनान्मातरं न हिंसिष्ये इत्याशयः।। 12-272-38 व्युच्चरन् पोषणादिकमकुर्वन् महादोषं प्राप्नोतीति शेषः।। 12-272-40 सर्वेषु कार्येष्वपराध्यत्वादनुरोध्यत्वादल्पबलत्वेन सर्वथा पुरुषाधीनत्वात्।। 12-272-41 चनशब्दोऽप्यर्थे।। 12-272-42 पशवोऽपि पशुप्राया अपि।। 12-272-43 समावायः समूहः। मर्त्यानां देवतानां च समावायं मातरं स्नेहादभ्योतीति योजना। माता तु इह लोके पालयित्री चेति भावः।। 12-272-45 तेन तावता कालेन। संस्थाव्यतिक्रमं मरणानौचित्यम्।। 12-272-49 परवान् प्रणयिष्यति मयि प्रणयं करिष्यति। अत्रास्मिन्नर्थे चिन्तिते सति। अकुशले इन्द्रलौल्येन स्त्रीदूषणे जाते विषये स्त्रिया अहल्याया व्यतिक्रमो नास्ति।। 12-272-53 अन्तरेण प्रमादेन।। 12-272-61 निराकारा पाषाणभूताम्।।
शांतिपर्व-271 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-273 |