महाभारतम्-12-शांतिपर्व-287
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति शक्रवृत्रयुद्धवर्णनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-287-1x |
अहो धर्मिष्ठता तस्य वृत्रस्यामिततेजसः। यस्य विज्ञानमतुलं विष्णोर्भक्तिश्च तादृशी।। | 12-287-1a 12-287-1b |
दुर्विज्ञेयमिदं तस्य विष्णोरमिततेजसः। कथं वा राजशार्दूल पदं तु ज्ञातवानसौ।। | 12-287-2a 12-287-2b |
भवता कथितं ह्येतच्छ्रद्दधे चाहमच्युत। भूयश्च मे समुत्पन्ना बुद्धिरव्यक्तदर्शना।। | 12-287-3a 12-287-3b |
कथं विनिहतो वृत्रः शक्रेण भरतर्षभ। धार्मिको विष्णुभक्तश्च तत्त्वज्ञश्च तदन्वये।। | 12-287-4a 12-287-4b |
एतन्मे संशयं ब्रूहि पृच्छते भरतर्षभ। वृत्रः स राजशार्दूल यथा शक्रेण निर्जितः।। | 12-287-5a 12-287-5b |
यथा चैवाभवद्युद्धं तच्चाचक्ष्व पितामह। विस्तरेण महाबाहो परं कौतूहलं हि मे।। | 12-287-6a 12-287-6b |
भीष्म उवाच। | 12-287-7x |
रथेनेन्द्रः प्रयातो वै सार्धं सुरगणैः पुरा। ददर्शाथाग्रतो वृत्रं धिष्ठितं पर्वतोपमम्।। | 12-287-7a 12-287-7b |
योजनानां शतान्यूर्ध्वं पञ्चोन्छ्रितमरिंदम्। शतानि विस्तरेणाथ त्रीणि चाभ्यधिकानि वै।। | 12-287-8a 12-287-8b |
तत्प्रेक्ष्य तादृशं रूपं त्रैलोक्येनापि दुर्जयम्। वृत्रस्य देवाः संत्रस्ता न शान्तिमुपलेभिरे।। | 12-287-9a 12-287-9b |
शक्रस्य तु तदा राजन्नूरुस्तम्भो व्यजायत। भयाद्वृत्रस्य सहसा दृष्ट्वा तद्रूपमुत्तमम्।। | 12-287-10a 12-287-10b |
ततो नादः समभवद्वादित्राणां च निःस्वनः। देवासुराणां सर्वेषां तस्मिन्युद्धे ह्युपस्थिते।। | 12-287-11a 12-287-11b |
अथ वृत्रस्य कौरव्य दृष्ट्वा शक्रमवस्थितम्। न संभ्रमो न भीः काचिदास्था वा समजायत।। | 12-287-12a 12-287-12b |
ततः समभवद्युद्धं त्रैलोक्यस्य भयंकरम्। शक्रस्य च सुरेन्द्रस्य वृत्रस्य च महात्मनः।। | 12-287-13a 12-287-13b |
असिभिः पट्टसैः शूलैः शक्तितोमरम्रुद्गरैः। शिलाभिर्विविधाभिश्च कार्मुकैश्च महास्वनैः।। | 12-287-14a 12-287-14b |
अस्त्रैश्च विविर्धौर्दिव्यैः पावकोल्काभिरेव च। देवासुरैस्ततः सैन्यैः सर्वमासीत्समाकुलम्।। | 12-287-15a 12-287-15b |
पितामहपुरोगाश्च सर्वे देवगणास्तदा। ऋषयश्च महाभागास्तद्युद्धं द्रष्टुमागमन्।। | 12-287-16a 12-287-16b |
विमानाग्र्यैर्महाराज सिद्धाश्च भरतर्षभ। गन्धर्वाश्च विमानाग्रैरप्सरोभिः समागमन्।। | 12-287-17a 12-287-17b |
ततोऽन्तरिक्षमावृत्य वृत्रो धर्मभूतां वरः। अश्मवर्षेण देवेन्द्रं सर्वतः समवाकिरत्।। | 12-287-18a 12-287-18b |
ततो देवगणाः क्रुद्धाः सर्वतः शरवृष्टिभिः। अश्मवर्षमपोहन्त वृत्रप्रेरितमाहवे।। | 12-287-19a 12-287-19b |
वृत्रस्तु कुरुशार्दूल महामायो महाबलः। मोहयामास देवेन्द्रं मायायुद्धेन सर्वशः।। | 12-287-20a 12-287-20b |
तस्य वृत्रार्दितस्याथ मोह आसीच्छतक्रतोः। रथन्तरेण तं तत्र वसिष्ठः समबोधयत्।। | 12-287-21a 12-287-21b |
वसिष्ठ उवाच। | 12-287-22x |
देवश्रेष्ठोऽस्ति देवेन्द्र दैत्यासुरनिबर्हण। त्रैलोक्यबलसंयुक्तः कस्माच्छक्र विषीदसि।। | 12-287-22a 12-287-22b |
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवश्चैव जगत्पतिः। सोमश्च भगवान्देवः सर्वे च परमर्षयः।। | 12-287-23a 12-287-23b |
`समुद्विग्नं समीक्ष्य त्वां स्वस्तीत्यूचुर्जयाय ते।' मा कार्षीः कश्मलं शक्र कश्चिदेवेतरो यथा। आर्यां युद्धे मतिं कृत्वा जहि शत्रून्सुराधिप।। | 12-287-24a 12-287-24b 12-287-24c |
एष लोकगुरुस्त्र्यक्षः सर्वलोकनमस्कृतः। निरीक्षते त्वां भगवांस्त्यज मोहं सुराधिप।। | 12-287-25a 12-287-25b |
एते ब्रह्मर्षयश्चैव बृहस्पतिपुरोगमाः। स्तवेन शक्र दिव्येन स्तुवन्ति त्वां जयाय वै।। | 12-287-26a 12-287-26b |
भीष्म उवाच। | 12-287-27x |
एवं संबोध्यमानस्य वसिष्ठेन महात्मना। अतीव वासवस्यासीद्बलमुत्तमतेजसः।। | 12-287-27a 12-287-27b |
ततो बुद्धिमुपागम्य भगवान्पाकशासनः। योगेन महता युक्तस्तां मायां व्यपकर्षत।। | 12-287-28a 12-287-28b |
ततोऽङ्गिरः सुतः श्रीमांस्ते चैव सुमहर्षयः। दृष्ट्वा वृत्रस्य विक्रान्तुमुपागम्य महेश्वरम्।। | 12-287-29a 12-287-29b |
ऊचुर्वृत्रविनाशार्थं लोकानां हितकाम्यया। ततो भगवतस्तेजो ज्वरो भूत्वा जगत्पतेः।। | 12-287-30a 12-287-30b |
समाविशत्तदा रौद्रं वृत्रं लोकपतिं तदा। विष्णुश्च भगवान्देवः सर्वलोकाभिपूजितः।। | 12-287-31a 12-287-31b |
ऐन्द्रं समाविशुद्वज्रं लोकसंरक्षणे रतः। ततो बृहस्पतिर्धीमानुपागम्य शतक्रतुम्। वसिष्ठश्च महातेजाः सर्वे च परमर्षयः।। | 12-287-32a 12-287-32b 12-287-32c |
ते समासाद्य वरदं वासवं लोकपूजितम्। ऊचुरेकाग्रमनसो जहि वृत्रमिति प्रभो।। | 12-287-33a 12-287-33b |
महेश्वर उवाच। | 12-287-34x |
एष वृत्रो महाञ्शक्रे बलेन महता वृतः। विश्वात्मा सर्वगश्चैव बहुमायश्च विश्रुतः।। | 12-287-34a 12-287-34b |
तदेनमसुरश्रेष्ठं त्रैलोक्येनापि दुर्जयम्। जहि त्वं योगमास्थाय मावमंस्थाः सुरेश्वर।। | 12-287-35a 12-287-35b |
अनेन हि तपस्तप्तं बलार्थममराधिप। षष्टिं वर्षसहस्राणि ब्रह्मा चास्मै वरं ददौ।। | 12-287-36a 12-287-36b |
महत्त्वं योगिनां चैव महामायत्वमेव च। महाबलत्वं च तथा तेजश्चाग्र्यं सुरेश्वर।। | 12-287-37a 12-287-37b |
एतत्त्वां मामकं तेजः समाविशति वासव। वृत्रमेवं त्ववध्यं तं वज्रेण जहि दानवम्।। | 12-287-38a 12-287-38b |
शक्र उवाच। | 12-287-39x |
भगवंस्त्वत्प्रसादेन दितिजं सुदुरासदम्। वज्रेण निहनिष्यामि पश्यतस्ते सुरर्षभ।। | 12-287-39a 12-287-39b |
भीष्म उवाच। | 12-287-40x |
आविश्यमाने दैत्ये तु ज्वरेणाथ महासुरे। देवतानामृषीणां च हर्षान्नादो महानभूत्।। | 12-287-40a 12-287-40b |
ततो दुन्दुभयश्चैव शङ्ख्याश्च सुमहास्वनाः। मुरजा डिण्डिभाश्चैव प्रावाद्यन्त सहस्रशः।। | 12-287-41a 12-287-41b |
असुराणां तु सर्वेषां स्मृतिलोपो महानभूत्। मायानाशश्च बलवान्क्षणेन समपद्यत।। | 12-287-42a 12-287-42b |
तमाविष्टमथो ज्ञात्वा ऋषयो देवतास्तथा। स्तुवन्तः शक्नमीशानं तथा प्राचोदयन्नपि।। | 12-287-43a 12-287-43b |
रथस्थस्य हि शक्रस्य युद्धकाले महात्मनः। ऋषिभिः स्तूयमानस्य रूपमासीन्सुदुर्दृशम्।। | 12-287-44a 12-287-44b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि सप्ताशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 287।। |
12-287-21 अथान्तरे च तं तत्रेति ध. पाठः।। 12-287-22 सुरारातिनिबर्हणेति थ. पाठः।। 12-287-24 कश्चिदेव नरो यथेति ध. पाठः।। 12-287-25 एष देवगुरुस्त्वद्येति ध. पाठः।। 12-287-26 स्तुवन्त्यात्मजयाय वै इति ध. पाठः।। 12-287-34 बहुमायासु विश्रुत इति थ. पाठः।। 12-287-42 धृतिलोपो महानभूत् इति थ. पाठः।।
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