महाभारतम्-12-शांतिपर्व-362
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रत्युच्छवृत्त्युपाख्यानोषोद्धातकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-362-1x |
धर्माः पितामहेनोक्ता मोक्षधर्माश्रिताः शुभाः। धर्ममाश्रमिणां श्रेष्ठं वक्तुमर्हति मे भवान्।। | 12-362-1a 12-362-1b |
भीष्म उवाच। | 12-362-2x |
सर्वत्र विहितो धर्मः सत्यः सत्यफलोदयः। बहुद्वारस्य धर्मस्य नेहास्ति विफला क्रिया।। | 12-362-2a 12-362-2b |
यस्मिन्यस्मिंश्च विषये यो यो याति विनिश्चयम्। स तमेवाभिजानाति नान्यं भरतसत्तम।। | 12-362-3a 12-362-3b |
इमां च त्वं नरव्याघ्र श्रोतुमर्हसि मे कथाम्। पुरा शक्रस्य कथितां नारदेन महर्षिणा।। | 12-362-4a 12-362-4b |
महर्षिर्नारदो राजन्सिद्धस्त्रैलोक्यसंमतः। पर्येति क्रमशो लोकान्वायुरव्याहतो यथा।। | 12-362-5a 12-362-5b |
स कदाचिन्महेष्वास देवराजालयं गतः। सत्कृतश्च महेन्द्रेण प्रत्यासन्नगतोऽभवत्।। | 12-362-6a 12-362-6b |
तं कृतक्षणमासीनं पर्यपृच्छच्छत्तीपतिः। महर्षे किंचिदाश्चर्यमस्ति दृष्टं त्वयाऽनघ।। | 12-362-7a 12-362-7b |
दृष्टमेव हि विप्रर्षे त्रैलोक्यं सचराचरम्। जातकौतूहलो नित्यं सिद्धश्चरसि साक्षिवत्।। | 12-362-8a 12-362-8b |
न ह्यस्त्यविदितं लोके देवर्षे तव किंचन। श्रुतं वाऽप्यनुभूतं वा दृष्टं वा कथयस्व मे।। | 12-362-9a 12-362-9b |
तस्मै राजन्सुरेन्द्राय नारदो वदतांवरः। आसीनायोपपन्नाय प्रोक्तवान्विपुलां कथाम्।। | 12-362-10a 12-362-10b |
यथा येन च कल्पेन स तस्मै द्विजसत्तमः। कथां कथितवान्पृष्टस्तथा त्वमपि मे शृणु।। | 12-362-11a 12-362-11b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि द्विषष्ट्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 362।। |
12-362-2 स्वर्गः सत्यफलं महदिति झ. पाठः।। 12-362-3 सर्वेष्वाश्रमेषु स्वर्गो मोक्षश्चास्ति तेषु यत्र यस्य रुचिस्तेन स कृतकृत्यो नान्यं धर्मं बहु मन्यते इति श्लोकद्वयार्थः।। 12-362-4 अपिच त्वं नरव्याघ्रेति ट. पाठः।। 12-362-11 कल्पेन न्यायेन।।
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