महाभारतम्-12-शांतिपर्व-251
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति तुरीथाश्रमधर्मप्रतिपादकव्यासवाक्यानुवादः।। 1।।
श्रीशुक उवाच। | 12-251-1x |
वर्तमानस्तयेवात्र वानप्रस्थाश्रमे यथा। योक्तव्योऽऽत्मा कथं शक्त्या परं वै काङ्क्षता पदम्।। | 12-251-1a 12-251-1b |
व्यास उवाच। | 12-251-2x |
प्राप्य संस्कारमेताभ्यामाश्रमाभ्यां ततः परम्। यत्कार्यं परमार्थार्थं तदिहैकमनाः शृणु।। | 12-251-2a 12-251-2b |
कषायं पाचयित्वाऽऽशु श्रेणिस्थानेषु च त्रिषु। प्रव्रजेच्च परं स्थानं पारिव्राज्यमनुत्तमम्।। | 12-251-3a 12-251-3b |
यद्भवानेवमभ्यस्य वर्ततां श्रूयतां तथा। एक एव चरेद्धर्मं सिद्ध्यर्थमसहायवान्।। | 12-251-4a 12-251-4b |
एकश्चरतिः यः पश्यन्न जहाति न हीयते। अनग्निरनिकेतश्च ग्राममन्नार्थमाश्रयेत्।। | 12-251-5a 12-251-5b |
अश्वस्तनविधाता स्यान्मुनिर्भावसमन्वितः। लघ्वाशी नियताहारः सकृदन्ननिषेविता।। | 12-251-6a 12-251-6b |
णलं वृक्षमलानि कुचेलमसदृ-------। उपक्षा सर्वभूतानामेतावद्भिक्षुलक्षणाम्।। | 12-251-7a 12-251-7b |
यस्मिन्वाचा प्राविशन्ति कूपे प्राप्ताः शिलाइव। न वक्तारं पुनर्यान्ति स कैवल्याश्रमे वसेत्।। | 12-251-8a 12-251-8b |
नैव पश्येन्न शृणुयादवाच्यं जातु कस्यचित्। ब्राह्मणानां विशेषेण नैव ब्रूयात्कथंचन।। | 12-251-9a 12-251-9b |
बद्ब्राह्मणस्य कुशलं तदेव सततं वदेत्। तूष्णीमासीत निन्दायां कुर्वन्भैषज्यमात्मनः।। | 12-251-10a 12-251-10b |
येन पूर्णमिवाकाशं भवत्येकेन सर्वदा। शून्यं येन जनाकीर्णं तं देवा ब्राह्मणं विदुः।। | 12-251-11a 12-251-11b |
येनकेन चिदाच्छन्नो येनकेनचिदाशितः। यत्र क्वचन शायी च तं देवा ब्राह्मणं विदुः।। | 12-251-12a 12-251-12b |
अहेरिव गणाद्भीतः सन्मानान्मरणादिव। कुणपादिव च स्त्रीभ्यस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः।। | 12-251-13a 12-251-13b |
न कुद्ध्येन्न प्रहृष्येच्च मानितोऽमानितश्च यः। सर्वभूतेष्वभयदस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः।। | 12-251-14a 12-251-14b |
नाभिनन्देत मरणं नाभिनन्देत जीवितम्। कालमेव प्रतीक्षेत निदेशं भृतको यथा।। | 12-251-15a 12-251-15b |
अनभ्याहतचित्तः स्यादनभ्याहतवाग्भवेत्। निर्मुक्तः सर्वपापेभ्यो निरमित्रस्य किं भयम्।। | 12-251-16a 12-251-16b |
अभयं सर्वभूतेभ्यो भूतानामभयं यतः। तस्य मोहाद्विमुक्तस्य भयं नास्ति कुतश्चन।। | 12-251-17a 12-251-17b |
यथा नागपदेऽन्यानि पदानि पदगामिनाम्। सर्वाण्येवापिलीयन्ते पदजातानि कौञ्जरे।। | 12-251-18a 12-251-18b |
एवं सर्वमहिंसायां धर्मार्थमभिधीयते। अमृतः स नित्यं भवति यो हिंसां न प्रपद्यते।। | 12-251-19a 12-251-19b |
अहिसंकः समः सत्यो धृतिमान्नियतेन्द्रियः। शरण्यः सर्वभूतानां गतिमाप्नोत्यनुत्तमाम्।। | 12-251-20a 12-251-20b |
एवं प्रज्ञानतृप्तस्य निर्भयस्य निराशिषः। न मृत्युरतिगो भावः स मृत्युं नाधिगच्छति।। | 12-251-21a 12-251-21b |
विमुक्तं सर्वसङ्गेभ्यो मुनिमाकाशवत्स्थितम्। अस्वमेकचरं शान्तं तं देवा ब्राह्मणं विदुः।। | 12-251-22a 12-251-22b |
जीवितं यस्य धर्मार्थं धर्मो हर्यर्थमेव च। अहोरात्राश्च पुण्यार्थं तं देवा ब्राह्मणं विदुः।। | 12-251-23a 12-251-23b |
निराशिषमनारम्भं निर्नमस्कारमस्तुतिम्। निर्मुक्ते बन्धनैः सर्वैस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः।। | 12-251-24a 12-251-24b |
सर्वाणि भूतानि सुखे रमन्ते सर्वाणि दुःखस्य भृशं त्रसन्ते। तेषां भयोत्पादनजातखेदः कुर्यान्न कर्माणि हि श्रद्दधानः।। | 12-251-25a 12-251-25b 12-251-25c 12-251-25d |
दानं हि भूताभयदक्षिणायाः सर्वाणि दानान्यधितिष्ठतीह। तीक्ष्णां तनुं यः प्रथमं जहाति सोऽनन्तमाप्नोत्यभयं प्रजाभ्यः।। | 12-251-26a 12-251-26b 12-251-26c 12-251-26d |
स दत्तमास्येन हविर्जुहोति लोकस्य नाभिर्जगतः प्रतिष्ठा। तस्याङ्गमङ्गानि कृताकृतं च वैश्वानरः सर्वमिदं प्रपेदे।। | 12-251-27a 12-251-27b 12-251-27c 12-251-27d |
प्रादेशमात्रे हृदि निःसृतं य त्तस्मिन्प्राणानात्मयाजी जुहोति। तस्याग्निहोत्रं हुतमात्मसंस्थं सर्वेषु लोकेषु सदैवतेषु।। | 12-251-28a 12-251-28b 12-251-28c 12-251-28d |
देवं त्रिधातुं त्रिवृतं सुपर्ण ये विद्युरग्र्यां परमात्मतां च। ते सर्वलोकेषु महीयमाना देवाः समर्था अमृतं वहन्ति।। | 12-251-29a 12-251-29b 12-251-29c 12-251-29d |
वेदांश्च वेद्यं तु विधिं च कृत्स्न मथो निरुक्तं परमार्थतां च। सर्वं शरीरात्मनि यः प्रवेद तस्य स्म देवाः स्पृहयन्ति नित्यम्।। | 12-251-30a 12-251-30b 12-251-30c 12-251-30d |
भूमावसक्तं दिवि चाप्रमेयं हिरण्मयं योऽण्डजमण्डमध्ये। पतत्रिणं पक्षिणमन्तरिक्षे यो वेद भोग्यात्मनि दीप्तरश्मिः।। | 12-251-31a 12-251-31b 12-251-31c 12-251-31d |
आवर्तमानमजरं विवर्तनं षण्णाभिकं द्वादशारं सुपर्व। यस्येदमास्योपरि याति विश्वं यत्कालचक्रं निहितं गुहायाम्।। | 12-251-32a 12-251-32b 12-251-32c 12-251-32d |
यः संप्रजानञ्जगतः शरीरं सर्वान्स लोकानधिगच्छतीह। तस्मिन्हितं तर्पयतीह देवां स्ते वै तृप्तास्तर्पयन्त्यास्यमस्य।। | 12-251-33a 12-251-33b 12-251-33c 12-251-33d |
तेजोमयो नित्यमयः पुराणो लोकाननन्तानभयानुपैति। भूतानि यस्मान्न त्रसन्ते कदाचि त्स भूतानां न त्रसते कदाचित्।। | 12-251-34a 12-251-34b 12-251-34c 12-251-34d |
अगर्हणीयो न च गर्हतेऽन्या न्स वै विप्रः परमात्मानमीक्षेत्। विनीतमोहो व्यपनीतकल्मषो न चेह नामुत्र च सोऽन्नमर्च्छति।। | 12-251-35a 12-251-35b 12-251-35c 12-251-35d |
अरोषमोहः समलोष्टकाञ्चनः प्रहीणशोको गतसन्धिविग्रहः। अपेतनिन्दास्तुतिरप्रियाप्रिय श्चरन्नुदासीनवदेष भिक्षुकः।। | 12-251-36a 12-251-36b 12-251-36c 12-251-36d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 251।। |
12-251-3 कषायं चित्तदोषं पाचयित्वा विश्लथं कृत्वा। स्थानेष्वाश्रमेष्वनुत्तमम्। इदं मतं श्रेष्ठमित्यर्थः।। 12-251-8 आक्रुश्यमानो नाक्रोशेदित्यर्थः। त्रस्ता द्विपा इवेति झ. पाठः।। 12-251-10 भैषज्यं भवरोगचिकित्साम्।। 12-251-13 अहेः सर्पात् गणाज्जनसमूहात्। सौहित्यान्नरकादिवेति झ. पाठः।। 12-251-15 निदेशमाज्ञाम्। निर्वेदं भृतको यथेति थ. पाठः।। 12-251-16 अभ्याहतं दोषाक्रान्तम्। निरमित्रस्याजातशत्रोः। 12-251-17 सर्वभूतेभ्यो यस्तेति शेषः।। 12-251-18 नागपदे हस्तिपदे। पदगामिनां नृपश्वादीनां पदान्यपिलीयन्ते तिरोधीयन्ते। तथेन्द्रादीनां पदजातानि स्थानानि। कौञ्जरे क्लं पृथिवीं शरीररूपां जरथतीति कुञ्जरः समाधिस्थो योगी तस्य स्थाने कौञ्जरे पदे।। 12-251-21 स मुक्तिमुपगच्छतीति थ. पाठः।। 12-251-23 धर्मो रत्यर्थमेव चेति ध. पाठः।। 12-251-24 अक्षीणं क्षीणकर्माणं तमिति ध. पाठः।। 12-251-27 उत्तान आस्येनेति झ. पाठः।। 12-251-29 देवाः समर्त्याः सुकृतं वदन्तीति झ. पाठः।।
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