महाभारतम्-12-शांतिपर्व-131
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति आपदि राज्ञा सर्वस्वत्यागेनाप्यात्मनो रक्षणीयत्वकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-131-1x |
क्षीणस्य दीर्घसूत्रस्य सानुक्रोशस्य बन्धुषु। परिशङ्कितमुख्यस्य दुष्टमन्त्रस्य भारत।। | 12-131-1a 12-131-1b |
विरक्तराज्यपौरस्य निर्द्रव्यनिचयस्य च। असंभावितमित्रस्य भिन्नामात्यस्य सर्वतः।। | 12-131-2a 12-131-2b |
परचक्राभियातस्य दुर्बलस्य बलीयसा। आपन्नचेतसो ब्रूहि किं कार्यमवशिष्यते।। | 12-131-3a 12-131-3b |
भीष्म उवाच। | 12-131-4x |
बाह्यश्चेद्विजिगीषुः स्याद्धर्मार्थकुशलः शुचिः। जवेन सन्धिं कुर्वीत पूर्वं पूर्वं विमोक्षयेत्।। | 12-131-4a 12-131-4b |
[योऽधर्मविजिगीषुः स्याद्बलवान्पापनिश्चयः।] आत्मनः सन्निरोधेन सन्धिं तेनापि रोचयेत्।। | 12-131-5a 12-131-5b |
अपास्य राजधानीं वा तरेदन्येन वाऽऽपदम्। तद्भावभावो द्रव्याणि जीवन्पुनरुपार्जयेत्।। | 12-131-6a 12-131-6b |
यास्तु कोशबलत्यागाच्छक्यास्तरितुमापदः। कस्तत्राधिकमात्मानं संत्यजेदर्थधर्मवित्।। | 12-131-7a 12-131-7b |
अपराधाज्जुगुप्सेत का सपत्नधने दया। न त्वेवात्मा प्रदातव्यः शक्ये सति कथंचन।। | 12-131-8a 12-131-8b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-131-9x |
आभ्यन्तरे च कुपिते बाह्ये चोपनिपीडिते। क्षीणे कोशे श्रुते मन्त्रे किं कार्यमवशिष्यते।। | 12-131-9a 12-131-9b |
भीष्म उवाच। | 12-131-10x |
क्षिप्रं वा सन्धिकामः स्यात्क्षिप्रं वा तीक्ष्णविक्रम। यदाऽपनयनं क्षिप्रमेतद्वै सांपरायिकम्।। | 12-131-10a 12-131-10b |
अनुरक्तेन पुष्टेन हृष्टेन जगतीपतिः। अल्पेनापि स्वसैन्येन भूमिं जयति भूमिपः।। | 12-131-11a 12-131-11b |
हतो वा दिवमारोहेद्धत्वा च सुखमावहेत्। युद्धे हि संत्यजन्प्राणाञ्शक्रस्यैति सलोकताम्।। | 12-131-12a 12-131-12b |
सर्वलोकागसं कृत्वा मृदुत्वं गन्तुमेव च। विश्वासाद्विनयं कुर्यात्संजह्याद्वाऽप्युपानहौ।। | 12-131-13a 12-131-13b |
अपचिक्रमिषुः क्षिप्रं सेनां स्वां परिसान्त्वयन्। विलङ्घयित्वा सत्रेण ततः स्वयमुपक्रमेत्।। | 12-131-14a 12-131-14b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि एकत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 131।। |
12-131-1 सानुक्रोशस्य बन्धुक्षयभयात् योद्धुमनिच्छतः। परिशङ्कितमुख्यस्य अमात्येषु शङ्कावतः।। 12-131-2 द्रव्याभावादेव न संभावितानि आवर्जितानि मित्राणि येन तस्य भिन्नाः शत्रुभिर्ददी कृता अमात्या यस्य।। 12-131-3 बलीयसा शत्रुणा आपन्नं वाक्रु लीकृतं चेतो यस्य।। 12-131-4 मोक्षयेत् साम्नैवेत्यर्थः।। 12-131-5 अधर्मप्रधानो विजिगीषुरधर्मविजिगीषुः।। 12-131-7 दुष्टतमे तु राज्यधनं त्यक्त्वा आत्मानं रक्षेदित्याह यास्त्विति। यास्तु स्युः केवलत्यागादिति ड. थ. पाठः।। 12-131-9 आभ्यन्तरेऽमात्यादौ बाह्योदुर्गराष्ट्रादौ।। 12-131-10 धर्मिष्ठे बाह्ये क्षिप्रं संधिः। अधर्मि तु --- कर्तव्यः। यदा त्वेवं तदा अपनयनं शत्रो----। अथवा सांपरायिकं धर्मयुद्धेन मरणे पर—कहितं भवति।। 12-131-13 विश्वासात् विश्वासं प्रापय्य विक्यं कुर्यात् मृदुर्भवेत्। नतु युद्धमेव हठेन श्रयेत्।।
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