महाभारतम्-12-शांतिपर्व-044

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  369. 369
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  371. 371
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  375. 375

युधिष्ठिरेण कृष्णमेत्य सुखशयनादिप्रश्नपूर्वकं तत्स्तुतिः।। 1।।

जनमेजय उवाच। 12-44-1x
प्राप्य राज्यं महाबाहुर्धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः।
यदन्यदकरोद्विप्र तन्मे वक्तुमिहार्हसि।।
12-44-1a
12-44-1b
भगवान्वा हृषीकेशस्त्रैलोक्यस्य परो गुरुः।
ऋषे यदकरोद्वीरस्तच्च व्याख्यातुमर्हसि।।
12-44-2a
12-44-2b
वैशंपायन उवाच। 12-44-3x
शृणु तत्त्वेन राजेन्द्र कीर्त्यमानं मयाऽनघ।
वासुदेवं पुरस्कृत्य यदकुर्वत पाण्डवाः।।
12-44-3a
12-44-3b
प्राप्य राज्यं महाराज कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
वर्णान्संस्थापयामास नयेन विनयेन च।।
12-44-4a
12-44-4b
ब्राह्मणानां सहस्रं च स्नातकानां महात्मनाम्।
सहस्रनिष्कैरेकैकं तर्पयामास पाण्डवः।।
12-44-5a
12-44-5b
तथाऽनुजीविनो भृत्यान्संश्रितानतिथीनपि।
कामैः संतर्पयामास कृपणांस्तार्किकानपि।।
12-44-6a
12-44-6b
पुरोहिताय धौम्याय प्रादादयुतशः स गाः।
धनं सुवर्णं रजतं वासांसि विविधान्यपि।।
12-44-7a
12-44-7b
कृपाय च महाराज पितृवत्तमतर्पयत्।
विदुराय च राजाऽसौ पूजां चक्रे यतव्रतः।।
12-44-8a
12-44-8b
भक्ष्यान्नपानैर्विविधैर्वासोभिः शयनासनैः।
सर्वान्संतोपयामास संश्रितान्ददतां वरः।।
12-44-9a
12-44-9b
लब्धप्रशमनं कृत्वा स राजा राजसत्तम।
युयुत्सोर्धार्तराष्ट्रस्य पूजां चक्रे महायेशाः।।
12-44-10a
12-44-10b
धृतराष्ट्राय तद्राज्यं गान्धार्यै विदुराय च।
निवेद्य सुस्थवद्राजा सुखमास्ते युधिष्ठिरः।।
12-44-11a
12-44-11b
तथा सर्वं स नगरं प्रसाद्य भरतर्षभ।
वासुदेवं महात्मानमभ्यगच्छत्कृताञ्जलिः।।
12-44-12a
12-44-12b
ततो महति पर्यङ्के मणिकाञ्चनभूषिते।
ददर्श कृष्णमासीनं नीलं मेराविवाम्बुदम्।।
12-44-13a
12-44-13b
जाज्वल्यमानं वपुषा दिव्याभरणभूषितम्।
पीतकौशेयवसनं हेम्नेवोपगत मणिम्।।
12-44-14a
12-44-14b
कौस्तुभेनोरसिस्थेन मणिनाऽभिविराजितम्।
उद्यतेवोदयं शैलं सूर्येणाभिविराजितम्।।
12-44-15a
12-44-15b
नौपम्यं विद्यते तस्य त्रिषु लोकेषु किंचन।। 12-44-16a
सोऽभिगम्य महात्मानं विष्णुं पुरुषसत्तमम्।
उवाच मधुरं राजा स्मितपूर्वमिदं तदा।।
12-44-17a
12-44-17b
सुखेन ते निशा कच्चिद्व्युष्टा बुद्धिमतां वर।
कच्चिज्ज्ञानानि सर्वाणि प्रसन्नानि तवाच्युत।।
12-44-18a
12-44-18b
तथैवोपश्रिता देवी बुद्धिर्बुद्धिमतां वर।
वयं राज्यमनुप्राप्ताः पृथिवी च वशे स्थिता।।
12-44-19a
12-44-19b
तव प्रसादाद्भगवंस्त्रिलोकगतिविक्रम।
जयं प्राप्ता यशश्चाग्र्यं न च धर्मच्युता वयम्।।
12-44-20a
12-44-20b
तं तथा भाषमाणं तु धर्मराजमरिंदमम्।
नोवाच भगवान्किंचिद्ध्यानमेवान्वपद्यत।।
12-44-21a
12-44-21b
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि
राजधर्मपर्वणि चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः।। 44।।

12-44-10 लब्धप्रशमनं लब्धस्य धनादेः यथोचितमंशतः पात्रे समर्पणेन शान्तिकम्।।

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