महाभारतम्-12-शांतिपर्व-209
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति वासुदेवतत्वकथनम्।। 1।।
`* युधिष्ठिर उवाच। | 12-209-1x |
पितामह महाप्राज्ञ केशवस्य महात्मनः। वक्तुमर्हसि तत्त्वेन माहात्म्यं पुनरेव तु।। | 12-209-1a 12-209-1b |
न तृप्याम्यहमप्येनं पश्यञ्शृण्वंश्च भारत। एवं कृष्णं महाबाहो तस्मादेतद्ब्रवीहि मे।। | 12-209-2a 12-209-2b |
भीष्म उवाच। | 12-209-3x |
शृणु राजन्कथामेतां वैष्णवीं पापनाशनीम्। नारदो मां पुरा प्राह यामहं ते वदामि ताम्।। | 12-209-3a 12-209-3b |
देवर्षिर्नारदः पूर्वं तत्वं वेत्स्यामि वै हरेः। इति संचिन्त्य मनसा दध्यौ ब्रह्म सनातनम्।। | 12-209-4a 12-209-4b |
हिमालये शुभे दिव्ये दिव्यं वर्षशतं किल। अनुच्छ्वसन्निराहारः संयतात्मा जितेन्द्रियः।। | 12-209-5a 12-209-5b |
ततोऽन्तरिक्षे वागासीत्तं मुनिप्रवरं प्रति। मेघगम्भीरनिर्घोषा दिव्या वाह्याऽशरीरिणी।। | 12-209-6a 12-209-6b |
किमर्थं त्वं समापन्नो ध्यानं मुनिवरोत्तम। अहं ददामि ते ज्ञानं धर्माद्यं वा वृणीष्व माम्।। | 12-209-7a 12-209-7b |
तच्छ्रुत्वा मुनिरालोच्य संभ्रमाविष्टमानसः। किंनु स्यादिति संचिन्त्य वाक्यमाहापरं प्रति।। | 12-209-8a 12-209-8b |
कस्त्वं भवानण्डं बिभेद मध्ये समास्थितो वाक्यमुदीरयन्माम्। न रूपमन्यत्तव दृश्यते वै ईदृग्विधस्त्वं समधिष्ठितोऽसि।। | 12-209-9a 12-209-9b 12-209-9c 12-209-9d |
पुनस्तमाह स मुनिमनन्तोऽहं बृहत्तरः। न मां मूढा विजानन्ति ज्ञानिनो मां विदन्त्युत।। | 12-209-10a 12-209-10b |
तं प्रत्याह मुनिः श्रीमान्प्रणतो विनयान्वितः। भवन्तं ज्ञातुमिच्छामि तव तत्वं ब्रवीहि मे।। | 12-209-11a 12-209-11b |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा नारदं प्राह लोकपः। ज्ञानेन मां विजानीहि नान्यथा शक्तिरस्ति ते।। | 12-209-12a 12-209-12b |
नारद उवाच। | 12-209-13x |
कीदृग्विधं तु तज्ज्ञानं येन जानामि ते तनुम्। अनन्त तन्मे ब्रूहि त्वं यद्यनुग्रहवानहम्।। | 12-209-13a 12-209-13b |
लोकपाल उवाच। | 12-209-14x |
विकल्पहीनं विपुलं तस्य चूरं शिवं परम्। ज्ञानं तत्तेन जानासि साधनं प्रति ते मुने।। | 12-209-14a 12-209-14b |
अत्रावृत्य स्थितं ह्येतत्तच्छुद्धमितरन्मृषा। एतत्ते सर्वमाख्यातं संक्षेपान्मुनिसत्तम।। | 12-209-15a 12-209-15b |
नारद उवाच। | 12-209-16x |
त्वमेव तव यत्तत्वं ब्रूहि लोकगुरो मम। भवन्तं ज्ञातुमिच्छामि कीदृग्भूतस्त्वमव्यय।। | 12-209-16a 12-209-16b |
ततः प्रहस्य भगवान्मेघगम्भीरया गिरा। प्राहेशः सर्वभूतानां न मे चास्यं श्रुतिर्न च।। | 12-209-17a 12-209-17b |
न घ्राणजिह्वे दृक्चैव त्वचा नास्ति तथा मुने। कथं वक्ष्यामि चात्मानमशरीरस्तथाप्यहम्।। | 12-209-18a 12-209-18b |
तज्ज्ञात्वा विस्मयाविष्टो मुनिराह प्रणम्य तम्। येन त्वं पूर्वमात्मानमनन्तोऽहं बृहत्तरः। शतोऽहमिति मां प्रीतः प्रोक्तवानसि तत्कथम्।। | 12-209-19a 12-209-19b 12-209-19c |
पुनस्तमाह भगवांस्तवाप्यक्षाणि सन्ति वै। त्वमेनं ब्रूहि चात्मानं यदि शक्नोषि नारद।। | 12-209-20a 12-209-20b |
आत्मा यथा तव मुने विदितस्तु भविष्यति। मां च जानासि तेन त्वमेकं साधनमावयोः। इत्युक्त्वा भगवान्देवस्ततो नोवाच किंचन।। | 12-209-21a 12-209-21b 12-209-21c |
नारदोऽप्युत्स्मयन्खिन्नः क्व गतोऽसाविति प्रभुः। स्थित्वा स दीर्घकालं च मुनिर्व्यामूढमानसः।। | 12-209-22a 12-209-22b |
आह मां भगवान्देवस्त्वनन्तोऽहं बृहत्तरः। तेनाहमिति सर्वस्य को वानन्तो बृहत्तरः।। | 12-209-23a 12-209-23b |
केयमुर्वी ह्यनन्ताख्या बृहती नूनमेव सा। यस्यां जानन्ति भूतानि विलीनानि ततस्ततः। एनां पृच्छामि तरुणीं सैषा नूनमुवाच माम्।। | 12-209-24a 12-209-24b 12-209-24c |
इत्येवं स मुनिः श्रीमान्कृत्वा निश्चयमात्मनः। स भूतलं समाविश्य प्रणिपत्येदमब्रवीत्।। | 12-209-25a 12-209-25b |
आश्चर्यासि च धन्यासि वृहती त्वं वसुन्धरे। त्वामत्र वेत्तुमिच्छामि याग्दृभूताऽसि शोभने।। | 12-209-26a 12-209-26b |
तच्छ्रुत्वा धरणी देवी स्मयमानाऽब्रवीदिदम्। नाहं हि बृहती विप्र न चानन्ता च सत्तम।। | 12-209-27a 12-209-27b |
कारणं मम यो गन्धो गन्धात्मानं ब्रवीहि तम्। ततो मुनिस्तद्धि तत्वं प्रणिपत्येदमब्रवीत्।। | 12-209-28a 12-209-28b |
कारणं मे जलं मत्तो बृहत्तरतमं हि तत्।। | 12-209-29a |
स समुद्रं मुनिर्गत्वा प्रणिपत्येदमब्रवीत्। आश्चर्योसि च धन्योसि ह्यनन्तोसि बृहत्तरः।। | 12-209-30a 12-209-30b |
भवन्तं वेत्तुमिच्छामि कीदृग्भूतस्त्यमव्यय। तच्छ्रुत्वा सरितानाथः समुद्रो मुनिमब्रवीत्।। | 12-209-31a 12-209-31b |
कारणं मेऽत्र संपृच्छ रसात्मानं बृहत्तरम्। ततो बृहत्तरं विद्वंस्त्वं पृच्छ मुनिसत्तम।। | 12-209-32a 12-209-32b |
ततो मुनिर्यथायोगं जलं तत्वमवेक्ष्य तत्। जलात्मानं प्रणम्याह जलतत्वस्थितो मुनिः।। | 12-209-33a 12-209-33b |
आश्चर्योसि च धन्योसि ह्यनन्तोसि बृहत्तरः। भवन्तं श्रोतुमिच्छामिकीदृग्भूतस्त्वमव्यय।। | 12-209-34a 12-209-34b |
ततो रसात्म--मुनिमाह पुनः पुनः। ममापि कारणं पृच्छ तेजोरूपं विभावसुम्। नाहं बृहत्तरो ब्रह्मन्नाप्यनन्तश्च सत्तम्।। | 12-209-35a 12-209-35b 12-209-35c |
ततोऽग्निं प्रणिपत्याह मुनिर्विस्मितमानसः। यज्ञात्मानं महावासं सर्वभूतनमस्कृतम्।। | 12-209-36a 12-209-36b |
आश्चर्योसि च धन्योसि ह्यनन्तश्च बृहत्तरः। भवन्तं वेत्तुमिच्छामि कीदृग्भूतस्त्वमव्यय।। | 12-209-37a 12-209-37b |
ततः प्रहस्य भगवान्मुनिं स्विष्टकृदब्रवीत्। नाहं बृहत्तरो ब्रह्मन्नाप्यनन्तश्च सत्तम। कारणं मम रूपं यत्तं पृच्छ मुनिसत्तम।। | 12-209-38a 12-209-38b 12-209-38c |
ततो योगक्रमेणैव प्रतीतं तं प्रविश्य सः। रूपात्मानं प्रणम्याह नारदो वदतांवरः।। | 12-209-39a 12-209-39b |
आश्चर्योसि च धन्योसि ह्यनन्तोसि बृहत्तरः। भवन्तं वेत्तुमिच्छामि कीदृग्भूतस्त्वमव्यय।। | 12-209-40a 12-209-40b |
उत्स्मयित्वा तु रूपात्मा तं मुनिं प्रत्युवाच ह। वायुर्मे कारणं ब्रह्मंस्तं पृच्छ मुनिसत्तम। मत्तो बहुतरः श्रीमाननन्तश्च महाविलम्।। | 12-209-41a 12-209-41b 12-209-41c |
स मारुतं प्रणम्याह भगवान्मुनिसत्तमः। योगसिद्धो महायोगी ज्ञानविज्ञानपारगः।। | 12-209-42a 12-209-42b |
आश्चर्योसि च धन्योसि ह्यनन्तोसि बृहत्तरः। भवन्तं वेत्तुमिच्छामि कीदृग्भूतस्त्वमव्यय।। | 12-209-43a 12-209-43b |
ततो वायुर्हि संप्राह नारदं मुनिसत्तमम्। कारणं पृच्छ भगवन्स्पर्शात्मानं ममाद्य वै।। | 12-209-44a 12-209-44b |
मत्तो बृहत्तरः श्रीमाननन्तश्च तथैव सः। ततोस्य वचनं श्रुत्वा स्पर्शात्मानमुवाच सः।। | 12-209-45a 12-209-45b |
आश्चर्योसि च धन्योसि ह्यनन्तोसि बृहत्तरः। भवन्तं वेत्तुमिच्छामि कीदृग्भूतस्त्वमव्यय।। | 12-209-46a 12-209-46b |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा स्पर्शात्मा मुनिमब्रवीत्। नाहं वृहत्तरो ब्रह्मन्नाप्यनन्तश्च सत्तम।। | 12-209-47a 12-209-47b |
कारणं मम चैवेममाकाशं च बृहत्तरम्। तं पृच्छ मुनिशार्दूल सर्वव्यापिनमव्ययम्।। | 12-209-48a 12-209-48b |
तच्छ्रुत्वा नारदः श्रीमान्वाक्यं वाक्यविशारदः। आकाशं समुपागम्य प्रणम्याह कृताञ्जलिः।। | 12-209-49a 12-209-49b |
आश्चर्योसि न धन्योसि ह्यनन्तोसि बृहत्तरः। भवन्तं वेत्तुमिच्छामि कीदृग्भूतस्त्वमव्यय।। | 12-209-50a 12-209-50b |
आकाशस्तमुवाचेदं प्रहसन्मुनिसत्तमम्। नाहं बृहत्तरो ब्रह्मञ्शब्दो वै कारणं मम। तं पृच्छ मुनिशार्दूल स वै मत्तो बृहत्तरः।। | 12-209-51a 12-209-51b 12-209-51c |
ततो ह्याविश्य चाकाशं शब्दात्मानमुवाच ह। स्वरव्यञ्जनसंयुक्तं नानाहेतुविभूषितम्। वेदाख्यं परमं गुह्यं वेदकारणमच्युतम्।। | 12-209-52a 12-209-52b 12-209-52c |
आश्चर्योसि च धन्योसि ह्यनन्तोसि बृहत्तरः। भवन्तं श्रोतुमिच्छामि कीदृग्भूतस्त्वमव्यय।। | 12-209-53a 12-209-53b |
वेदात्मा प्रत्युवाचेदं नारदं मुनिपुङ्गवम्। मया कारणभूतेन सर्ववेत्ता पितामहः।। | 12-209-54a 12-209-54b |
ब्रह्मणो बुद्धिसंस्थानमास्थितोऽहं महामुने। तस्माद्वृहत्तरो मत्तः पद्मयोनिर्महामतिः। तं पृच्छ मुनिशार्दूल सर्वकारणकारणम्।। | 12-209-55a 12-209-55b 12-209-55c |
ब्रह्मलोकं ततो गत्वा नारदो मुनिपुङ्गवैः। सेव्यमानं महात्मानं लोकपालैर्मरुद्गणैः।। | 12-209-56a 12-209-56b |
समुद्रैश्च सरिद्भिश्च भूततत्वैः सभूधरैः। गन्धर्वैरप्सरोभिश्च ज्योतिषां च गणैस्तथा।। | 12-209-57a 12-209-57b |
स्तुतिस्तोमग्रहस्तोभैस्तथा वेदैर्मुनीश्वरैः। उपास्यमानं ब्रह्माणं लोकनाथं परात्परम्।। | 12-209-58a 12-209-58b |
हिरण्यगर्भं विश्वेशं चतुर्वक्रेण भूषितम्। प्रणम्य प्राञ्जलिः प्रह्वस्तमाह मुनिपुङ्गवः।। | 12-209-59a 12-209-59b |
आश्चर्योसि च धन्योसि ह्यनन्तोसि बृहत्तरः। भवन्तं वेत्तुमिच्छामि कीदृग्भूतस्त्वमव्यय।। | 12-209-60a 12-209-60b |
तच्छ्रुत्वा भगवान्ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः। उत्स्मयन्मुनिमाहेदं कर्ममूलस्य लोपकम्।। | 12-209-61a 12-209-61b |
नाहं बृहत्तरो ब्रह्मन्नाप्यनन्तश्च सत्तम। लोकानां मम सर्वेषां नाथभूतो बृहत्तरः।। | 12-209-62a 12-209-62b |
नन्दगोपकुले गोपकुमारैः परिवारितः। समस्तजगतां गोप्ता गोपवेषेण संस्थितः।। | 12-209-63a 12-209-63b |
मद्रूपं च समास्थाय जगत्सृष्टिं करोति सः। ऐशानमास्थितः श्रीमान्हन्ति नित्यं हि पाति च।। | 12-209-64a 12-209-64b |
विष्णुः स्वरूपरूपोऽसौ कारणं स हरिर्मम। तं पृच्छ मुनिशार्दूल स चानन्तो बृहत्तरः।। | 12-209-65a 12-209-65b |
ततोऽवतीर्य भगवान्ब्रह्मलोकान्महामुनिः। नन्दगोपकुले विष्णुमेनं कृष्णं जगत्पतिम्।। | 12-209-66a 12-209-66b |
बालक्रीडनकासक्तं वत्सजालविभूषितम्। पाययित्वाथ बध्नन्तं धूलिधूम्राननं परम्।। | 12-209-67a 12-209-67b |
गाहमानैर्हसद्भिश्च नृत्यद्भिश्च समन्ततः। पाणिवादनकैश्चैव संवृतं वेणुवादकैः।। | 12-209-68a 12-209-68b |
प्रणिपत्याब्रवीदेनं नारदो भगवान्मुनिः। आश्चर्योसि च धन्योसि ह्यनन्तश्च बृहत्तरः। वेत्ताऽसि चाव्ययश्चासि वेत्तुमिच्छामि यादृशम्।। | 12-209-69a 12-209-69b 12-209-69c |
ततः प्रहस्य भगवान्नारदं प्रत्युवाच ह। मत्तः परतरं नास्ति मत्तः सर्वं प्रतिष्ठितम्।। | 12-209-70a 12-209-70b |
मतो बृहत्तरं नान्यदहमेव बृहत्तरः। आकाशे च स्थितः पूर्वमुक्तवानहमेव ते।। | 12-209-71a 12-209-71b |
न मां वेत्ति जनः कश्चिन्माया मम दुरत्यया। भक्त्या त्वनन्यया युक्ता मां विजानन्ति योगिनः।। | 12-209-72a 12-209-72b |
प्रियोसि मम भक्तोसि मम तत्वं विलोकय। ददामि तव तज्ज्ञानं येन तत्वं प्रपश्यसि।। | 12-209-73a 12-209-73b |
अन्येषां चैव भक्तानां मम योगरतात्मनाम्। ददामि दिव्यं ज्ञानं च येन तत्वं प्रपश्यसि।। | 12-209-74a 12-209-74b |
अन्येषां चैव भक्तानां मम योगरतात्मनाम्। ददामि दिव्यं ज्ञानं च तेन ते यान्ति मत्पदम्।। | 12-209-75a 12-209-75b |
एवमुक्त्वा ययौ कृष्णो नन्दगोपगृहं हरिः।। | 12-209-76a |
भीष्म उवाच। | 12-209-77x |
एतत्ते कथितं राजन्विष्णुतत्वमनुत्तमम्। भजस्वैनं विशालाक्षं जपन्कृष्णेति सत्तम।। | 12-209-77a 12-209-77b |
मोहयन्मां तथा त्वां च शृणोत्येष मयेरितान्। धर्मात्मा च महाबाहो भक्तान्रक्षति नान्यथा।। | 12-209-78a 12-209-78b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि नवाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 209।। |
शांतिपर्व-208 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-210 |