महाभारतम्-12-शांतिपर्व-370
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ब्राह्मणसंदेशश्रवणरुष्टेन नागेन पत्नीसुवाक्येन रोषत्यागपूर्वकं ब्राह्मणंप्रति प्रस्थानम्।। 1।।
नाग उवाच। | 12-370-1x |
अथ ब्राह्मणरूपेण कं तं समनुपश्यसि। मानुषं केवलं विप्रं देवं वाऽथ शुचिस्मिते।। | 12-370-1a 12-370-1b |
को हि मां मानुषः शक्तो द्रष्टुकामो यशस्विनि। संदर्शनरुचिर्वाक्यमाज्ञापूर्वं वदिष्यति।। | 12-370-2a 12-370-2b |
सुरासुरगणानां च देवर्षीनां च भामिनि। ननु नागा महावीर्याः सौरभेयास्तरस्विनः।। | 12-370-3a 12-370-3b |
वन्दनीयाश्च वरदा वयमप्यनुयायिनः। मनुष्याणां विशेषेण नावेक्ष्या इति मे मतिः।। | 12-370-4a 12-370-4b |
नारभार्योवाच। | 12-370-5x |
आर्जवेन विजानामि नासौ देवोऽनिलाशन। एकं तस्मिन्विजानामि भक्तिमानतिरोपण।। | 12-370-5a 12-370-5b |
स हि कार्यान्तराकाङ्क्षी जलेप्सुः स्तोकको यथा। वर्षं वर्षप्रियः पक्षी दर्शनं तव काङ्क्षते।। | 12-370-6a 12-370-6b |
हित्वा त्वद्दर्शनं किंचिद्विघ्नं न प्रतिपालयेत्। तुल्योप्यभिजने जातो न कश्चित्पर्युपासते।। | 12-370-7a 12-370-7b |
तद्रोषं सहजं त्यक्त्वा त्वमेनं द्रष्टुमर्हसि। आशाच्छेदेन तस्याद्य नात्मानं दरधुमर्हसि।। | 12-370-8a 12-370-8b |
आशया ह्यभिपन्नानामकृत्वाऽश्रुप्रमार्जनम्। राजा वा राजपुत्रो वा भ्रूणहत्यैव युज्यते।। | 12-370-9a 12-370-9b |
मौने ज्ञानफलावाप्तिर्दानेन च यशो महत्। वाग्मित्वं सत्यवाक्येन परत्र च महीयते।। | 12-370-10a 12-370-10b |
भूप्रदानेन च गतिं लभत्याश्रमसंमिताम्। न्याय्यस्यार्धस्य संप्राप्तिं कृत्वा फलमुपाश्रुते।। | 12-370-11a 12-370-11b |
अभिप्रेतामसंश्लिष्टां कृत्वा चात्महितां क्रियाम्। न याति निरयं कश्चिदिति धर्मविदो विदुः।। | 12-370-12a 12-370-12b |
नाम उवाच। | 12-370-13x |
अभिमानैर्न मानो मे जातिदोषेण वै महान्। रोषः संकल्पजः साध्वि दग्धो वागग्निना त्वया।। | 12-370-13a 12-370-13b |
न च रोषादहं साध्वि पश्येयमधिकं तमः। तस्य वक्तव्यतां याति विशेषेण भुजङ्गमाः।। | 12-370-14a 12-370-14b |
रोषस्य हि वशं गत्वा दशग्नीवः प्रतापवान्। तथा शक्रप्रतिस्पर्धी हतो रामेण संयुगे।। | 12-370-15a 12-370-15b |
अन्तःपुरगतं वत्सं श्रुत्वा रामेण निर्हृतम्। धर्मणारोषसंविग्नाः कार्तवीर्यसुता हताः।। | 12-370-16a 12-370-16b |
जामदग्न्येन रामेण सहस्रनयनोपमः। संयुगे निहतो रोषात्कार्तवीर्यो महाबलः।। | 12-370-17a 12-370-17b |
तदेष तपसां शत्रुः श्रेयसां विनिपातकः। निगृहीतो मया रोषः श्रुत्वैवं वचनं तव।। | 12-370-18a 12-370-18b |
आत्मानं च विशेषेण प्रशंसाम्यनपायिनि। यस्य मे त्वं विशालाक्षि भार्या गुणसमन्विता।। | 12-370-19a 12-370-19b |
एष तत्रैव गच्छामि यत्र तिष्ठत्यसौ द्विजः। सर्वथा चोक्तवान्वाक्यं स कृतार्थः प्रयास्यति।। | 12-370-20a 12-370-20b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि सप्तत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 370।। |
12-370-1 कथं त्वमनुपश्यसीति ट. पाठः।। 12-370-3 सौरभेयाः दिव्यगन्धवहाः।। 12-370-6 स्तोककः चातकः।। 12-370-7 त्वद्दर्शनं विनास्य कोपि विघ्नो माभूदित्यर्थः। अतिथिं त्यक्त्वा न कश्चित्स्वकुले आस्ते इत्यर्थः। नहि त्वां दैवतं किंचिद्द्वितीयं प्रतिपालयेदिति ट. पाठः।। 12-370-9 भ्रूणहत्यैव भ्रूणहत्ययैव।। 12-370-10 दानेनाभ्युदयो महानिति ट. पाठः।। 12-370-11 लभत्याश्रमसंपदमिति ट. पाठः।। 12-370-12 नष्टस्यार्थस्य संप्राप्तिं कृत्वा कामकृताः क्रिया इति ट. पाठः।। 12-370-14 तस्य रोषस्य विशेषेणाधिक्येन।।
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