महाभारतम्-12-शांतिपर्व-056
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भीष्मेण युधिष्ठिराय राजधर्मकथनम्।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-56-1x |
नित्योद्युक्तेन वै राज्ञा भवितव्यं युधिष्ठिर। प्रशस्यते न राजा हि नारीवोद्यमवर्जितः।। | 12-56-1a 12-56-1b |
भगवानुशना चाह श्लोकमत्र विशांपते। तदिहैकमना राजन्गदतस्तं निबोध मे।। | 12-56-2a 12-56-2b |
द्वाविमौ ग्रसते भूमिः सर्पो बिलशयानिव। राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम्।। | 12-56-3a 12-56-3b |
तदेतन्नरशार्दूल हृदि त्वं कर्तुमर्हसि। सन्धेयानभिसन्धत्स्व विरोध्यांश्च विरोधय।। | 12-56-4a 12-56-4b |
सप्ताङ्गस्य च राज्यस्य विपरीतं य आचरेत्। गुरुर्वा यदि वा मित्रं प्रतिहन्तव्य एव सः।। | 12-56-5a 12-56-5b |
मरुत्तेन हि राज्ञा वै गीतः श्लोकः पुरातनः। राज्याधिकारे राजेन्द्र बृहस्पतिमतः पुरा।। | 12-56-6a 12-56-6b |
गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः। उत्पथं प्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते।। | 12-56-7a 12-56-7b |
बाहोः पुत्रेण राज्ञा च सगरेण च धीमता। असमञ्जः सुतो ज्येष्ठस्त्यक्तः पौरहितैषिणा।। | 12-56-8a 12-56-8b |
असमञ्जः सरय्वां स पौराणां बालकान्नृप। न्यमज्जयदतः पित्रा निर्भर्त्स्य स विवासितः।। | 12-56-9a 12-56-9b |
ऋषिणोद्दालकेनापि श्वेतकेतुर्महातपाः। मिथ्या विप्रानुपचरन्सन्त्यक्तो दयितः सुतः।। | 12-56-10a 12-56-10b |
लोकरञ्जनमेवात्र राज्ञां धर्मः सनातनः। सत्यस्य रक्षणं चैव व्यवहारस्य चार्जवम्।। | 12-56-11a 12-56-11b |
न हिंस्यात्परवित्तानि देयं काले च दापयेत्। विक्रान्तः सत्यवाक्क्षान्तो नृपो न चलते पथः।। | 12-56-12a 12-56-12b |
गुप्तमन्त्रो जितक्रोधः शास्त्रार्थकृतनिश्चयः। धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च सततं रतः।। | 12-56-13a 12-56-13b |
त्रय्या संवृतमन्त्रश्च राजा भवितुर्महति। वृजिनं च नरेन्द्राणां नान्यच्चारक्षणात्परम्।। | 12-56-14a 12-56-14b |
चातुर्वर्ण्यस्य धर्माश्च रक्षितव्या महीक्षिता। धर्मसंकररक्षा च राज्ञां धर्मः सनातनः।। | 12-56-15a 12-56-15b |
न विश्वसेच्च नृपतिर्न चात्यर्थं च विश्वसेत्। षाङ्गुण्यगुणदोषांश्च नित्यं बुद्ध्याऽवलोकयेत्।। | 12-56-16a 12-56-16b |
अच्छिद्रदर्शी नृपतिर्नित्यमेव प्रशस्यते। त्रिवर्गे विदितार्थश्च युक्ताचारपथश्च यः।। | 12-56-17a 12-56-17b |
कोशस्योपार्जनरतिर्यमवैश्रवणोपमः। वेत्ता च दशवर्गस्य स्थानवृद्धिक्षयात्मनः।। | 12-56-18a 12-56-18b |
अभृतानां भवेद्भर्ता भृतानामन्ववेक्षकः। नृपतिः सुभुखश्च स्यात्स्मितपूर्वाभिभाषिता।। | 12-56-19a 12-56-19b |
उपासिता ---- जिततन्द्रिरलोलुपः। सतां वृत्ते स्थितमतिः सतां ह्याचारदर्शनः।। | 12-56-20a 12-56-20b |
न चाददीत वित्तानि सतां हस्तात्कदाचन। असभ्द्यश्च समादाय सभ्द्यस्तु प्रतिपादयेत्।। | 12-56-21a 12-56-21b |
स्वयं प्रहर्ता दाता च वश्यात्मा वश्यसाधनः। काले दाता च भोक्ता च शुद्धाचारस्तथैव च।। | 12-56-22a 12-56-22b |
शूरान्भक्तानसंहार्यान्कुले जातानरोगिणः। शिष्टाञ्शिष्टाभिसंबन्धान्मानिनोऽनवमानिनः।। | 12-56-23a 12-56-23b |
विद्याविदो लोकविदः परलोकान्ववेक्षकान्। धर्मे च निरतान्साधूनचलानचलानिव। | 12-56-24a 12-56-24b |
सहायान्सततं कुर्याद्राजा भूतिपरिष्कृतान्। तैश्च तुल्यो भवेद्भोगैश्छत्रमात्राज्ञयाऽधिकः।। | 12-56-25a 12-56-25b |
प्रत्यक्षा च परोक्षा च वृत्तिश्चास्य भवेत्समा। एवं कुर्वन्नरेन्द्रो हि न खेदमिह विन्दति।। | 12-56-26a 12-56-26b |
सर्वाभिशङ्की नृपतिर्यश्च सर्वहरो भवेत्। स क्षिप्रमनृर्जुर्लुब्धः स्वजनेनैव बाध्यते।। | 12-56-27a 12-56-27b |
शुचिस्तु पृथिवीपालो लोकस्यानुग्रहे रतः। न पतत्यरिभिर्ग्रस्तः पतितश्चाधितिष्ठति।। | 12-56-28a 12-56-28b |
अक्रोधनो ह्यव्यसनी मृदुदण्डो जितेन्द्रियः। राजा भवति भूतानां विश्वास्यो हिमवानिव।। | 12-56-29a 12-56-29b |
प्राज्ञो न्यायगुणोपेतः पररन्ध्रेषु लालसः। सुदर्शः सर्ववर्णानां नयापनयवित्तथा।। | 12-56-30a 12-56-30b |
क्षिप्रकारी जितक्रोधः सुप्रसादो महामनाः। अरोगप्रकृतिर्युक्तः क्रियावानविकत्थनः।। | 12-56-31a 12-56-31b |
आरब्धान्येव कार्याणि न पर्यवसितान्यपि। यस्य राज्ञः प्रदृश्यन्ते स राजा राजसत्तमः।। | 12-56-32a 12-56-32b |
पुत्रा इव पितुर्गेहे विषये यस्य मानवाः। निर्भया विचरिष्यन्ति स राजा राजसत्तमः।। | 12-56-33a 12-56-33b |
अगूढविभवा यस्य पौरा राष्ट्रनिवासिनः। नयापनयवेत्तारः स राजा राजसत्तमः।। | 12-56-34a 12-56-34b |
स्वधर्मनिरता यस्य जना विषयवासिनः। असङ्घातरता दान्ताः पाल्यमाना यथाविधि।। | 12-56-35a 12-56-35b |
वश्या यत्ता विनीताश्च न च सङ्घर्षशीलिनः। विषये दानरुचयो नरा यस्य स पार्थिवः।। | 12-56-36a 12-56-36b |
न यस्य कूटं कपटं न माया न च मत्सरः। विषये भूमिपालस्य तस्य धर्मः सनातनः।। | 12-56-37a 12-56-37b |
यः सत्करोति ज्ञानानि श्रेयान्परहिते रतः। सतां वर्त्मानुगस्त्यागी स राजा स्वर्गमर्हति।। | 12-56-38a 12-56-38b |
यस्य चाराश्च मन्त्राश्च नित्यं चैव कृताकृताः। न ज्ञायन्ते हि रिपुभिः स राजा राज्यमर्हति।। | 12-56-39a 12-56-39b |
श्लोकद्वयं पुरा गीतं भार्गवेण महात्मना। आख्याते राजचरिते नृपतिं प्रति भारत।। | 12-56-40a 12-56-40b |
राजानं प्रथमं विन्देत्ततो भार्यां ततो धनम्। राजन्यसति लोकेऽस्मिन्कुतो भार्या कुतो धनं।। | 12-56-41a 12-56-41b |
तद्राज्ये राज्यकामानां नान्यो धर्मः सनातनः। ऋते रक्षां तु विस्पष्टां रक्षा लोकस्य धारिणी।। | 12-56-42a 12-56-42b |
प्राचेतसेन मनुना श्लोकौ चेमावुदाहृतौ। राजधर्मेषु राजेन्द्र ताविहैकमनाः शृणु।। | 12-56-43a 12-56-43b |
षडेतान्पुरुषो जह्याद्भिन्नां नावमिवार्णवे। अप्रवक्तारमाचार्यमनधीयानमृत्विजम्।। | 12-56-44a 12-56-44b |
अरक्षितारं राजानं भार्यां चाप्रियवादिनीम्। ग्रामकामं च गोपालं वनकामं च नापितम्।। | 12-56-45a 12-56-45b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि षट्पञ्चाशोऽध्यायः।। 56।। |
12-56-3 अप्रवासिनं वेदाध्ययनार्थम्।। 12-56-5 सप्त स्वाम्यमात्यसुहृत्कोशराष्ट्रदुर्गबलानि अङ्गानि यस्य तस्य सप्ताङ्गस्य।। 12-56-12 न हिं स्यात् करार्थं धान्यानि रुद्धा वृष्ट्यादिना न नाशयत्। देय---नम्।। 12-56-14 वृजिनं संकटं अरक्षणात् मन्त्रस्यागोपनादन्यन्नास्ति।। 12-56-15 धर्माणां संकरोव्यत्ययस्तस्मात्प्रजानां रक्षा धर्मसंकररक्षा।। 12-56-16 न विश्वसेत्। चात् विश्वसेदप्याप्तेषु। तेष्वपि अत्यर्थं न विश्वसेत्।। 12-56-23 शूरान्सहायान् कुर्यादिति तृतीयेनान्वयः। असंहार्यान्परैरप्रतार्यान्। शिष्टाभिसंबन्धान् शिष्टपरिवारान्। अनवमानिनः अवमानं परस्याकुर्वतः।। 12-56-24 अचलान् स्थिरान् अचलानिवपर्वतानिव।। 12-56-25 छत्रमात्रेण सहिता या आज्ञा इदमित्थं कुरुइदं नेति तयाधिकः। अन्यत्सर्वं शूरैः समानं भुञ्जीत।। 12-56-32 सुपर्यवसितानि च इति झ. पाठः।। 12-56-35 असंघातरताः संघाते शरीरे प्रीतिमन्तो न भवन्ति किंतु तत्साध्ये धर्मे एवेत्यर्थः।। 12-56-36 संघर्षः पराभिभवस्तच्छीलिनो न।। 12-56-37 कूटं दम्भः। कपटमनृतम्। मत्सरः परोत्कर्षासहिष्णुत्वम्।। 12-56-38 ज्ञेये परहिते इति झ. पाठः। ज्ञेयः पौरहिते इति थ. द. पाठः। राज्यमर्हतीति झ. पाठः। ज्ञानानि ज्ञानयुक्तान्पण्डितान्।। 12-56-39 कृता अप्यकृता इवेति कृताकृताः।। 12-56-41 प्रथमं श्रेष्ठं असत्यशुभे।।
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