महाभारतम्-12-शांतिपर्व-105
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति राज्ञां शत्रुजयोपायप्रतिपादककौसल्यकालकवृक्षीयसंवादानुवादः।। 1।।
मुनिरुवाच। | 12-105-1x |
अथ चेत्पौरुषं किंचित्क्षत्रियात्मनि पश्यसि। ब्रवीम्यहं तु ते नीतिं राज्यस्य प्रतिपत्तये।। | 12-105-1a 12-105-1b |
तां चच्छक्ष्यस्यनुष्ठातुं कर्म चैव करिष्यसि। शृणु सर्वमशेषेण यत्ते वक्ष्यामि तत्त्वतः।। | 12-105-2a 12-105-2b |
आचरिष्यसि चेत्कर्म महतोऽर्थानवाप्स्यसि। राज्यं वा राज्यमन्त्रं वा महतीं वा पुनः श्रियम्। यद्येतद्रोचते राजन्पुनर्ब्रूहि ब्रवीमि ते।। | 12-105-3a 12-105-3b 12-105-3c |
राजोवाच। | 12-105-4x |
ब्रवीतु भगवान्नीतिमभिपन्नोऽस्म्यधीहि भो। अमोघ एव मेऽद्यास्तु त्वया सह समागमः।। | 12-105-4a 12-105-4b |
मुनिरुवाच। | 12-105-5x |
हित्वा मानं च दम्भं च क्रोधं हर्ष भयं तथा। प्रत्यमित्राणि सेवस्व प्रणिपत्य कृताञ्जलिः। तमुत्तमेन शौचेन कर्मणा चावधारय।। | 12-105-5a 12-105-5b 12-105-5c |
दातुमर्हति ते वित्तं वैदेहः सत्यविक्रमः। प्रमाणं सर्वभूतेषु प्रग्रहं च गमिष्यसि।। | 12-105-6a 12-105-6b |
ततः सहायान्सोत्साहाँल्लप्स्यसेऽव्यसनाञ्शुचीन्। वर्तमानः स्वशास्त्रे वै संयतात्मा जितेन्द्रियः। अभ्युद्धरति चात्मानं प्रसादयति च प्रजाः।। | 12-105-7a 12-105-7b 12-105-7c |
तेनैव त्वं धृतिमता श्रीमता चापि सत्कृतः। प्रमाणं सर्वभूतेषु गत्वा च ग्रहणं महत्।। | 12-105-8a 12-105-8b |
ततः सुहृद्बलं लब्ध्वा मन्त्रयित्वा सुमन्त्रितम्। सान्त्वेन भेदयित्वाऽरीन्बिल्वं बिल्वेन शातय। परैर्वा संविदं कृत्वा बलमप्यस्य घातय।। | 12-105-9a 12-105-9b 12-105-9c |
अलभ्या ये शुभा भावाः स्त्रियश्चाच्छादनानि च। शय्यासनानि यानानि महार्हाणि गृहाणि च।। | 12-105-10a 12-105-10b |
पक्षिणो मृगजातानि रसगन्धाः फलानि च। तेष्वेव सज्जयेथास्त्वं यथा नश्येत्स्वयं परः।। | 12-105-11a 12-105-11b |
यद्येवं प्रतिषेद्धव्यो यद्युपेक्षणमर्हति। `सदैव राजशार्दूल विदुषा हितमिच्छता।' न जातु विवृतः कार्यः शत्रुः सुनयमिच्छता।। | 12-105-12a 12-105-12b 12-105-12c |
वसस्व पुरमामित्रं विषये मित्रसंमतः। भजस्व श्वेतकाकीयैर्मित्रधर्ममनथैकैः।। | 12-105-13a 12-105-13b |
आरम्भांश्चास्य महतो दुष्करान्संप्रयोजय। नदीबन्धविभेदांश्च बलवद्भिर्विरुध्यताम्।। | 12-105-14a 12-105-14b |
उद्यानानि महार्हाणि शयनान्यासनानि च। प्रीतिभोगमुखेनैव कोशमस्य विरोचय।। | 12-105-15a 12-105-15b |
यज्ञदाने प्रशंसास्मै ब्राह्मणाननुवर्तय। ते त्वा प्रियं करिष्यन्ति तच्छेत्स्यन्ति वृका इव।। | 12-105-16a 12-105-16b |
असंशयं पुण्यशीलाः प्राप्नोति परमां गतिम्। त्रिविष्टपे पुण्यतमं स्थानं प्राप्नोति शाश्वतम्।। | 12-105-17a 12-105-17b |
कोशक्षये त्वमित्राणां वशं कौसल्य गच्छति। उभयत्र प्रयुक्तस्य धर्मे चाधर्म एव च।। | 12-105-18a 12-105-18b |
फलार्थमूलमुच्छिद्यात्तेन नन्दन्ति शत्रवः। न चास्मै मानुषं कर्म दैवप्रस्योपवर्णय।। | 12-105-19a 12-105-19b |
असंशयं दैवपरः क्षिप्रमेव विनश्यति। याजयैनं विश्वजिता सर्वस्वेन वियुज्यताम्।। | 12-105-20a 12-105-20b |
ततो गच्छत्यसिद्धार्थः पीडयानो महाजनम्। त्यागधर्मविदं पुण्यं कंचिदस्योपवर्णय।। | 12-105-21a 12-105-21b |
अपि त्यागं बुभूषेत कच्चिद्गच्छेदनामयम्। सिद्धेनौषधियोगेन सर्वशत्रुविनाशिना। गजानश्वान्मनुष्यांश्च कृतकैरुपघातय।। | 12-105-22a 12-105-22b 12-105-22c |
एते चान्ये च बहवो दम्भयोगाः सुचिन्तिताः। शक्या विपहता कर्तुं न क्लीबेन नृपात्मज।। | 12-105-23a 12-105-23b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः।। 105।। |
12-105-4 अभिपन्नोऽस्मि पौरुषेणेति शेषः।। 12-105-6 प्रमाणं विश्वासम्।। 12-105-7 स्वशास्त्रे नीतिशास्त्रे।। 12-105-8 ग्रहणं आदरम्।। 12-105-13 श्वेतकाकीयैः श्वा च एतश्च काकश्च तेषामिति धर्माः। क्रमेण नित्यं जागरूकत्वभयचकितत्वपरेङ्गितज्ञत्वानि तैः उपायैः मित्रधर्मं भजस्व। श्वेत इत्यत्रोमाडोश्चेति पररूपम्। एतो मृगः।। 12-105-14 नदीवच्च विरोधांश्चेति झ. पाठः। तत्र आरम्भान्विरोधांश्च महानदीवद्दुस्तरानित्यर्थः।। 12-105-18 धर्माधर्माभ्यां कोशक्षये सति।। 12-105-19 फलस्य स्वर्गादेः अर्थस्य जयादेः मूलकारणं कोशः।।
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