महाभारतम्-12-शांतिपर्व-107
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति गणवृद्धिप्रकारादिकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-107-1x |
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप। धर्मवृत्तं च वित्तं च वृत्त्युपायाः फलानि च।। | 12-107-1a 12-107-1b |
राज्ञां वृत्तं च कोशं च कोशसंचयनं जयः। अमात्यगुणवृत्तिश्च प्रकृतीनां च वर्धनम्।। | 12-107-2a 12-107-2b |
षाङ्गुण्यगुणकल्पश्च सेनानीतिस्तथैव च। दुष्टस्य च परिज्ञानमदुष्टस्य च लक्षणम्।। | 12-107-3a 12-107-3b |
समहीनाधिकानां च यथावल्लक्षणं च यत्। मध्यमस्य च तुष्ट्यर्थं यथा स्थेयं विवर्धता।। | 12-107-4a 12-107-4b |
क्षीणग्रहणवृत्तिश्च यथा धर्मं प्रकीर्तितम्। लघुनाऽदेशरूपेण ग्रन्थयोगेन भारत।। | 12-107-5a 12-107-5b |
विजिगीषोस्तथा वृत्तमुक्तं चैव तथैव ते। गणानां वृत्तिमिच्छामि श्रोतुं मतिमतां वर।। | 12-107-6a 12-107-6b |
यथा गणाः प्रवर्धन्ते न भिद्यन्ते च भारत। अरींश्च विजिगीषन्ते सुहृदः प्राप्नुवन्ति च।। | 12-107-7a 12-107-7b |
भेदमूलो विनाशो हि गणानामुपलक्षये। मन्त्रसंवरणं दुःखं बहूनामिति मे मतिः।। | 12-107-8a 12-107-8b |
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं निखिलेन परंतप। यथा च ते न भिद्येरंस्तच्च मे वद भारत।। | 12-107-9a 12-107-9b |
भीष्म उवाच। | 12-107-10x |
गणानां च कुलानां च राज्ञां भरतसत्तम। वैरसंदीपनावेतौ लोभामर्षौ नराधिप।। | 12-107-10a 12-107-10b |
लोभमेको हि वृणुते ततोऽमर्षमनन्तरम्। ततो ह्यमर्षसंयुक्तावन्योन्यजनिताशयौ।। | 12-107-11a 12-107-11b |
चारमन्त्रबलादानैः सामदानविभेदनैः। क्षयव्ययभयोपायैः प्रकर्षन्तीतरेतरम्।। | 12-107-12a 12-107-12b |
तत्रादानेन भिद्यन्ते गणाः संघातवृत्तयः। भिन्ना विमनसः सर्वे गच्छन्त्यरिवशं भयात्।। | 12-107-13a 12-107-13b |
भेदे गणा विनश्युर्हि भिन्नास्तु सुजयाः परैः। तस्मात्संघातयोगेन प्रयतेरन्गणाः सदा।। | 12-107-14a 12-107-14b |
अर्थाश्चैवाधिगम्यन्ते संघातबलपौरुषैः। ब्राह्माश्च मैत्रीं कुर्वन्ति तेषु संघातवृत्तिषु।। | 12-107-15a 12-107-15b |
ज्ञानवृद्धाः प्रशंसन्ति शुश्रूषन्तः परस्परम्। विनिवृत्ताभिसंधानाः सुखमेधन्ति सर्वशः।। | 12-107-16a 12-107-16b |
धर्मिष्ठान्व्यवहारांश्च स्थापयन्तश्च शास्त्रतः। यथावत्प्रतिपश्यन्तो विवर्धन्ते गणोत्तमाः।। | 12-107-17a 12-107-17b |
पुत्रान्भ्रातृन्निगृह्णन्तो विनयन्तश्च तान्सदा। विनीतांश्च प्रगृह्णन्तो विवर्धन्ते गणोत्तमाः।। | 12-107-18a 12-107-18b |
चारमन्त्रविधानेषु कोशसंनिचयेषु च। नित्ययुक्ता महाबाहो वर्धन्ते सर्वतो गणाः।। | 12-107-19a 12-107-19b |
प्राज्ञांश्चारान्महोत्साहान्कर्मसु स्थिरपौरुषान्। मानयन्तः सदा युक्ता विवर्धन्ते गणा नृप।। | 12-107-20a 12-107-20b |
द्रव्यवन्तश्च शूराश्च शस्त्रज्ञाः शास्त्रपारगाः। कृच्छ्रास्वापत्सु संमूढान्गणाः संतारयन्ति ते।। | 12-107-21a 12-107-21b |
क्रोधो भेदो भयं दण्डः कर्षणं निग्रहो वधः। नयत्यरिवशं सद्यो गणान्भरतसत्तम।। | 12-107-22a 12-107-22b |
तस्मान्मानयितव्यास्ते गणमुख्याः प्रधानतः। लोकयात्रा समायत्ता भूयसी तेषु पार्थिव।। | 12-107-23a 12-107-23b |
मन्त्रगुप्तिः प्रधानेषु चारश्चामित्रकर्शण। न गणाः कृत्स्नशो मन्त्रं श्रोतुमर्हन्ति भारत।। | 12-107-24a 12-107-24b |
गणमुख्यैस्तु संभूय कार्यं गणहितं मिथः।। | 12-107-25a |
पृथग्गणस्य भिन्नस्य विततस्य ततोऽन्यथा। अर्थाः प्रत्यवसीदन्ति तथाऽनर्था भवन्ति व।। | 12-107-26a 12-107-26b |
तेषामन्योन्यभिन्नानां स्वशक्तिमनुतिष्ठताम्। निग्रहः पण्डितैः कार्यः क्षिप्रमेव प्रधानतः।। | 12-107-27a 12-107-27b |
कुलेषु कलहा जाताः कुलवृद्धैरुपेक्षिताः। गोत्रस्य नाशं कुर्वन्ति गणभेदस्य कारकम्।। | 12-107-28a 12-107-28b |
आभ्यन्तरं भयं रक्ष्यमसारं बाह्यतो भयम्। आभ्यन्तरं भयं राजन्सद्यो मूलानि कृन्तति।। | 12-107-29a 12-107-29b |
अकस्मात्क्रोधमोहाभ्यां लोभाद्वाऽपि स्वभावजात्। अन्योन्यं नाभिभाषन्ते तत्पराभवलक्षणम्।। | 12-107-30a 12-107-30b |
जात्या च सदृशाः सर्वे कुलेन सदृशास्तथ। न चोद्योगेन बुद्ध्या वा रूपद्रव्येण वा पुनः।। | 12-107-31a 12-107-31b |
भेदाच्चैव प्रदानाच्च नाम्यन्ते रिपुभिर्गणाः। तस्मात्संघातमेवाहुर्गणानां शरणं महत्।। | 12-107-32a 12-107-32b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि सप्ताधिकसततमोऽध्यायः।। 107।। |
12-107-5 क्षीणस्य ग्रहणं वृत्तिर्जीविका च। लधुना सुगमेन। आदेशरूपेणोपदेशात्मकेन।। 12-107-6 गणानां शूरजनस्तेमानाम्।। 12-107-11 एको राजा लोभं वृणुते। गणस्तदाऽस्मभ्यं न ददाती त्यमर्षं वृणुते।। 12-107-12 इतरेतरं गणा राजानश्च प्रकर्षन्ति।। 12-107-14 संघातयोगेनैकमत्यप्रयोगेण।।
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