महाभारतम्-12-शांतिपर्व-293
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति श्रेयःसाधनानां कथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-293-1x |
अतत्त्वज्ञस्य शास्त्राणां संततं संशयात्मनः। अकृतव्यवसायस्य श्रेयो ब्रूहि पितामह।। | 12-293-1a 12-293-1b |
भीष्म उवाच। | 12-293-2x |
गुरुपूजा च सततं वृद्धानां पर्युपासनम्। श्रवणं चैव विद्यानां कूटस्थं श्रेय उच्यते।। | 12-293-2a 12-293-2b |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। गालवस्य च संवादं देवर्षेर्नारदस्य च।। | 12-293-3a 12-293-3b |
वीतमोहक्लमं विप्रं ज्ञानतृप्तं जितेन्द्रियः। श्रेयस्कामो यतान्मानं नारदं गालवोऽब्रवीत्।। | 12-293-4a 12-293-4b |
यैः कैश्चित्संमतो लोके गुणैश्च पुरुषो नृषु। भवत्यनपगान्सर्वांस्तान्गुणाँल्लक्षयामहे।। | 12-293-5a 12-293-5b |
भवानेवंविधोऽस्माकं संशयं छेत्तुमर्हति। अमूढश्चिरमूढानां लोकतत्त्वमजानताम्।। | 12-293-6a 12-293-6b |
ज्ञाने ह्येवं प्रवृत्तिः स्यात्कार्याणामविशेषतः। यत्कार्यं न व्यवस्यामस्तद्भवान्वक्तुमर्हति।। | 12-293-7a 12-293-7b |
भगवन्नाश्रमाः सर्वे पृथगाचारदर्शिनः। इदं श्रेय इदं श्रेय इति सर्वे प्रबोधिताः।। | 12-293-8a 12-293-8b |
तांस्तु विप्रस्थितानदृष्ट्वा शास्त्रैः शास्त्राभिनन्दिनः। स्वशास्त्रैः पिरतुष्टाश्च श्रेयो नोपलभामहे।। | 12-293-9a 12-293-9b |
शास्त्रं यदि भवेदेकं श्रेयो व्यक्तं भवेत्तदा। शास्त्रैश्च बहुभिर्भूयः श्रेयो गुह्यं प्रवेशितम्।। | 12-293-10a 12-293-10b |
एतस्मात्कारणाच्छ्रेयो गहनं प्रतिभाति मे। ब्रवीतु भगवांस्तन्मे उपसन्नोस्म्यधीहि भो।। | 12-293-11a 12-293-11b |
नारद उवाच। | 12-293-12x |
आश्रमास्तात चत्वारो यथा संकल्पिताः पृथक्। तान्सर्वाननुपश्य त्वं समाश्रित्यैव गालव।। | 12-293-12a 12-293-12b |
तेषांतेषां तथाहि त्वमाश्रमाणां ततस्ततः। नानारूपं गुणोद्देशं पश्य विप्रस्थितं पृथक्।। | 12-293-13a 12-293-13b |
न यान्ति चैव ते सम्यगभिप्रेतमसंशयम्। अन्येऽपश्यंस्तथा सम्यगाश्रमाणां परां गतिम्।। | 12-293-14a 12-293-14b |
यत्तु निःश्रेयसं सम्यक्तच्चैवासंशयात्मकम्। अनुग्रहं च मित्राणाममित्राणां च निग्रहम्।। | 12-293-15a 12-293-15b |
संग्रहं च त्रिवर्गस्य श्रेय आहुर्मनीषिणः। निवृत्तिः कर्मणः पापात्सततं पुण्यशीलता।। | 12-293-16a 12-293-16b |
सद्भिश्च समुदाचारः श्रेय एतदसंशयम्। मार्दवं सर्वभूतेषु व्यवहारेषु चार्जवम्।। | 12-293-17a 12-293-17b |
वाक्चैव मधुरा प्रोक्ता श्रेय एतदसंशयम्। देवताभ्यः पितृभ्यश्च संविभागोऽतिथिष्वपि।। | 12-293-18a 12-293-18b |
असंत्यागश्च भूत्यानां श्रेय एतदसंशयम्। सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यज्ञानं तु दुष्करम्।। | 12-293-19a 12-293-19b |
यद्भूतहितमत्यन्तमेतत्सत्यं ब्रवीम्यहम्। अहंकारस्य च त्यागः प्रमादस्य च निग्रहः।। | 12-293-20a 12-293-20b |
संतोषश्चैकचर्या च कूटस्थं श्रेय उच्यते। धर्मेण वेदाध्ययनं वेदाङ्गानां तथैव च।। | 12-293-21a 12-293-21b |
ज्ञानार्थानां च जिज्ञासा श्रेय एतदसंशयम्। शब्दरूपरसस्पर्शान्सह गन्धेन केवलान्।। | 12-293-22a 12-293-22b |
नात्यर्थमुपसेवेत श्रेयसोर्थी कथंचन।। | 12-293-23a |
नक्तंचर्यां दिवास्वप्नमालस्यं पैशुनं मदम्। अतियोगमयोगं च श्रेयसोर्थी परित्यजेत्।। | 12-293-24a 12-293-24b |
आत्मोत्कर्षं न मार्गेत परेषां परिनिन्दया। स्वगुणैरेव मार्गेति विप्रकर्षं पृथग्जनात्।। | 12-293-25a 12-293-25b |
निर्गुणास्त्वेव भूयिष्ठमात्मसंभाविता नराः। दोषैरन्यान्गुणवतः क्षिपन्त्यात्मगुणक्षयात्।। | 12-293-26a 12-293-26b |
अनूच्यमानास्तु पुनस्ते मन्यन्ते महाजनात्। गुणवत्तरमात्मानं स्वेन मानेन दर्पिताः।। | 12-293-27a 12-293-27b |
अब्रुवन्कस्यचिन्निन्दामात्मपूजामवर्णयन्। विपश्चिद्गुणसंपन्नः प्राप्नोत्येव महद्यशः।। | 12-293-28a 12-293-28b |
अब्रुवन्वाऽतिसुरभिर्गन्धः सुमनसां शुचिः। तथैवाव्याहरन्भाति विमलो भानुरम्बरे।। | 12-293-29a 12-293-29b |
एव मादीनि चान्यानि परित्यक्तानि मेधया। ज्वलन्ति यशसा लोके यानि न व्याहरन्ति च।। | 12-293-30a 12-293-30b |
न लोके दीप्यते मूर्खः केवलात्मप्रशंसया। अपि चापिहितः श्वभ्रे कृतविद्यः प्रकाशते।। | 12-293-31a 12-293-31b |
असदुच्चैरपि प्रोक्तः शब्दः समुपशाम्यति। दीप्यते त्वेव लोकेषु शनैरपि सुभाषितम्।। | 12-293-32a 12-293-32b |
मूढानामवलिप्तानामसारं भाषितं बहु। दर्शयत्यन्तरात्मानमग्निरूपमिवांशुमान्।। | 12-293-33a 12-293-33b |
एतस्मात्कारणात्प्रज्ञां मृगयन्ते पृथग्विधाम्। प्रज्ञालाभो हि भूतानामुत्तमः प्रतिभाति मे।। | 12-293-34a 12-293-34b |
नापृष्टः कस्यचिद्ब्रूयान्नाप्यन्यायेन पृच्छतः। जानन्नपि च मेधावी जडवत्समुपाविशेत्।। | 12-293-35a 12-293-35b |
ततो वासं परीक्षेत धर्मनित्येषु साधुषु। मनुष्येषु वदान्येषु स्वधर्मनिरतेषु च।। | 12-293-36a 12-293-36b |
चतुर्णां यत्र वर्णानां धर्मव्यतिकरो भवेत्। न तत्र वासं कुर्वीत श्रेयोर्थी वै कथंचन।। | 12-293-37a 12-293-37b |
निरारम्भोऽप्ययमिह यथालब्धोपजीवनः। पुण्यं पुण्येषु विमलं पापं पापेषु चाप्नुयात्।। | 12-293-38a 12-293-38b |
अपामग्नेस्तथेन्दोश्च स्पर्शं वेदयते यथा। तथा पश्यामहे स्पर्शमुभयोः पुण्यपापयोः।। | 12-293-39a 12-293-39b |
अपश्यन्तोऽन्यविषयं भुञ्जते विघसाशिनः। भुञ्जानाश्चान्यविषयान्विषयान्विद्धि कर्मणाम्।। | 12-293-40a 12-293-40b |
यत्रागमयमानानामसत्कारेण पृच्छताम्। प्रब्रूयाद्ब्रह्माणो धर्मं त्यजेत्तं देशमात्मवान्।। | 12-293-41a 12-293-41b |
शिष्योषाध्यायिका वृत्तिर्यत्र स्यात्सुसमाहिता। यथावच्छास्त्रसंपन्ना कस्तं देशं परित्यजेत्।। | 12-293-42a 12-293-42b |
आकाशस्था ध्रुवं यत्र दोषं ब्रूयुर्विपश्चिताम्। आत्मपूजाभिकामो वै को वसेत्तत्र पण्डितः।। | 12-293-43a 12-293-43b |
यत्र संलोडिता लुब्धैः प्रायशो धर्मसेतवः। प्रदीप्तमिव चेलान्तं कस्तं देशं न संत्यजेत्।। | 12-293-44a 12-293-44b |
यत्र धर्ममनाशङ्काश्चरेयुर्वीतमत्सराः। भवेत्तत्र वसेच्चैव पुण्यशीलेषु साधुषु।। | 12-293-45a 12-293-45b |
धर्ममर्थनिमित्तं च चरेयुर्यत्र मानवाः। न ताननुवसेज्जातु ते हि पापकृतो जनाः।। | 12-293-46a 12-293-46b |
कर्मणां यत्र पापेन वर्तन्ते जीवितेप्सवः। व्यवधावेत्ततस्तूर्णं ससर्पाच्छरणादिव।। | 12-293-47a 12-293-47b |
येन खट्वां समारूढः कर्मणाऽनुशयी भवेत्। आदितस्तन्न कर्तव्यमिच्छता भवमात्मनः।। | 12-293-48a 12-293-48b |
यत्र राजा च राज्ञश्च पुरुषाः प्रत्यनन्तराः। कुटुम्बिनामग्रभुजस्त्यजेत्तद्राष्ट्रमात्मवान्।। | 12-293-49a 12-293-49b |
श्रोत्रियास्त्वग्रभोक्तारो धर्मनित्याः सनातनाः। याजनाध्यापने युक्ता यत्र तद्राष्ट्रमावसेत्।। | 12-293-50a 12-293-50b |
स्वाहास्वधावषट्कारा यत्र सम्यगनुष्ठिताः। अजस्रं चैव वर्तन्ते वसेत्तत्राविचारयन्।। | 12-293-51a 12-293-51b |
अशुचीन्यत्र पश्येत ब्राह्मणान्वृत्तिकर्शितान्। त्यजेत्तद्राष्ट्रमासन्नमुपसृष्टमिवामिषम्।। | 12-293-52a 12-293-52b |
प्रीयमाणा नरा यत्र प्रयच्छेयुरयाचिताः। स्वस्थचित्तो वसेत्तत्र कृतकृत्य इवात्मवान्।। | 12-293-53a 12-293-53b |
दण्डो यत्राविनीतेषु सत्कारश्च कृतात्मसु। चरेत्तत्र वसेच्चैव पुण्यशीलेषु साधुषु।। | 12-293-54a 12-293-54b |
उपसृष्टेषु दान्तेषु दुराचारेषु साधुषु। अविनीतेषु लुब्धेषु सुमहद्दण्डधारणम्।। | 12-293-55a 12-293-55b |
यत्र राजा धर्मनित्यो राज्यं धर्मेण पालयेत्। अपास्य कामान्कामेशो वसेत्तत्राविचारयन्।। | 12-293-56a 12-293-56b |
यथाशीला हि राजानः सर्वान्विषयवासिनः। श्रेयसा योजयत्याशु श्रेयसि प्रत्युपस्थिते।। | 12-293-57a 12-293-57b |
पृच्छतस्ते मया तात श्रेय एतदुदाहृतम्। न हि शक्यं प्रधानेन श्रेयः सङ्ख्यातुमात्मनः।। | 12-293-58a 12-293-58b |
एवं प्रवर्तमानस्य वृत्तिं प्राणिहितात्मनः। तपसैवेह बहुलं श्रेयो व्यक्तं भविष्यति।। | 12-293-59a 12-293-59b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि त्रिनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 293।। |
12-293-2 श्रवणं चैव शास्त्राणामिति झ. पाठः।। 12-293-4 श्रेयस्कामं जितात्मानमिति थ. पाठः।। 12-293-7 प्रवृत्तिः स्यात्कार्याकार्ये विजानत इति ध. पाठः।। 12-293-9 नानाविधा गिरस्तास्तु दृष्ट्वा शास्त्राभिनन्दिन इति ध. पाठः।। 12-293-11 श्रेयः कलिलं प्रति भाति ये इति झ. पाठः। उपपन्नोस्म्यधीहि भो इति ध. पाठः।। 12-293-14 ऋजु पश्यन्ति ये सम्यगिति ध. पाठः।। 12-293-19 असंत्यागश्च भूतानामिति ध. पाठः।। 12-293-20 प्रणयस्य च निग्रह इति ध. पाठः।। 12-293-22 वेद्यार्थानां च जिज्ञासेति ध. पाठः।। 12-293-37 कर्मव्यतिकरो भवेदिति ध. पाठः।। 12-293-43 आकारं गूहमानाय दोषान्ब्रूयुर्विपश्चिताम् इति ध. पाठः।। 12-293-45 धर्मशीलेषु साधुष्विति ध. पाठः।। 12-293-48 इच्छता हितमात्मन इति ध. पाठः।। 12-293-55 ये दान्तेषु उपसृष्टाः सक्रोधास्तेषु येच साधुषु दुराचारास्तेषु। उपसृष्टेष्वदान्तेषु दुराचारेष्वसाधुष्विति ध. पाठः।। 12-293-59 वृत्तिं प्रणिहितात्मन इति ध. पाठः।।
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