महाभारतम्-12-शांतिपर्व-058
← शांतिपर्व-057 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-058 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-059 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति राजोत्पत्तेर्ब्रह्मकृतदण्डनीतिग्रन्थप्रतिपाद्यार्थानां पृथुराजचरितादीनां च कथनम्।। 1।।
वैशंपायन उवाच। | 12-58-1x |
ततः कल्यं समुत्थाय कृतपूर्वाह्णिकक्रियाः। ययुस्ते नगराकारैः रथैः पाण्डवयादवाः।। | 12-58-1a 12-58-1b |
प्रतिपद्य कुरुक्षेत्रं भीष्ममासाद्य चानघम्। सुखां च रजनीं पृष्ट्वा गाङ्गेयं रथिनां वरम्।। | 12-58-2a 12-58-2b |
व्यासादीनभिवाद्यर्षीन्सर्वैस्तैश्चाभिनन्दिताः। निषेदुरभितो भीष्मं परिवार्य समन्ततः।। | 12-58-3a 12-58-3b |
ततो राजा महातेजा धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः। अब्रवीत्प्राञ्जलिर्भीष्मं प्रतिपूज्य यथाविधि।। | 12-58-4a 12-58-4b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-58-5x |
य एष राजन्राजेति शब्दश्चरति भारत। कथमेष समुत्पन्नस्तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-58-5a 12-58-5b |
तुल्यपाणिभुजग्रीवस्तुल्यबुद्धीन्द्रियात्मकः। तुल्यदुःखसुखात्मा च तुल्यपृष्ठमुखोदरः।। | 12-58-6a 12-58-6b |
तुल्यशुक्रास्थिमज्जा च तुल्यमांसासृगेव च। नेःश्वासोच्छ्वासतुल्यश्च तुल्यप्राणशरीरवान्।। | 12-58-7a 12-58-7b |
समानजन्ममरणः समः सर्वैर्गुणैर्नृणाम्। विशिष्टबुद्धीञ्शूरांश्च कथमेकोऽधितिष्ठति।। | 12-58-8a 12-58-8b |
कथमेको महीं कृत्स्नां शूरवीरार्यसंकुलम्। रक्षत्यपि च लोकस्य प्रसादमभिवाञ्छति।। | 12-58-9a 12-58-9b |
एकस्य तु प्रसादेन कृत्स्नो लोकः प्रसीदति। व्याकुले चाकुलः सर्वो भवतीति विनिश्चयः।। | 12-58-10a 12-58-10b |
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं त्वत्तो हि भरतर्षभ। कृत्स्नं तन्मे यथातत्त्वं प्रब्रूहि वदतां वर।। | 12-58-11a 12-58-11b |
नैतत्कारणमत्यल्पं भविष्यति विशांपते। यदेकस्मिञ्जगत्सर्वं देववद्याति सन्नतिम्।। | 12-58-12a 12-58-12b |
भीष्म उवाच। | 12-58-13x |
नियतस्त्वं नरव्याघ्र शृणु सर्वमशेषतः। यथा राज्यं समुत्पन्नमादौ कृतयुगेऽभवत्।। | 12-58-13a 12-58-13b |
नैव राज्यं न राजाऽऽसीन्न च दण्डो न दाण्डिकः। धर्मेणैव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति स्म परस्परम्।। | 12-58-14a 12-58-14b |
पाल्यमानास्तथाऽन्योन्यं नरा धर्मेण भारत। दैन्यं परमुपाजग्मुस्ततस्तान्मोह आविशत्।। | 12-58-15a 12-58-15b |
ते मोहवशमापन्ना मनुजा मनुजर्षभ। प्रतिपत्तिविमोहाच्च धर्मस्तेषामनीनशत्।। | 12-58-16a 12-58-16b |
नष्टायां प्रतिपत्तौ च मोहवश्या नरास्तदा। लोभस्य वशमापन्नाः सर्वे भरतसत्तम।। | 12-58-17a 12-58-17b |
अप्राप्तस्याभिमर्शं तु कुर्वन्तो मनुजास्ततः। कामो नामापरस्तत्र प्रत्यपद्यत वै प्रभो।। | 12-58-18a 12-58-18b |
तांस्तु कामवशं प्राप्तान्रागो नामाभिसंस्पृशत्। रक्ताश्च नाभ्यजानन्त कार्याकार्ये युधिष्ठिर।। | 12-58-19a 12-58-19b |
अगम्यागमनं चैव वाच्यावाच्यं तथैव च। भक्ष्याभक्ष्यं चराजेन्द्र दोषादोषं च नात्यजन्।। | 12-58-20a 12-58-20b |
विप्लुते नरलोकेऽस्मिंस्ततो ब्रह्म ननाश ह। नाशाच्च ब्रह्मणो राजन्धर्मो नाशमथागमत्।। | 12-58-21a 12-58-21b |
नष्टे ब्रह्मणि धर्मे च देवास्त्रासमथागमन्। ते त्रस्ता नरशार्दूल ब्रह्माणं शरणं ययुः।। | 12-58-22a 12-58-22b |
प्रपद्य भगवन्तं ते देवं लोकपितामहम्। ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे दुःखवेगसमाहताः।। | 12-58-23a 12-58-23b |
भगवन्नरलोकस्थं ग्रस्तं ब्रह्म सनातनम्। लोभमोहादिभिर्भावैस्ततो नो भयमाविशत्।। | 12-58-24a 12-58-24b |
ब्रह्मणश्च प्रणाशेन धर्मो व्यनशदीश्चर। ततस्तु समतां याता मर्त्यैस्त्रिभुवनेश्वराः।। | 12-58-25a 12-58-25b |
अधोर्भिवर्षास्तु वयं भौमास्तूर्ध्वप्रवर्षिणः। क्रियाव्युपरमात्तेषां ततोऽगच्छाम संशयम्।। | 12-58-26a 12-58-26b |
अत्र निःश्रेयसं यन्नस्तद्ध्यायस्व पितामह। त्वत्प्रसादात्समुत्थोसौ प्रभावो नो भवत्वयम्।। | 12-58-27a 12-58-27b |
तानुवाच सुरान्सर्वान्स्वयंभूर्भगवांस्ततः। श्रेयोऽहं चिन्तयिष्यामिव्येतु वो भीः सुरोत्तमाः।। | 12-58-28a 12-58-28b |
ततोऽध्यायसहस्राणां शतं चक्रे स्वबुद्धिजम्। यत्र धर्मस्तथैवार्थः कामश्चैवानुवर्णितः।। | 12-58-29a 12-58-29b |
त्रिवर्ग इति विख्यातो गण एव स्वयंभुवा। चतुर्थो मोक्ष इत्येव पृथगर्थः पृथग्गुणः।। | 12-58-30a 12-58-30b |
मोक्षस्यास्ति त्रिवर्गोऽन्यः प्रोक्तः सत्वं रजस्तमः। स्थानं वृद्धिः क्षयश्चैव त्रिवर्गश्चैव दण्डजः।। | 12-58-31a 12-58-31b |
आत्मादेशश्च कालश्चाप्युपायाः कृत्यमेव च। सहायाः कारणं चैव षड्वर्गो नीतिजः स्मृतः।। | 12-58-32a 12-58-32b |
त्रयी चान्वीक्षिकी चैव वार्ता च भरतर्षभ। दण्डनीतिश्च विपुला विद्यास्तत्र निदर्शिताः।। | 12-58-33a 12-58-33b |
अमात्यलिप्सा प्रणिधी राजपुत्रस्य लक्षणम्। चारश्च विविधोपायः प्रणिधिश्च पृथग्विधः।। | 12-58-34a 12-58-34b |
सामभेदः प्रदानं च ततो दण्डश्च पार्थिव। उपेक्षा पञ्चमी चात्र कार्त्स्न्येन समुदाहृता।। | 12-58-35a 12-58-35b |
मन्त्रश्च वर्णितः कृत्स्नो मन्त्रभेदार्थ एव च। विभ्रमश्चैव मन्त्रस्य सिद्ध्यसिद्ध्योश्च यत्फलम्।। | 12-58-36a 12-58-36b |
संधिश्च त्रिविधाभिख्यो हीनो मध्यस्तथोत्तमः। भयसत्कारवित्ताख्यं कार्त्स्न्येन परिवर्णितम्।। | 12-58-37a 12-58-37b |
यात्राकालाश्च चत्वारस्त्रिवर्गस्य च विस्तरः। विजयो धर्मयुक्तश्च तथार्थविजयश्च ह।। | 12-58-38a 12-58-38b |
आसुरश्चैव विजयः कार्त्स्न्येन परिवर्णितः। लक्षणं पञ्चवर्गस्य त्रिविधं चात्र वर्णितम्।। | 12-58-39a 12-58-39b |
प्रकाशश्चाप्रकाशश्च दण्डोऽथ परिशब्दितः। प्रकाशोऽष्टविधस्तत्र गुह्यश्च बहुविस्तरः।। | 12-58-40a 12-58-40b |
रथा नागा हयाश्चैव पादाताश्चैव पाण्डव। विष्टिर्नावश्चराश्चैव देशिका इति चाष्टमः। अङ्गान्येतानि कौरव्य प्रकाशानि बलस्य तु।। | 12-58-41a 12-58-41b 12-58-41c |
जङ्गमाजङ्गमाश्चोक्ताश्चूर्णयोगा विषादयः। स्पर्शे चाभ्यवहार्ये चाप्युपांशुर्विविधः स्मृतः।। | 12-58-42a 12-58-42b |
`क्रीडापूर्वे रणे द्यूते विस्रम्भणसमन्वितम्। उक्तं कैतव्यमित्येतदुपायो नवमो बुधैः।। | 12-58-43a 12-58-43b |
उपेक्षा सर्वकार्येषु कर्मणां करणेषु च। अनिष्टानां समुत्थाने त्रिवर्गो नश्यते यया।। | 12-58-44a 12-58-44b |
इन्द्रजालादिका माया वाजीवनकुशीलवैः। सुनिमित्तैदुर्निमित्तैरुत्पातैश्च समन्वितम्।। | 12-58-45a 12-58-45b |
डम्भो लिङ्गं समाश्रित्य शत्रुवर्गे प्रयुज्यते। शाठ्यं निश्चेष्टता प्रोक्ता चित्तदोषप्रदूषिका।।' | 12-58-46a 12-58-46b |
अरिर्मित्र उदासीन इत्येतेऽप्यनुवर्णिताः। कृत्स्ना मार्गगुणाश्चैव तथा भूमिगुणाश्च ह। आत्मरक्षणमाश्वासः स्पर्शानां चान्ववेक्षणम्।। | 12-58-47a 12-58-47b 12-58-47c |
कल्पना विविधाश्चापि नृनागरथवाजिनाम्। व्यूहाश्च विविधाभिख्या विचित्रं युद्धकौशलम्।। | 12-58-48a 12-58-48b |
उत्पाताश्च निपाताश्च सुयुद्धं सुपलायितम्। शस्त्राणां पालनं ज्ञानं तथैव भरतर्षभ।। | 12-58-49a 12-58-49b |
बलव्यसनयुक्तं च तथैव बलहर्षणम्। पीडा चापदकालश्च भयकालश्च पाण्डव।। | 12-58-50a 12-58-50b |
तथाख्यातविधानं च योगः संचार एव च। चोरैराटविकैश्चोग्रैः परराष्ट्रस्य पीडनम्।। | 12-58-51a 12-58-51b |
अग्निदैर्गरदैश्चेव प्रतिरूपककारकैः। श्रेणिमुख्योपजापेन वीरुधश्छेदनेन च।। | 12-58-52a 12-58-52b |
दूषणेन च नागानामातङ्कजननेन च। आराधनेन भक्तस्य पत्युश्चोपग्रहेण च।। | 12-58-53a 12-58-53b |
सप्ताङ्गस्य च राज्यस्य ह्रासवृद्धिसमीक्षणम्। दूतसामर्थ्ययोगश्च राष्ट्रस्य च विवर्धनम्।। | 12-58-54a 12-58-54b |
अरिमध्यस्थमित्राणां सम्यक्चोक्तं प्रपञ्चनम्। अवमर्दः प्रतीघातस्तथैव च बलीयसाम्।। | 12-58-55a 12-58-55b |
व्यवहारः सुसूक्ष्मश्च तथा कण्टकशोधनम्। श्रमो व्यायामयोगश्च योगद्रव्यस्य सञ्चयः।। | 12-58-56a 12-58-56b |
अभृतानां च भरणं भृतानां चान्ववेक्षणम्। अन्तकाले प्रदानं च व्यसने चाप्रसङ्गिता।। | 12-58-57a 12-58-57b |
तथा राजगुणाश्चैव सेनापतिगुणाश्च ह। करणस्य च कर्तुश्च गुणदोषास्तथैव च।। | 12-58-58a 12-58-58b |
दुष्टेङ्गितं च विविधं वृत्तिश्चैवानुवर्तिनाम्। शङ्कितत्वं च सर्वस्य प्रमादस्य च वर्जनम्।। | 12-58-59a 12-58-59b |
अलब्धलिप्सा लब्धस्य तथैव च विवर्धनम्। प्रदानं च विवृद्धस्य पात्रेभ्यो विधिवत्तथा।। | 12-58-60a 12-58-60b |
विसर्गोऽर्थस्य धर्मार्थमर्थार्थं कामहेतुकम्। चतुर्थं व्यसनाघाते तथैवात्रानुवर्णितम्।। | 12-58-61a 12-58-61b |
क्रोधजानि ततोग्राणि कामजानि तथैव च। दशोक्तानि कुरुश्रेष्ठ व्यसनान्यत्र चैव ह।। | 12-58-62a 12-58-62b |
मृगयाक्षास्तथा पानं स्त्रियश्च भरतर्षभ। कामजान्याहुराचार्याः प्रोक्तानीह स्वयंभुवा।। | 12-58-63a 12-58-63b |
वाक्पारुष्यं तथोग्रत्व दण्डपारुष्यमेव च। आत्मनो निग्रहस्त्यागो ह्यर्थदूषणमेव च।। | 12-58-64a 12-58-64b |
यन्त्राणि विविधान्येव क्रियास्तेषां च वर्णिताः। अवमर्दः प्रतीघातः केतनानां च भञ्जनम्।। | 12-58-65a 12-58-65b |
चैत्यद्रुमावमर्दश्च रोधः कर्मान्तनाशनम्। अपस्करोऽथ वमनं तथोपास्या च वर्णिता।। | 12-58-66a 12-58-66b |
पणवानकशङ्खानां भेरीणां च युधिष्ठिर। उपार्जनं च द्रव्याणां परमर्म च तानि षट्।। | 12-58-67a 12-58-67b |
लब्धस्य च प्रशमनं सतां चैवाभिपूजनम्। विद्वद्भिरेकीभावश्च जपहोमविधिज्ञता।। | 12-58-68a 12-58-68b |
मङ्गलालम्भनं चैव शरीरस्य प्रतिक्रिया। आहारयोजनं चैव नित्यमास्तिक्यमेव च।। | 12-58-69a 12-58-69b |
एकेन च यथोत्थेयं सत्यत्वं मधुरा गिरः। उत्तमानां समाजानां क्रियाः केतनजास्तथा।। | 12-58-70a 12-58-70b |
प्रत्यक्षाश्च परोक्षाश्च सर्वाधिकरणेष्वथ। वृत्तेर्भरतशार्दूल नित्यं चैवान्ववेक्षणम्।। | 12-58-71a 12-58-71b |
अदण्ड्यत्वं च विप्राणां युक्त्या दण्डनिपातनम्। अनुजीवि स्वजातिभ्यो गुणेभ्यश्च समुद्भवः।। | 12-58-72a 12-58-72b |
रक्षणं चैव पौराणां राष्ट्रस्य च विवर्धनम्। मण्डलस्था च या चिन्ता राजन्द्वादशराजिका।। | 12-58-73a 12-58-73b |
द्विसप्ततिमतिश्चैव प्रोक्ता या च स्वयंभुवा। देशजातिकुलानां च धर्माः समनुवर्णिताः।। | 12-58-74a 12-58-74b |
धर्मश्चार्थश्च कामश्च मोक्षश्चात्रानुवर्णिताः। उपायाश्चार्थलिप्सा च विविधा भूरिदक्षिणः।। | 12-58-75a 12-58-75b |
मूलकर्मक्रिया चात्र मायायोगश्च वर्णितः। दूषणं स्रोतसां चैव वर्णितं च स्थिराम्भसाम्।। | 12-58-76a 12-58-76b |
यैर्यैरुपायैर्लोकस्तु न चलेदार्यवर्त्मनः। तत्सर्वं राजशार्दूल नीतिशास्त्रेऽभिवर्णितम्।। | 12-58-77a 12-58-77b |
एतत्कृत्वा सुभं शास्त्रं ततः स भगवान्प्रभुः। देवानुवाच संहृष्टः सर्वाञ्छक्रपुरोगमान्।। | 12-58-78a 12-58-78b |
उपकाराय लोकस्य त्रिवर्गस्थापनाय च। नवनीतं सरस्वत्या बुद्धिरेषा प्रभाषिता।। | 12-58-79a 12-58-79b |
दण्डेन सहिता ह्येषा लोकरक्षणकारिका। निग्रहानुग्रहरता लोकाननुचरिष्यति।। | 12-58-80a 12-58-80b |
दण्डेन नीयते चेदं दण्डं नयति वा पुनः। दण्डनीतिरितिख्याता त्रीँल्लोकानवपत्स्यते।। | 12-58-81a 12-58-81b |
पाङ्गुण्यगुणसारैषा स्थास्यत्यग्रे महात्मसु। धर्मार्थकाममोक्षाश्च सकला ह्यत्र शब्दिताः।। | 12-58-82a 12-58-82b |
भीष्म उवाच। | 12-58-83x |
ततस्तां भगवान्नीतिं पूर्वं जग्राह शंकरः। बहुरूपो विशालाक्षः शिवः स्थाणुरुमापतिः।। | 12-58-83a 12-58-83b |
अनादिनिधनो देवश्चैतन्यादिसमन्वितः। ज्ञानानि च वशे यस्य तारकादीन्यशेषतः।। | 12-58-84a 12-58-84b |
अणिमादिगुणोपेतमैश्वर्यं न च कृत्रिमम्। तुष्ट्यर्थं ब्रह्मणः पुत्रो ललाटादुत्थितः प्रभुः।। | 12-58-85a 12-58-85b |
अरुदत्सस्वनं घोरं जगतः प्रभुरव्ययः। जायमानः पिता पुत्रे पुत्रः पितरि चैव हि।। | 12-58-86a 12-58-86b |
बुद्धिं विश्वसृजे दत्त्वा ब्रह्माण्डं येन निर्मितम्। यस्मिन्हिरण्मयो हंसः शकुनिः समपद्यत।। | 12-58-87a 12-58-87b |
कर्ता सर्वस्य लोकस्य ब्रह्मा लोकपितामहः। स देवः सर्वभूतानां महादेवः सनातनः। असंख्यातसहस्राणां रुद्राणां स्थानमव्ययम्।। | 12-58-88a 12-58-88b 12-58-88c |
युगानामायुषो ह्रासं विज्ञाय भगवाञ्शिवः। संचिक्षेप ततः शास्त्रं महास्त्रं ब्रह्मणा कृतम्।। | 12-58-89a 12-58-89b |
वैशालाक्षमिति प्रोक्तं तदिन्द्रः प्रत्यपद्यत। दशाध्यायसहस्राणि सुब्रह्मण्यो महातपाः।। | 12-58-90a 12-58-90b |
मघवानपि तच्छास्त्रं देवात्प्राप्य महेश्वरात्। प्रजानां हितमन्विच्छन्संचिक्षेप पुरंदरः।। | 12-58-91a 12-58-91b |
सहस्त्रैः पञ्चभिस्तात यदुक्तं बाहुदन्तकम्। अध्यायानां सहस्त्रैस्तु त्रिभिरेव बृहस्पतिः। संचिक्षेपेश्वरो बुद्ध्या बार्हस्पत्यं यदुच्यते।। | 12-58-92a 12-58-92b 12-58-92c |
अध्यायानां सहस्रेण काव्यः संक्षेपमब्रवीत्। तच्छास्त्रममितप्रज्ञो योगाचार्यो महायशाः।। | 12-58-93a 12-58-93b |
एवं लोकानुरोधेन शास्त्रमेतन्महर्षिभिः। संक्षिप्तमायुर्विज्ञाय लोकानां ह्रासि पाण्डव।। | 12-58-94a 12-58-94b |
अथ देवाः समागम्य विष्णुमूचुः प्रजापतिम्। एको योऽर्हति मर्त्येभ्यः श्रैष्ठ्य वै तं समादिश।। | 12-58-95a 12-58-95b |
ततः संचिन्त्य भगवान्देवो नारायणः प्रभुः। तैजसं वै विरजसं सोऽसृजन्मानसं सुतम्।। | 12-58-96a 12-58-96b |
विरजास्तु महाभागः प्रभुत्वं भुवि नैच्छत। न्यासायैवाभवद्वुद्धिः प्रणीता तस्य पाण्डव।। | 12-58-97a 12-58-97b |
कीर्तिमांस्तस्य पुत्रोऽभूत्सोऽपि मर्त्याधिकोऽभवत्। कर्दमस्तस्य तु सुतः सोऽप्यतप्यन्महत्तपः।। | 12-58-98a 12-58-98b |
प्रजापतेः कर्दमस्य त्वनङ्गो नाम वीर्यवान्। प्रजा रक्षयिता साधुर्दण्डनीतिविशारदः।। | 12-58-99a 12-58-99b |
अनङ्गपुत्रोऽतिबलो नीतिमानभिगम्य वै। प्रतिपेदे महाराज्यमथेन्द्रियवशोऽभवत्।। | 12-58-100a 12-58-100b |
`प्राप्य नारीं महाभागां रूपिणीं काममोहितः। सौभाग्येन च संपन्नां गुणैश्चानुत्तमां सतीम्'।। | 12-58-101a 12-58-101b |
मृत्योस्तु दुहिता राजन्सुनीथा नाम नामतः। प्रख्याता त्रिषु लोकेषु या सा वेनमजीजनत्।। | 12-58-102a 12-58-102b |
तं प्रजासु विधर्माणं रागद्वेषवशानुगम्। मन्त्रपूतैः कुशैर्जघ्नुर्ऋषयो ब्रह्मवादिनः।। | 12-58-103a 12-58-103b |
ममन्थुर्दक्षिणं चोरुमृषयस्तस्य भारत। ततोऽस्य विकृतो जज्ञे ह्रस्वकः पुरुषोऽशुचिः।। | 12-58-104a 12-58-104b |
दग्धस्थूणाप्रतीकाशो रक्ताक्षः कृष्णमूर्धजः। निषीदेत्येवमूचुस्तमृषयो ब्रह्मवादिनः।। | 12-58-105a 12-58-105b |
तस्मान्निषादाः संभूताः क्रूराः शैलवनाश्रयाः। ये चान्ये विन्ध्यनिलया म्लेच्छाः शतसहस्रशः।। | 12-58-106a 12-58-106b |
भूयोऽस्य दक्षिणं पाणिं ममन्थुस्ते महर्षयः। ततः पुरुष उत्पन्नो रुपेणेन्द्र इवापरः।। | 12-58-107a 12-58-107b |
कवची बद्धनिस्त्रिंशः सशरः सशरासनः। वेदवेदाङ्गविच्चैव धनुर्वेदे च पारगः।। | 12-58-108a 12-58-108b |
तं दण्डनीतिः सकला श्रिता राजन्नरोत्तमम्। ततस्तु प्राञ्जलिर्वैन्यो महर्षीस्तानुवाच ह।। | 12-58-109a 12-58-109b |
सुसूक्ष्मा मे समुत्पन्ना बुद्धिर्धरर्मार्थदर्शिनी। अनया किं मया कार्यं तन्मे तत्त्वेन शंसत।। | 12-58-110a 12-58-110b |
यन्मां भवन्तो वक्ष्यन्ति कार्यमर्थसमन्वितम्। तदहं वः करिष्यामि नात्र कार्या विचारणा।। | 12-58-111a 12-58-111b |
तमूचुस्तत्र देवास्ते ते चैव परमर्षयः। नियतो यत्र धर्मो वै तमशङ्कः समाचर।। | 12-58-112a 12-58-112b |
प्रियाप्रिये परित्यज्य समः सर्वेषु जन्तुषु। कामं क्रोधं च लोभं च मानं चोत्सृज्य दूरतः।। | 12-58-113a 12-58-113b |
यश्च धर्मात्प्रविचलेल्लोके कश्चन मानवः। निग्राह्यस्ते स्वबाहुभ्यां शश्वद्धर्ममवेक्षता।। | 12-58-114a 12-58-114b |
प्रतिज्ञां चाधिरोहस्व मनसा कर्मणा गिरा। पालयिष्याम्यहं भौमं ब्रह्म इत्येव चासकृत्।। | 12-58-115a 12-58-115b |
यश्चात्र धर्म इत्युक्तो दण्डनीतिव्यपाश्रयः। तमशङ्कः करिष्यामि स्ववशो न कदाचन।। | 12-58-116a 12-58-116b |
अदण्ड्या मे द्विजाश्चेति प्रतिजानीष्व चाभिभो। लोकं च संकरात्कृत्स्नं त्राताऽस्मीति परंतप।। | 12-58-117a 12-58-117b |
वैन्यस्ततस्तानुवाच देवानृषिपुरोगमान्। ब्राह्मणा मे सहायाश्चेदेवमस्तु सुरर्षभाः।। | 12-58-118a 12-58-118b |
एवमस्त्विति वैन्यस्तु तैरुक्तो ब्रह्मवादिभिः। पुरोधाश्चाभवत्तस्य शुक्रो ब्रह्ममयो निधिः।। | 12-58-119a 12-58-119b |
मन्त्रिणो वालखिल्याश्च सारस्वत्यो गणस्तथा। महर्षिर्भगवान्गर्गस्तस्य सांवत्सरोऽभवत्।। | 12-58-120a 12-58-120b |
आत्मनाऽष्टम इत्येव श्रुतिरेषां परा नृषु। उत्पन्नौ बन्दिनौ चास्य तत्पूर्वौ सूतमागधौ।। | 12-58-121a 12-58-121b |
तयो प्रीतो ददौ राजा पृथुर्वैन्यः प्रतापवान्। अनूपदेशं सूताय मगधं मागधाय च।। | 12-58-122a 12-58-122b |
समतां वसुधायाश्च स सम्यगुदपादयत्। वैषम्यं हि परं भूमेरिति नः परमा श्रुतिः।। | 12-58-123a 12-58-123b |
मन्वन्तरेषु सर्वेषु विषमा जायते मही। उज्जहार ततो वैन्यः शिलाजालान्समन्ततः।। | 12-58-124a 12-58-124b |
धनुष्कोट्या महाराज तेन शैला विमर्दिताः। स विष्णुना च देवेन शक्रेण विबुधैः सह। ऋषिभिश्च प्रजापाल्ये ब्रह्मणा चाभिषेचितः।। | 12-58-125a 12-58-125b 12-58-125c |
तं साक्षात्पृथिवी भेजे रत्नान्यादाय पाण्डव। सागरः सरितां भर्ता हिमवांश्चाचलोत्तमः।। | 12-58-126a 12-58-126b |
शक्रश्च धनमक्षय्यं प्रादात्तस्मै युधिष्ठिर। रुक्मं चापि महामेरुः स्वयं कनकपर्वतः।। | 12-58-127a 12-58-127b |
यक्षराक्षसभर्ता च भगवान्नरवाहनः। धर्मे चार्थे च कामे च समर्थं प्रददौ धनम्।। | 12-58-128a 12-58-128b |
हया रथाश्च नागाश्च कोटिशः पुरुषास्तथा। प्रादुर्बभूवुर्वैन्यस्य चिन्तयानस्य पाण्डव।। | 12-58-129a 12-58-129b |
न जरा न च दुर्भिक्षं नाधयो व्याधयः कुतः। सरीसृपेभ्यः स्तेनेभ्यो न चान्येभ्यः कदाचन। भयमासीत्ततस्तस्य पृथिवी सस्यमालिनी।। | 12-58-130a 12-58-130b 12-58-130c |
आपस्तस्तम्भिरे चास्य समुद्रमभियास्यतः। पर्वताश्च ददुर्मार्गं ध्वजभङ्गश्च नाभवत्।। | 12-58-131a 12-58-131b |
तेनेयं पृथिवी दुग्धा सस्यानि दश सप्त च। यक्षराक्षसनागानामीप्सितं यस्य यस्य यत्।। | 12-58-132a 12-58-132b |
तेन धर्मोत्तरश्चायं कृतो लोको महात्मना। रञ्जिताश्च प्रजाः सर्वास्तेन राजेति शब्द्यते।। | 12-58-133a 12-58-133b |
ब्राह्मणानां क्षतत्राणात्ततः क्षत्रिय उच्यते। प्रथिता धर्मतश्चेयं पृथिवी साधुभिः स्मृता।। | 12-58-134a 12-58-134b |
स्थापनं चाकरोद्विष्णुः स्वयमेव सनातनः। नातिवर्तिष्यते कश्चिद्राजंस्त्वामिति भारत।। | 12-58-135a 12-58-135b |
ततः स भगवान्विष्णुराविवेश च पार्थिवम्। देववन्नरदेवानां नमतीदं जगत्ततः।। | 12-58-136a 12-58-136b |
दण्डनीत्या च सततं रक्षितारं नरेश्वरम्। नाधर्षयेत्तथा कश्चिच्चारनिष्पन्ददर्शनात्।। | 12-58-137a 12-58-137b |
शुभं हि कर्म राजेन्द्र शुभत्वायोपकल्पते। आत्मना करणैश्चैव समस्येह महीक्षितः।। | 12-58-138a 12-58-138b |
को हेतुर्यद्वशे तिष्ठेल्लोको दैवादृते गुणात्।। | 12-58-139a |
विष्णोर्ललाटात्कमलं सौवर्णमभवत्तदा। श्रीः संभूता ततस्तस्मिन्देवी धर्मस्य पाण्डव।। | 12-58-140a 12-58-140b |
श्रियः सकाशादर्थश्च जातो धर्मस्य पाण्डव। अथ धर्मस्तथैवार्थः श्रीश्च राज्ये प्रतिष्ठिता।। | 12-58-141a 12-58-141b |
सुकृतस्य क्षयाच्चैव स्वर्लोकादेत्य मेदिनीम्। पार्थिवो जायते तात दण्डनीतिविशारदः।। | 12-58-142a 12-58-142b |
माहात्म्येन च संयुक्तो वैष्णवेन नरो भुवि। बुद्ध्या भवति संयुक्तो माहात्म्यं चाधिगच्छति।। | 12-58-143a 12-58-143b |
स्थापितं च ततो देवैर्न कश्चिदतिवर्तते। तिष्ठत्येकस्य च वशे तं चैवानुविधीयते।। | 12-58-144a 12-58-144b |
शुभं हि कर्म राजेन्द्र शुभत्वायोपकल्पते। तुल्यस्यैकस्य येनायं लोको वचसि तिष्ठति।। | 12-58-145a 12-58-145b |
योऽस्य वै मुखमद्राक्षीत्सोऽस्य सर्वो वशानुगः। सुभगं चार्थवन्तं च रूपवन्तं च पश्यति।। | 12-58-146a 12-58-146b |
महत्त्वात्तस्य दण्डस्य नीतिर्विस्पष्टलक्षणा। नयश्चारश्च विपुलो येन सर्वमिदं ततम्।। | 12-58-147a 12-58-147b |
आगमश्च पुराणानां महर्षीणां च संभवः। तीर्थवंशश्च वंशश्च क्षत्रियाणां युधिष्ठिर।। | 12-58-148a 12-58-148b |
सकलं चातुराश्रम्यं चातुर्होत्रं तथैव च। चातुर्वर्ण्यं तथैवात्र चातुर्विद्यं च कीर्तिम्।। | 12-58-149a 12-58-149b |
इतिहासोपवेदाश्च न्यायः कृत्स्नश्च वर्णितः। तपो ज्ञानमर्हिसा च सत्यं दानममत्सरः।। | 12-58-150a 12-58-150b |
वृद्धोपसेवा दानं च शौचमुत्थानमेव च। सर्वभूतानुकम्पा च सर्वमत्रोपवर्णितम्।। | 12-58-151a 12-58-151b |
भुवि वाचोगतं यच्च तच्च सर्वं समर्पितम्। तस्मिन्पैतामहे शास्त्रे पाण्डवेय न संशयः।। | 12-58-152a 12-58-152b |
ततो जगति राजेन्द्र सततं शब्दितं बुधैः। देवाश्च नरदेवाश्च तुल्या इति विशांपते।। | 12-58-153a 12-58-153b |
एतत्ते सर्वमाख्यातं महत्त्वं प्रति राजसु। कार्त्स्न्येन भरतश्रेष्ठ किमन्यदिह वर्तते।। | 12-58-154a 12-58-154b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि अष्टपञ्चाशोऽध्यायः।। 58।। |
12-58-1 कल्यं प्रातः।। 12-58-5 आनुषत्वे समानेऽपि किंनिमित्तेयं एकस्मिन्निग्राहनुग्रहशक्तिरिति पृच्छति य इत्यादिना।। 12-58-14 दण्डः दमनम्। दाण्डिको दण्डप्रणेता।। 12-58-15 मोहो वैचित्यम्।। 12-58-16 प्रतिपत्तिविमोहात् ज्ञानलोपात्।। 12-58-20 नात्यजन्दुष्टमदुष्टं च सर्वं स्वीचक्रुरित्यर्थः।। 12-58-21 ब्रह्म वेदः। धर्मो यज्ञः।। 12-58-25 मर्त्यैः समतां याताः स्म। स्वाहाद्यभावेन क्षीणाः स्म इत्यर्थः।। 12-58-26 हविर्धाराभिरूर्ध्वप्रवर्षिणः। ततश्चान्नाभावान्नश्याम इत्यर्थः।। 12-58-30 पृथगर्थः त्रिवर्गफलापेक्षया विपरीतफलः। पृथग्गुणः त्रिवर्गसाधनापेक्षया विपरीतसाधनः।। 12-58-31 मोक्षस्य त्रिवर्गो धर्मादिरन्यो निष्कामः। धर्मादेर्भेदश्च सत्वादिगुणप्राधान्यनिमित्त इत्यर्थः। दण्डात्स्थानं साम्यं वणिजां वृद्धिस्तपस्विनां क्षयश्चोराणां च भवतीत्याहार्धेन स्थानमिति।। 12-58-32 नीतिजान्षङ्गुणानाह आत्मेति। आत्माचित्तम्। नीतिबलात्प्रजानां चित्तं दुःस्थितमपि सुस्थितं भवति। कुदेशोऽपि सुदेशो भवति। कलिरपि कृतं भवति। उपायाः साधनानि। कृत्यं कृतिनिर्वर्त्यं प्रयोजनम्। सहायाः सुहृदादयः।। 12-58-33 त्रयी कर्मकाण्डः। आन्वीक्षिकी ज्ञानकाण्डः। वार्ता कृषिवाणिज्यादिजीविकाकाण्डः। दण्डनीतिः पालनविद्या। एते धर्मादयस्तत्र ब्रह्मकृतशतसहस्राध्याये दर्शिताः।। 12-58-34 प्रणिधिर्गुप्तश्चारः। सच चारो विविधोपायः। ब्रह्मचार्यादिवेषधारी। एकैकस्मिन्स्थाने पृथक्पृथग्वेषः।। 12-58-35 सामादिचतुष्टयमुपेक्षा च पञ्चमीत्युपायाः।। 12-58-36 विभ्रमो भेदार्थे।। 12-58-37 भयेन संधिर्हीनः। सत्कारेण मध्यमः। वित्तग्रहणेनोत्तमः। तन्त्रयं संधिकारणं वर्णितम्।। 12-58-38 चत्वारो मित्रवृद्धिः कोशसंचयश्च स्वस्य मित्रनाशः कोशहानिश्च परस्येति।। 12-58-39 आसुरो विजयः सौप्तिके गतः। पञ्चवर्गोऽमात्यराष्ट्रदुर्गाणि बलं कोशश्च पञ्चमः। त्रिविधमुत्तममध्यमाधमभेदेन।। 12-58-40 दण्डः सेना।। 12-58-41 विष्टिर्विष्टिगृहीता भारवाहाः। चराश्चाराः। देशिका उपदेष्टारो गुरवः।। 12-58-42 जंगमा महावृश्चिकादिजाः। अजंगमाः रक्तशृङ्गिकादयः। स्पर्शे वस्रादौ। अभ्यवहार्येऽन्नादौ। उपांशरभिचारादिरिति विविधो विषयोगरूपो दण्डः।। 12-58-47 मार्गेगुणाः ग्रहनक्षत्रादिमार्गगुणाः। भूमिगुणाश्चतुरशीतिभूवलानि यामलोक्तानि। आत्मरक्षणं मन्त्रयन्त्रादिना। सर्गाणां चान्ववेक्षणम् इति झ. पाठः।। 12-58-48 कल्पनाः बलपुष्टिकरा योगाः। विविधाभिख्याश्चक्रव्यूहक्रौञ्चव्यूहादिनानानामानः।। 12-58-49 उत्पाता- ग्रहयुद्धादयो धूमकेत्वादयश्च। निपाताः उल्कापातभूमिकम्पादयः। शास्त्राणां पालनं तीक्ष्णीकरणम्। शास्त्राणां पालनं इति ट. ड. पाठः।। 12-58-50 आपदां समूह आपदं तस्य काल आपदकालः।। 12-58-51 आख्यातमभिमन्त्रितदुन्दुभिष्वनिना प्रयाणादिकथनम्। योगः पताकादिमन्त्रणादि। तयोः संचारः श्रवणदर्शनाभ्यां परमोहनम्। एतत्सर्वं तत्र उक्तमिति सर्वत्र योज्यम्।। 12-58-52 गरदैः विषदैः प्रतिरूपकं प्रतिमा तत्कारकैस्तद्द्वारा कार्मणकारिभिः कौलिकैः। श्रेणिमुख्याः बलाध्यक्षादयस्तेषामुपजापो भेदनं तेन। वीरुधश्छेदनेन धान्याद्युच्छेदेन।। 12-58-53 नागानां दूषणं मन्त्रतन्त्रौषधादिना तेन परराष्ट्रस्य पीडनमुक्तमिति प्रपूर्वेण संबन्धः।। 12-58-56 कण्टकशोधनं खलानामुन्मूलनम्। श्रमो मल्लक्रीडा। व्यायामयोगः आयुधप्रयोगाभ्यासः।। 12-58-57 अर्थस्य काले दाने च इति झ. पाठः। अप्रसङ्गिता असंबन्धः।। 12-58-58 राजगुणाः उत्थानादयः।। 12-58-60 पात्रेभ्यः प्रदानं प्रथमम्।। 12-58-61 विसर्गो दानं धर्मार्थं यज्ञार्थं द्वितीयम्। काम्यं तृतीयम्। व्यसनाधाते चतुर्थम्।। 12-58-65 अवमर्दः परचक्रेण देशादेः पीडनम्।। 12-58-67 तानि द्रव्याणि षट् मणयः पशवः पृथ्वी वासो दास्यादि काञ्चनमिति।। 12-58-69 मङ्गलं स्वर्णादिकं तस्यालम्भनं स्पर्शः। प्रतिक्रिया अलंकरणम्।। 12-58-70 एकस्याप्युत्थानप्रकारः। केतनजाः गृहजाः। क्रियाः ध्वजारोहणाद्याः।। 12-58-71 अधिकरणेषु जनोपवेशनस्थानेषु चत्वरादिषु।। 12-58-72 जातितो गुणतश्च समुद्भवो मान्यत्वम्।। 12-58-73 द्वादशानां राज्ञां समूहो द्वादशराजिका। मध्यस्थस्य विजिगीषोश्रतुर्दिक्षु चत्वारोऽरयस्तेभ्योऽपरे चत्वारो मित्राणि तेभ्यः परे चत्वार उदासीना इति।। 12-58-75 हे भूरिदक्षिण।। 12-58-76 मूलकर्माणि कोशवृद्धिकराणि कृष्यादीनि तेषां क्रिया करणप्रकारः।। 12-58-81 नीयते पुरुषार्थफलाय इदं जगत् दण्डं नयति प्रणयति अनया या चेति वा।। 12-58-89 प्रजानामायुषः इति झ. पाठः। संचिक्षेप संक्षिप्तं कृतवान्।। 12-58-90 वैशालाक्षं बाहुदन्तकं बार्हस्पत्यमित्युत्तरोत्तरसंक्षिप्तदण्डनीतिग्रन्थनामानि।। 12-58-98 पञ्चादिगोऽभवदिति झ. पाठः। तत्र पञ्चातिगः विषयातिगः मुक्त इत्यर्थः।। 12-58-99 अनङ्गइत्यङ्गस्यैव नामान्तरम्।। 12-58-120 सांवत्सरो ज्यौतिषिकः।। 12-58-121 आत्मना स्वशरीरेण सहाष्टमः पृथुर्विष्णोः सकाशादित्यर्थः। तथाहि- विष्णुः प्रथमः। विरजा द्वितीयः। कीर्तिमांस्तृतीयः। कदमश्चतुर्थः। अनङ्गः पञ्चमः। अतिबलः षष्ठः। वेनः सप्तमः। पृथुरष्टम इति।। 12-58-134 प्रथितावनता चेति विग्रहे वर्णलोपविकाराभ्यां पृथिवी।। 12-58-135 स्थापनं मर्यादाम्।। 12-58-136 तपसा भगवान्विष्णुराविवेश च भूमिपम्। इति झ. पाठः।। 12-58-138 चाराणां निष्पन्दः संचारस्तद्द्वारा यद्दर्शनं लोकवृत्तान्तस्य महीक्षितः कर्मेति संबन्धः।। 12-58-139 विष्णुर्भूमिपमाविवेशेत्युक्तं तत्रोपपत्तिः क इत्यर्धेन।। 12-58-144 स्थापनामथ चेद्देवीं न कश्चिदतिवर्तत इति ट. ड. थ. पाठः।। 12-58-145 तुल्यस्य स्ताद्यवयवैः समस्य।। 12-58-147 दण्डसामर्थ्यादेव लोके नीत्यादिकं दृश्यत इत्यर्थः।। 12-58-148 आगमादिकं चात्र ग्रन्थे कीर्तितम्।।
शांतिपर्व-057 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-059 |