महाभारतम्-12-शांतिपर्व-179
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति तपोदानादिसत्कर्मणामपि परम्परया सुखसाधनताकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-179-1x |
यद्यस्ति दत्तमिष्टं वा तपस्तप्तं तथैव च। गुरूणां वाऽपि शुश्रूषा तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-179-1a 12-179-1b |
भीष्म उवाच। | 12-179-2x |
`यथाऽस्मिंश्च तथा तत्र जानीयां नृपसत्तम। दुष्कर्तारो यथा लोके यत्कुर्वन्ति तथा शृणु।।' | 12-179-2a 12-179-2b |
आत्मनाऽनर्थयुक्तेन पापे निविशते मनः। स्वकर्म कलुषं कृत्वा दुःखे महति धीयते।। | 12-179-3a 12-179-3b |
दुर्भिक्षादेव दुर्भिक्षं क्लेशात्क्लेशं भयाद्भयम्। मृतेभ्यः प्रमृता यान्ति दरिद्राः पापकारिणः।। | 12-179-4a 12-179-4b |
उत्सवादुत्सवं यान्ति स्वर्गात्स्वर्गं सुखात्सुखम्। श्रद्दधानाश्च दान्ताश्च सत्वस्थाः शुभकारिणाः।। | 12-179-5a 12-179-5b |
व्यालकुञ्जरदुर्गेषु सर्पचोरभयेषु च। हस्तावापेन गच्छन्ति नास्तिकाः किमतः परम्।। | 12-179-6a 12-179-6b |
प्रियदेवातिथेयाश्च वदान्याः प्रियसाधवः। क्षेम्यमात्मवतां मार्गमास्थिता हस्तदक्षिणम्।। | 12-179-7a 12-179-7b |
पुलाका इव धान्येषु पुत्तिका इव पक्षिषु। तद्विधास्ते मनुष्येषु येषां धर्मो न कारणम्।। | 12-179-8a 12-179-8b |
सुशीघ्रमपि धावन्तं विधानमनुधावति। शेते सह शयानेन येनयेन यथाकृतम्।। | 12-179-9a 12-179-9b |
उपतिष्ठति तिष्ठन्तं गच्छन्तमनुगच्छति। करोति कुर्वतः कर्म छायेवाऽनुविधीयते।। | 12-179-10a 12-179-10b |
येनयेन यथा यद्यत्पुरा कर्म समार्जितम्। तत्तदेव नरो भुङ्क्ते नित्यं विहितमात्मना।। | 12-179-11a 12-179-11b |
स्वकर्मफलनिक्षेपं विधानपरिरक्षितम्। भूतग्राममिमं कालः समन्तात्परिकर्षति।। | 12-179-12a 12-179-12b |
अचोद्यमानानि यथा पुष्पाणि च फलानि च। स्वं कालं नातिवर्तन्ते तथा कर्म पुराकृतम्।। | 12-179-13a 12-179-13b |
संमानश्चावमानश्च लाभालाभौ क्षयोदयौ। प्रवृत्तानि विवर्तन्ते विद्यानान्ते पुनःपुनः।। | 12-179-14a 12-179-14b |
आत्मना विहितं दुःखमात्मना विहितं सुखम्। गर्भशय्यामुपादाय भुज्यते पौर्वदेहिकम्।। | 12-179-15a 12-179-15b |
बालो युवा च वृद्धश्च यत्करोति शुभाशुभम्। तस्यांतस्यामवस्थायां भुङ्क्ते जन्मनिजन्मनि।। | 12-179-16a 12-179-16b |
यथा धेनुसहस्रेषु वत्सो विन्दति मातरम्। तथा पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति।। | 12-179-17a 12-179-17b |
संक्लिन्नमग्रतो वस्त्रं पश्चाच्छुध्यति वारिणा। `दुष्कर्मापि तथा पश्चात्पूयते पुण्यकर्मणा।। | 12-179-18a 12-179-18b |
तपसा तप्यते देहस्तपसा विन्दते महत्।।' उपवासैः प्रतप्तानां दीर्घं सुखमनन्तरम्।। | 12-179-19a 12-179-19b |
दीर्घकालेन तपसा सेवितेन तपोवने। धर्मनिर्धूतपापानां संसिद्ध्यन्ते मनोरथाः।। | 12-179-20a 12-179-20b |
शकुनीनामिवाकाशे मत्स्यानामिव चोदके। पदं यथा न दृश्येत तथा धर्मविदां गतिः।। | 12-179-21a 12-179-21b |
अलमन्यैरुपालम्भैः कीर्तितैश्च व्यतिक्रमैः। पेशलं चानुरूपं च कर्तव्यं हितमात्मनः।। | 12-179-22a 12-179-22b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकोनाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 179।। |
12-179-1 यद्यस्ति सफलमित्यध्याहारः। दत्तेष्टे गृहस्यस्य धर्मः। तपो वानप्रस्थस्य। गुरुशुश्रूषा ब्रह्मचारिणः।। 12-179-3 नास्तिक्यमनर्थः तेन युक्तेनात्मना कुशास्त्रजिताध्यायसयेन। कलुषं पापम्।। 12-179-4 मृतेभ्यः प्रमृतं यान्तीति झ. पाठः। तत्र मृतेभ्यो मरणेभ्यः। प्रमृतं मरणान्तरम्। अविलम्बेन पुनःपुनर्म्रियन्त इत्यर्थः।। 12-179-5 धनाढ्याः शुभकारिण इति झ. पाठः।। 12-179-6 हस्ताववाप्येते प्रवेश्येते यस्मिन्निति हस्तावापो हस्तनिगडस्तेन निगडिताः सन्तो नास्तिका राष्ट्राद्दूरीकृता व्यालादिमत्सु वनेषु गच्छन्तीत्यर्थः।। 12-179-7 आतिथेयमतिथिहितं मृष्टान्नदानादि। आत्मवतां जितचित्तानाम्। हस्तदक्षिणं हस्तोपलक्षितेन तत्कर्तव्येन दानादिना कर्मणा दक्षिणमनुकूलम्।। 12-179-8 पुलाका गर्तोष्मणा भक्तसिक्थवन्नष्ठवीजभावाः। पुत्तिका मशकाः। कारणं सुखादिहेतुः।। 12-179-9 विधानं प्राक्कर्म धावन्तं यतमानमनुधावति फलप्रदानेनानुसरति। येन येन यथा कृतं तं तं प्रति तथा प्राक्कर्मं फलदमफलदं च भवति।। 12-179-10 कर्म प्राचीनं छायेवानुविधीयते पुरुषेण स्वस्यातुकूलं क्रियते।। 12-179-11 नित्यमपरिहार्यम्।। 12-179-12 स्वकर्मणः फलं स्वर्गपश्वादि तदेव निक्षेपरूपं विधानेन कर्मजन्यादृष्टेन रक्षितं भूतग्रामं प्रति कालः समनुकर्षति।। 12-179-18 संक्लिन्नं मलेनेति शेषः।। 12-179-22 उपालम्भैराक्षेपवाक्यैः। व्यतिक्रमैरपराधैः। अलमुक्तैः पर्याप्तम्। पेशकौशलयुक्तं यथास्यात्तथा।।
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